Hindi novels based on feudal consciousness
हिन्दी के सामंती चेतना परक उपन्यास
हिंदी उपन्यासों में सामंती चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार है। किशोरीलाल गोस्वामी का 'कनक कुसुम व मस्तानी अमृतलाल नागर का शतरंज के मोहरे' वृंदावनलाल वर्मा का 'गढ़ कुण्डार कचनार तथा मुसाहिय जू' आचार्य चतुरसेन शास्त्री का 'सोना और खून' तथा 'गोली' डॉ. रांगेय राघव 'चीवर' तथा 'कब तक पुकारूँ' आदि ऐसे ही उपन्यास हैं जिसमें सामंती व्यवस्था का स्वरूप उजागर हुआ है। उक्त सभी उपन्यास, सामांती कथानक पर आधारित हैं। नागार्जुन के 'बलचनमा' एवं 'रतिनाथ की चाची' में भी सामंती चेतना की अभिव्यक्ति मिलती है। डॉ. रामदरश मिश्र के 'जल टूटता हुआ' एवं 'परती परिकथा' में भी सामंती परिवेश उद्घाटित हुआ है।
सामंतवाद का उद्देश्य किसी आकस्मिक घटना क्रम के फलस्वरूप नहीं हुआ अपितु विशिष्ट परिस्थितियों के गर्भ में क्रमशः अपना प्रभुत्व स्थापित किया। सामंतवाद कहीं सुरक्षा की भावना को लेकर विकसित हुआ तो कहीं यह विजय का परिणाम था। किंतु यदि हम प्रमुख देशों के राजनीतिक एवं सामाजिक इतिहास पर दृष्टि निक्षेप करें तो सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि तत्कालीन सामंती प्रवृत्तियाँ जो किसी देश विशेष की परिस्थितियों के फलस्वरूप विकसित हुई हैं वे उस देश विशेष तक ही परिसीमित नहीं रहीं अपितु विश्वजनीय राजनीतिक प्रवृत्तियों के रूप में विकसित हो गयीं।
यद्यपि सामंतवाद मूलतः एक प्रशासनिक व्यवस्था थी जो भूमि अनुदानों में क्रमशः विकसित हुई किंतु अपने उत्कर्ष काल में इसका इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि वह केवल राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के रूप तक ही सीमित नहीं रहा अपितु जन-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया। राजनीति के साथ अर्थ व्यवस्था, धार्मिक व्यवस्था तथा संस्कृति भी सामंती ढाँचे में ढलने लगी।
सामंती व्यवस्था मुख्य रूप से शोषण पर आधारित थी। सामंतवाद का उदय मूलतः धार्मिक दृष्टि से दिए गए भूमि अनुदानों का ही परिणाम था। अतः वे धर्म गुरु विशाल संपत्ति एवं सत्ता के मद में धर्म की स्वार्थपरक व्याख्याएँ करने लगे। फलतः धर्म के नाम पर कलंक लगाने वाली अनेक सामाजिक कुरूतियों का जन्म हुआ। सती प्रथा, बाल-विवाह ऐसी ही प्रथाएँ थीं जिन्हें धर्म के साथ जोड़ दिया गया। राजा जिस धर्म का अनुयायी होता था वह अन्य धर्मों पर हावी हो जाता था। फलतः धार्मिक प्रतिद्वंदिता को प्रश्रय मिलने लगा।
स्वातंत्र्योत्तर काल में सामंती चेतना मूलतः विनष्ट करने की दिशा में अनेक ठोस प्रशासनिक कदम उठाये गये। जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिए जहाँ कानून बनाये गये वहाँ भूमि सुधार कानून भी बनाये गये। किंतु तीसरी शती में अंकुरित चेतना के ध्वंसावशेषों को समाप्त करने के लिए अनवरत प्रशासनिक प्रयत्नोपररांत भी क्या वर्तमान में सामंती चेतना समाप्त हो गयी? आज भी यह प्रवृत्ति अपना रूढ़ स्वरूप परिवर्तित कर सर्वथा नवीन परिप्रेख्य में आज भी जन-जीवन को आक्रांत किये हुए है। जमींदारी खत्म हुई नेतागिरि प्रारंभ हुई, नेता बताते नोट, लेते वोट कुर्सी मिलते ही पीढ़ी पीढ़ी तक पहुँचे पूँजी यही विचरते हैं।
गरीब देश में पावर और रुपये पैसे की पूजा निकृष्ट नव सामंती समाज की ही संरचना कर सकती है। वर्तमान राजनीतिक एवं प्रशासनिक ढाँचे में पूँजी की तरह राजनीति की सत्ता भी कम महत्वपूर्ण नहीं। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति राजनीतिक सत्ता प्राप्ति में संलग्न दिखाई देता। सत्ता केंद्रीकरण की प्रवृत्ति सदैव शोषण को जन्म देती है। सत्ता चाहे आर्थिक हो, राजनीतिक हो या धार्मिक। यही कारण है कि ये नव सामंत अपने पूर्ण सामर्थ्य एवं शक्ति के साथ समाज पर छाये हुए हैं। भ्रष्ट नेताओं द्वारा जनता का कम शोषण नहीं हुआ। वे आज भी नये-नये धर्माडंबरों द्वारा शोषण में प्रवृत्त हैं। इसी प्रकार पूँजीपतियों ने तो संपूर्ण अर्थतंत्र को अपने नियंत्रण में करके आर्थिक शोषण करने में अपनी पूर्ण सामर्थ्य का परिचय दिया है। भ्रष्टाचार, काला बाजारी, तस्करी, मिलावट, रिश्वतखोरी, दहेज, अनमेल विवाह, मज़दूरों एवं कर्मचारियों का शोषण आदि अनेक प्रवृत्तियों के पीछे धनलोलुपता की प्रवृत्ति ही विद्यमान है।
सामंती प्रथा ने मानव का शोषण करते रहते उसे मूक पशु बना दिया। श्री के.एस. अशरफ के अनुसार- "एक स्वामी और राज्य के रूप में सुल्तान का उन पर पूरा अधिकार था। वह अपनी इच्छानुसार उन्हें जान से मार सकता था या अन्य तरीके से उनसे मुक्ति पा सकता।"¹
'जनानी ड्योढ़ी' में अभिशप्त दास जीवन के अनेक घृणित चित्र परिलक्षित होते हैं। छोटी-छोटी भूलों पर जिन्हें दारुण दंड दिये जाते हैं। मेनकी भी एक शोषित दासी है। "हंटरों के बाद उसके बाल काट दिये गये, फिर काला मुँह करके उसे सारे दिन जनानी ड्योढ़ी में चक्कर काटने की आज्ञा दे दी गई।"²
सामंती समाज में दासी जीवन सबसे गर्हित जीवन था। इन पर नित नये अमानुषिक अत्याचार किये जाते थे। 'दीया जलाःदीया बुझा' में जब ठाकुर जसवंतसिंह को ज्ञात होता है कि उसका दास नत्थू बाली से प्रेम-भरी बातें कर रहा था तो ठाकुर उसे जमीन पर पटक देता है और उसे पशुवत मारता है।"³
दजेह प्रथा सामंती समाज का एक अंग बन गई। 'खून का टीका' उपन्यास में राजा मालदेव द्वारा अपनी कन्या के विवाह में दिये गये दहेज का उल्लेख मिलता है-"हम्मीर को प्रथा के अनुसार राजा मालदेव ने आठ जिले मगरा, सेरानला, गिरवा, गोड़वाड़, बाराठ, श्याल पट्टी, मेरवाड़ा और घाटे का जोखला दहेज में दिए। इसी समय हम्मीर ने निःसंकोच होकर दहेज में कामदार मोजीरराम को मांग लिया।'⁴ 'दीया जलाःदीया बुझा' की "बाली भी ठाकुर के दहेज में आयी एक गोली थी।"⁵ उत्तरोत्तर काल में इस प्रथा ने इतना उग्र रूप धारण किया कि दहेज के अभाव में अनेक कन्याओं का जीवन अभिशप्त हो उठा और उन्हें आजीवन कौमार्य धारण करना पड़ा।
दहेज प्रथा का प्रतिफल ही अनमेल विवाह और वैश्या वृत्ति को जन्म दिया। हिंदू समाज में कन्या का विवाह धार्मिक दृष्टि से अनिवार्य माना गया है। माता- पिता अपनी कन्या को किसी-न-किसी प्रकार विवाहित देखना चाहते हैं। इसके लिए श्रेष्ठ वर की खोज की जाती है। कालांतर में वर के स्थान पर उसका वैभव एवं अधिकार देखा जाने लगा। सामंती समाज में यह प्रथा और भी विकृत हो गयी। राजपूत अपनी कन्याओं को किसी सामंत या राजा को देना ही अधिक पसंद करते थे, चाहे राजा अपंग ही क्यों न हो। किसी राजा से अपनी कन्या का विवाह कराने में ही वे अपने कुल की शान समझते थे चाहे इसके लिए कन्या का जीवन नष्ट क्यों न हो जाए। यही कारण है कि 'ठकुरानी' में ठाकुर अपनी पुत्री का विवाह अपंग अनुपसिंह से करके भी अपने को गौरवशाली समझता है। 'राणी महाराणी' में भी इसी कुल पद और मान मर्यादा को देखकर तेईस वर्षीय गुलाब कुंवर का विवाह चंदनगढ़ के तेरह वर्षीय कन्या से कर दिया जाता है।"⁶ सच तो यह है कि सामंती समाज में अनमेल विवाह की विभीषिका ने कितनी ही कन्याओं के जीवन को विषाक्त बना दिया।
वैश्यावृत्ति के मूल में अनमेल विवाह, पुरुष की कामलोलुपता, दलालों एवं कुटनियों का कुचक्र परंपरागत विवशता आदि कारण प्रमुख हैं। कहीं धार्मिक कार्यों में विलासिता और कामुकता के समावेश ने इस प्रथा को जन्म दिया। 'ठकुराणी' में बसंतोत्सव के उपलक्ष्य में एक आयोजन किया जाता है उसमें शहर की अत्यंत प्रसिद्ध तीन पातुरों अख्तरजान घूड़ीवाई और काशीबाई को बुलाया जाता है।"⁷
सामंत लोग अपने मनोरंजन के विलक्षण तरीके अपनाते थे। 'खून का टीका' में विजयोत्सव में हाथियों की लड़ाई सामंती मनोरंजन का परिचायक है। सामंत लोग अपनी निरंकुश काम वासना की पूर्ति के लिए अपने रणिवासों में असंख्य स्त्रियाँ रखते थे जिनकी अनेक श्रेणियाँ होती थीं। उनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं- 'जनानी ड्योढी' में स्त्रियों की पटरानी तथा रानियों के अतिरिक्त परदायतनों, पासवानें, मरजीदानें, पातुरें, घाघट वालियाँ गोलियाँ और डावड़ियाँ इत्यादि श्रेणियाँ होती थी। परदायतनें वे कहलाती थीं जिन्हें महाराज ने महल में परदे में रहने की इज्जत बख्श दी थी। इनकी हैसियत एक ताजीमी सरदार के बराबर होती थी। उनका पुत्र भी पाँव में सोना पहिनने का हक रखते थे और इनकी संतान 'लालजी' कहलाती थी। पासवाने रानियाँ तथा राजा की कृपापात्र होती थीं और उन्हें भी पावों में सोना पहनने का अधिकार था। मरजीदानें पासवानों की स्थिति की ही थीं। घाघरवालियाँ सिर्फ नौकरानियाँ थीं तथा डावड़ियाँ दहेज में आयी स्त्रियाँ होती थीं। इसके अतिरिक्त पातुरें, नर्तकियाँ और गायिकाएँ होती थीं।"⁸ महाराज को उक्त सभी स्त्रियों को भोगने का अधिकार था।
राजनीतिक कुचक्रों एवं षडयंत्रों की योजना सामंती व्यवस्था की एक अन्य प्रवृत्ति थी। सामंत अहर्निश किसी-न-किसी षडयंत्र की योजना में संलग्न रहते थे। फलतः उनकी मनोवृत्ति ही षड्यंत्रकारी बन गई थी। राजमहल षडयंत्रों के अड्डे बन गये थे जिसमें सामंती नारियाँ भी सक्रिय होकर भाग लेती थीं।
सामंती चेतना परक उपन्यासों में ये षडयंत्र अनेक प्रकार से निरूपित हुये हैं। सामंती वातावरण में छल, कपट, सत्ता हथियाना, शौर्य और चातुर्य का सूचक माना जाता था। 'खम्मा अन्नदाता' में इसी सत्ता लोलुपता के कारण मानसिंह अपने पिता को विष दिलवा कर हत्या कर देता है और स्वयं गद्दी पर आसीन हो जाता है।"⁹
निष्कर्षतः सत्ता प्राप्ति के हेतु ही सामंत, गर्हित कार्य को करने में भी नहीं हिचकते थे। प्रतिशोध की भावना के कारण भी अनेक प्रकार के षडयंत्रों की रचना होती रहती थी। प्रारंभ में भी शोषण होता रहा है। आज भी शोषण हो रहा है। केवल संदर्भ बदल गये हैं। यह प्रवृत्ति अपना रूप परिवर्तित कर सर्वथा नवीन परिप्रेक्ष्य में जनमानस को आक्रांत किये हुए है।
संदर्भ :
1. के.एम. अशरफ, हिंदुस्तान के निवासियों का जीवन और उनकी परिस्थितियाँ- पृ. 60
2. यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र', जनानी ड्योढ़ी- पृ. 32
3. यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र', दीया जला : दीया बुझा - पृ. 44
4. यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र', खून का टीका- पृ. 119
5. यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र', दीया जला : दीया बुझा - पृ. 31
6. यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र', राणी महाराणी- पृ. 56
7. यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र', ठकुराणी - पृ. 9
8. यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र', जनानी ड्योढ़ी- पृ. 112
9. यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र', खम्मा अन्नदाता- पृ. 114
- डॉ. वि. गोविंद
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