सूर साहित्य का विदेशों में बढ़ता प्रभाव

Dr. Mulla Adam Ali
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Growing influence of Sur literature in foreign countries

Growing influence of Sur literature in foreign countries

सूर साहित्य का विदेशों में बढ़ता प्रभाव

सूरदास हिन्दी भक्तिकाल के सर्वश्रेष्ठ भक्त कवि हैं। इनके काव्य में हृदय को स्पर्श करने की शक्ति पूर्ण रूप से विद्यमान है। यही वजह है कि उनका काव्य जन जीवन को प्रमुदित करने में पूर्णतः म सिद्ध हुआ है। सूर के काव्य सौन्दर्य पर मुग्ध होकर अनेक भारतीय एवं विदेशी काव्य प्रेमियों ने उनके जीवन तथा काव्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से जाँचा-परखा है। सूर अपने समय के मर्मज्ञ बाल मनोवैज्ञानिक हैं ओर उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी बंद आँखों से जितना बारीक एवं हृदयस्पर्शी वर्णन कृष्ण की बाललीला का किया है, कोई खुली आँखों वाला कवि नहीं कर सका है।

मनोवैज्ञानिक कोण से देखें तो मानव मन में सदैव दो विपरीत भाव मौजूद रहते हैं। एक ओर यह प्रेम करता है तथा दूसरी ओर घृणा। वह युद्ध के लिए भी तत्पर रहता है और शांति-वार्ता के लिए प्रयत्नशील भी। अतः मनुष्य मात्र के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि अगर वह विश्वशांति का अभिलाषी है तथा स्वयं की सुरक्षा का इच्छुक है, तब उसे मानव मन में छिपी अशांति, असंतोष एवं घृणा के भाव का उन्मूलन करना होगा। आश्चर्य नहीं कि इसी भावना की साहित्य परंपरा के अंतर्गत भक्तिकाल में समान रचनाओं का ही सृजन हुआ। सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के वशीभूत इस काल के भक्त कवियों ने निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति की दो धाराओं को समानान्तर प्रवाहित किया। सूर ने अपनी मानसिक दशाओं से प्रेरित होकर सौन्दर्य के अपार सागर और रसिक शिरोमणि भगवान कृष्ण की प्रेम भक्ति की अजस्त्र सरिता प्रवाहित करके उसमें स्वयं भी डुबकी लगाई तथा प्रेम पीड़ित जनमानस को भी परितृप्त किया।

इसमें दो राय नहीं कि पाश्चात्य विद्वानों, काव्य प्रेमियों और अनुवादकों को सूर काव्य ने दो कारणों से गहरे में प्रभावित किया। पहला, इसमें आधुनिक मनोविज्ञान के प्रखर तत्त्व मौजूद हैं और दूसरा, सूरकाव्य पूर्णतया भारतीय संस्कारों एवं परंपराओं का पोषक काव्य है। इस तरह दो विपरीत संस्कृतियों और परंपराओं का यहाँ सुखद मिलन होता है। निस्संदेह, सूरकाव्य में मनोविज्ञान का अपार कोष छिपा है, जिसे मनोविश्लेषण सम्प्रदाय, व्यवहारवाद, बालमनोविज्ञान तथा काव्य एवं मनोविज्ञान के संबंधों के आधार पर खोजा जा सकता है। दरअसल, मनोविज्ञान अपने मूल रूप से भारत की ही देन है। गुलामी के एक दीर्घ अन्तराल ने भारतीय जनता की प्रतिभा को कुंठित कर दिया, जिसके कारण हम अपने मूल रूप को दूसरों का मानकर अपने गौरव से वियुक्त हो गए।

इस संदर्भ में सूरकाव्य को विदेशी विद्वानों द्वारा अपने अध्ययन एवं अनुवाद का विषय बनाया जाना स्वाभाविक बात है। फ्रेंच, अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, इटेलियन, केनेडियन एवं अमेरिकन विद्वानों तथा अनुवादकों को सूर काव्य ने सर्वाधिक प्रभावित एवं प्रेरित किया है। सूर काव्य में कृष्ण बाललीला के अतिरिक्त भारत एवं भारतीय समाज के राष्ट्रीय चरित्र के उत्कृष्टतम गुणों, युग विशेष की सामाजिक ओर सांस्कृति चेतना का व्यापक चित्रण हुआ है। सूर काव्य में निहित भावगत, विचारगत और सौन्दर्यगत मनोरचना भी विदेशी विद्वानों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। सूर की काव्य प्रतिभा, कलात्मक विशिष्टता, काव्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और सौन्दर्यबोध की उदात्तता से प्रेरित होकर कैम्बिज विश्वविद्यालय के आर. एस. मैग्रेगर ने सूरदास के चुने हुए पदों का अनुवाद अंग्रेजी में किया है। यह भी दिलचस्प है कि पेरिस विश्वविद्यालय के डॉ. वी.सी. वादविल ने फ्रेंच में 'पास्ट्रोरल्स' नाम से एक पुस्तक लिखी है, जिसमें आलोचनात्मक अंश के साथ सूर के चुने हुए पदों का अनुवाद भी दिया गया है।

इसी साहित्यिक क्रम में हाईडिलबर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी के डॉ. लूथर लुत्से ने भी सूर के कुछ पदों का जर्मन भाषा में अनुवाद किया। इटली के प्रसिद्ध विद्वान जी.जी. फिलिप्पी भी 'सूर सागर' का अनुवाद फ्रेंच भाषा में कर चुके हैं। एक अन्य पुस्तक सूरदास पर प्रकाशित की गई है, जिसका प्रणयन ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय बैंक्यूवर, कैनेडा के प्रोफेसर के.ई. बेयांत ने किया है। इस पुस्तक में सूर के लीला संबंधी पदों का समालोचनात्मक अध्ययन किया गया है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के डॉ. रिचर्ड हैनेस एवं वैस्टर्न मिचगोन विश्वविद्यालय के भारतीय डॉ. डी.पी. द्वारकेश भी अन्य अमरीकी विद्वानों के सहयोग से सूर काव्य पर एक आलोचनात्मक ग्रंथ का प्रकाशन कर चुके हैं।

यह भी संयोग की बात है कि फ्रेंच विद्वान गांर्सा द तासी और अंग्रेज आलोचक जार्ज ग्रियर्सन ने ही सर्वप्रथम हिन्दी में साहित्य के इतिहास लेखन का कार्य प्रारंभ किया और हिन्दी के मध्यकालीन काव्य के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत किए। ग्रियर्सन ने अपने इतिहास में भक्तिकाल के उद्भव के कारणों, प्रेरणा स्त्रोतों, उसके स्वरूप और विकास पर विस्तृत सामग्री प्रस्तुत करते हुए सूर साहित्य पर अपनी विशेष आलोचनातमक दृष्टि डाली और उसका उत्कृष्ट मूल्यांकन किया। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि1934 में भारत में जब पहला शोध कार्य हो रहा था, ठीक उसी वर्ष विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी का पाँचवा और सूर साहित्य पर पहला शोध ग्रंथ पी-एच.डी. उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ। यह भी कि एक भारतीय विद्वान डॉ. जनार्दन मिश्र द्वारा कोनिग्सबर्ग विश्वविद्यालय में एक शोध ग्रन्थ प्रस्तुत किया गया, जिसमें सूर के काव्य पर आलोचनात्मक दृष्टि से पहली बार स्वतंत्र रूप से विचार किया गया था।

सन् 1918 में रूसी विद्वानों ने भी भारतीय साहित्य की श्रेष्ठतम कृतियों के अनुवाद कार्य एवं अवलोकन कार्य में रूचि लेनी शुरू कर दी थी। नतीज़तन कई रूसी विद्वानों द्वारा सूर के साहित्य पर भी अलग-अलग दृष्टिकोणों से आलोचनात्मक लेख लिखे गए, भारतीय भक्ति आन्दोलन के संदर्भ में उनके महत्त्व का मूल्यांकन किया गया, साथ ही 'सूरसागर' के अनेक पदों का अनुवाद रूसी भाषा में प्रस्तुत किया गया। प्रसिद्ध विद्वान ई. चेलीशेव ने हिन्दी साहित्य के भक्ति युग और उसमें सूर के महत्व पर अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर प्रकट किए है। उन्होंने इस बात को विशेष रूप से रेखांकित किया है कि हिन्दी के भक्ति आन्दोलन की वे कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं, जो रूस के जनवादी लेखकों को प्रभावित करती रही हैं चेलीशेव का मानना हे कि भक्ति आन्दोलन मानवतावाद और मानवता में निहित पाखंड और दंभ के खिलाफ सर्वसाधारण का मुक्ति आन्दोलन था, जिसने प्राचीन काल से चली आ रही भाषागत और विचारगत दीवारों का उन्मूलन किया और साहित्य को राज्याश्रय से हटाकर लोकाश्रय में प्रतिष्ठित किया। वे आगे कहते हैं कि सूर ने अपनी दार्शनिक और प्रेमपरक कविताओं के माध्यम से मानवीय सौन्दर्य को प्रकृति के साथ एकाकार कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

इसी क्रम में वाई. त्स्वेत्कोव एवं एन. सरानोया जैसे रूसी विद्वानों ने भी सूरदास की रचनाओं का रूसी भाषा में आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। वाई त्स्वेत्कोव ने स्वतंत्र रूप से भी 'सूरदास', 'महाकवि सूर' और उनके 'सूरसागर' पर एक मौलिक शोध प्रबंध तैयार किया। उनका कहना है कि सूरदास ने मानव के आंतरिक जीवन और प्रकृति के प्रति उनकी भावनाओं के चित्र व्यापकता से उकेरे हैं। सूरदास की रचना संसार मानव के सूक्ष्म से सूक्षतम रचनात्मक अनुभवों से संपन्न है और संघर्षरत जन समूह के हितों से उसका सीधा संबंध है। सूर ने ईश्वर को गुण-दोषों से युक्त सामान्य 'जन' के रूप में चित्रित कर अपने हृदय की विशालता का परिचय दिया है। उनका संदेश प्रेम, समानता और मानवता का संदेश है।

सूर काव्य की विशेषताओं से प्रेरित होकर मास्को विश्वविद्यालय की प्रोफेसर मदाम न. म. साजानोवा ने अपने प्रयत्नों से रूसी भाषा में 200 पृष्ठों के आलोचनात्मक अंश के साथ सूरदास के 250 चुने हुए पदों का अनुवाद पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया है। यह पुस्तक रूसी साहित्य प्रेमियों में बेहद चर्चित हुई। इस पुस्तक का अनुवाद जर्मन भाषा में भी प्रकाशित हुआ है। प्रोफेसर मदाम की प्रेरणा से ही सूर साहित्य से संबंधित एक अन्य ग्रंथ रूसी, जर्मन एवं अंग्रेजी भाषा में तैयार करके प्रकाशित किया गया है। 'सूरसागर' का एक संक्षिप्त संस्करण नागरी लिपि में भी रूस में प्रकाशित हुआ है।

यूँ तो भारतीय विश्वविद्यालयों में सूर साहित्य पर बड़े मार्के का शोध कार्य करवाया गया है तथा कई विद्वानों ने सूर के रचना संसार पर सामान्य एवं आलोचनात्मक ग्रंथ भी लिखे हैं। सूर साहित्य पर तुलनात्मक शोध कार्य भी हुआ है। लेकिन नियति का व्यंग्य यह हे कि सूर साहित्य का भारत की अन्य भाषाओं में अपेक्षित अनुवाद नहीं हुआ है जिसकी माँग सदैव बनी रही है और आज भी है। भारतीय विश्वविद्यालयों और विद्वान अनुवादकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि सूर साहित्य को समझने के लिए हमें विदेशी भाषाओं के दरवाजे से प्रविष्ट होना पड़े। सूरदास के रचित साहित्य की किरणों से भारतीय प्रादेशिक भाषाएँ भी आलोकित होनी चाहिए।

- डॉ. अमरसिंह बधान

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