Indian culture in Premchand's fiction
प्रेमचंद के कथा साहित्य की प्रासंगिकता : इस आर्टिकल में प्रेमचंद के कथा साहित्य (कहानी और उपन्यास) में भारतीय संस्कृति के बारे में बताया गया है। प्रेमचंद के कहानियों में भारतीय संस्कृति, प्रेमचंद के उपन्यासों में भारतीय संस्कृति और हिंदी साहित्य में योगदान आदि विषय के बारे में विस्तार से पढ़े।
मुंशी प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में भारतीय संस्कृति
प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में भारतीय संस्कृति की पहचान की इस चेष्टा से हिन्दी के कुछ विद्वान आश्चर्य चकित हो सकते हैं, क्योंकि अभी तक मार्क्सवाद तथा गांधीवाद के आधार पर ही प्रेमचन्द को देखा-परखा जाता रहा है और जिन्होंने भारतीय संस्कृति तथा भारतीयता के आधार पर उनके कथा-साहित्य को देखने का थोड़ा-बहुत प्रयास भी किया है, उन्हें विभिन्न प्रकार की आलोचना का शिकार होना पड़ा है। प्रेमचन्द साहित्य की समीक्षा का यह सबसे अधिक हास्यास्पद पक्ष है कि उनके साहित्य का उनके देश की संस्कृति के आधार पर उसका मूल्यांकन न हो। वे भारत में उस समय पैदा हुए जब स्वदेशी, स्व-संस्कृति, स्व-भाषा तथा स्वराज्य की नव-चेतना के साथ पश्चिम की भौतिकतावादी संस्कृति का गहरा प्रभाव पड़ रहा था और हमारा समाज तथा चिन्तक, लेखक, राजनेता आदि भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्त्वों तथा परम्पराओं से आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के इन्द्र के बीच अपनी भारतीयता की तलाश में लगे थे। युग के इस अन्वेषक तथा महानायकत्व के ज्वलन्त प्रश्नों तथा सन्दर्भों के बीच प्रेमचन्द को रखकर देखना आवश्यक है, क्योंकि वे भारत के मानस को आधुनिक सन्दर्भों से खोज रहे थे। हमारे लिए प्रेमचन्द की इस आधुनिक भारतीयता को देखना-खोजना आवश्यक है, क्योंकि उनके मूल्यांकन में यह जानना आवश्यक है कि क्या उन्होंने आधुनिकता के लिए भारतीय संस्कृति के किन तत्त्वों को आत्मसात किया था तथा किन तत्त्वों को वे भारतीय समाज के लिए घातक समझ रहे थे। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में भारतीय संस्कृति के इस परीक्षण में हमें मुस्लिम तथा ईसाई संस्कृतियों के प्रभाव को भी देखना आवश्यक है, क्योंकि प्रेमचन्द इन दोनों संस्कृतियों को भी भारत के सन्दर्भ में देख-परख रहे थे।
यहाँ भारतीय संस्कृति के स्वरूप का स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। यद्यपि भारतीय संस्कृति इतना व्यापक विषय है कि इस पर अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन हम यहाँ अत्यन्त संक्षेप में ही इसकी विशेषताओं की चर्चा करेंगे। भारत की भूगौलिक सीमा में, देश, समाज, जाति तथा प्राकृतिक परिवेश के परस्पर संयोग से जिस संस्कृति का जन्म और विकास हुआ, उसे भारतीय संस्कृति, आर्य संस्कृति, हिन्दू-संस्कृति, सनातन संस्कृति आदि अनेक नामों से सम्बोधित किया गया। भारतीय संस्कृति में धर्म और अध्यात्म, परलोक एवं पुनर्जन्म, धर्म की संस्थापना और अधर्म का नाश, व्यक्ति संस्कार एवं आचरण की पवित्रता, सत्य, सेवा, त्याग, बलिदान, प्रेम, समता, करुणा तथा परमार्थ, निष्काम कर्मयोग, समन्वय एवं समरसता वर्णाश्रम व्यवस्था एवं परिवार की महत्ता, प्रकृति एवं उत्सव प्रियता एवं अतिथि. सत्कार, आस्तिकता तथा पूजा आदि की स्वतन्त्रता आदि ऐसी विशेषताएँ हैं जिनके कारण विश्व संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति का विशेष महत्व है। प्रेमचन्द ने कई स्थानों पर भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता की प्रशंसा की है। उन्होंने मार्च, 1912 में 'जमाना' उर्दू पत्रिका में लिखा कि हिन्दू कौम आध्यात्मिक तथा नैतिक सम्पदाओं, आत्मोत्सर्ग, सहानुभूति, ऊँचे आदर्श, दानशीलता, चारित्रिक साहस, लोक-हित, उदारता विशेषताओं से सम्पन्न है। उन्होंने भारतीय संस्कृति की कुछ कुरीतियों, अन्धविश्वासों तथा जड़ताओं की कटु आलोचना भी की, किन्तु वे जीवन पर्यन्त भारत की मूल आत्मा की रक्षा तथा स्थापना करते रहे। उन्होंने 'प्रेम-द्वादशी' कहानी संग्रह की भूमिका में सन् 1926 में लिखा, "हमने उपन्यास और गल्प का कलेवर योरप से लिया है, लेकिन मैंने नवीन कलेवर में भारतीय आत्मा को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है।"¹ इस भूमिका में तथा अन्य कई स्थलों पर प्रेमचन्द ने पश्चिमी सभ्यता की दुष्प्रवृत्तियों की कटु आलोचना करते हुए भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता की स्थापना की। महात्मा गांधी के समान प्रेमचन्द भी पश्चिमी संस्कृति की भौतिकता, विलासिता, स्वार्थपरता, यान्त्रिकता आदि को मानवीयता के अनुकूल नहीं पाया और उसे मानवता के लिए घातक माना।
प्रेमचन्द के साहित्य में आध्यात्मिकता, आत्मा, पुनर्जन्म, निष्काम कर्मयोग आदि का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। 'श्रीकृष्ण और भावी जगत'² शीर्षक लेख में प्रेमचन्द ने लिखा कि संसार के उद्धार के लिए अध्यात्मवाद की स्फूर्ति डालनी पड़ेगी। उनके अनुसार शरीर निस्सार³ तथा आत्मा अमर है।⁴ प्रेमचन्द आत्मा की चेतना में विश्वास करते हैं। 'रंगभूमि' का सूरदास कर्मफल में विश्वास करता है। वह कहता भी है, "भगवान अन्यायी नहीं है, मेरे पूर्व जन्म की कमाई ही ऐसी है। जैसे करम किये हैं, वैसे फल भोग रहा हूँ।"⁵ 'कायाकल्प' उपन्यास में तो पुनर्जन्म की कथाएँ हैं, जिनमें आत्माएँ अधूरे काम को पूरा करने के लिए बार-बार जन्म लेती हैं। प्रेमचन्द कर्मफल सिद्धान्त से अनेक पात्रों की सृष्टि करते हैं और सद्कर्मों में ही मुक्ति देखते हैं।⁶ 'रंगभूमि' के सूरदास में निष्काम कर्मयोग के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। सूरदास हार-जीत की चिन्ता के बिना जीवन-संग्राम में खिलाड़ी की तरह खेलता है और इस प्रकार निष्काम कर्मयोग का पालन करता है। मार्क्सवादी समीक्षक ही शुरूआत उर्दू से की थी। प्रेमचन्द यह देख चुके थे कि सांप्रदायिक आधार पर हिंदी-उर्दू के भेट वस्तुतः अंग्रेजों की उस भाषानीति को बढ़ावा देता है जो देश को अंखड रूप में न तो ग्रहण करने के पक्ष में है और न ही स्वतंत्रता की लड़ाई में साधक। इसीलिए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में बार-बार यह लिखा कि 'बंगाल का मुसलमान बंगला बोलता है और लिखता है, गुजरात आ गुजराती, मैसूर का कन्नड़ी, मद्रास का तमिल और पंजाब का पंजाबी आदि। यहाँ तक कि उसने अपने-अपने सूबे की लिपि भी ग्रहण कर ली है। उर्दू लिपि और भाषा से यद्यपि उसका धार्मिक सांस्कृतिक अनुराग हो सकता है लेकिन नित्य प्रति के जीवन में उसे उर्दू की बिल्कुल आवश्यकता नहीं पड़ती।' प्रेमचंद ने यह भी अपनी गहरी भाषाई चेतना से देख लिया था कि दूसरे दूसरे सूबों के मुसलमान अपने-अपने सूबों की भाषा निःसंकोच भाव से सीख सकते हैं और उसे यहाँ तक; अपना भी बना सकते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों की भाषा में कोई भेद नहीं रह जाता।' अपनी इस दृष्टि के कारण ही प्रेमचंद ने अपना आग्रह हिंदुस्तानी शैली पर रखा है। पर यह हिनदुस्तानी शैली गिलक्राइस्ट की हिंदुस्तानी की संकल्पना से भिन्न है। गिलक्राइस्ट अथवा उनके समकालीन विद्वानों के मत में हिंदुस्तानी 'उर्दू' का पर्याय थी। पर प्रेमचंद ने हिंदुस्तानी को सांस्कृतनिष्ठ हिन्दी और अरबी-फारसी निष्ठ उर्दू की मिश्रित शैलियों के बीच काटने वाली उस आधारभूत जीवन्त भाषा शैली के रूप में स्वीकार किया जिसके शक्ति-स्त्रोत का सहारा लेते हुए, सांस्कृतनिष्ठ हिंदी और अरबी-फारसी निष्ठ उर्दू अपना विकास करतीं। हिंदुस्तानी उनकी दृष्टि में बोलचाल की ही हिंदी का सहज और सरल रूप थी।
ऊपर संकेत दिया जा चुका है कि हिंदी भाषा के शैली भेद के सांप्रदायिक आधार के विरोध में प्रेमचंद ने बोलचाल की हिंदुस्तानी या हिंदी की संकल्पना को उभारा। उनके ही शब्दों में 'बोलचाल को हिंदी समझने में न तो साधारण मुसलमानों को कोई कठिनाई होती है और न बोलचाल की उर्दू समझने में हिंदुओं को ही, बोलचाल को हिंदी और उर्दू प्रायः एक-सी ही हैं।' यही बोलचाल की हिंदी वस्तुतः प्रेमचंद की हिंदुस्तानी थी। जिस राजनैतिक दबाव का अनुभव करते हुए महात्मा गांधी ने हिंदी- हिंदुस्तानी और उर्दू की समस्या का हिंदुस्तानी के पक्ष में यह कहते हुए समाधान प्रस्तुत किया था 'कि 'हिंदी और उर्दू दो भाषाएँ नहीं, भेद है तो केवल लिपि का।' उसको राजनीति के साथ साहित्य के स्तर पर सर्वाधिक समर्थ ढंग से प्रेमचंद ने कार्यान्वित किया। यह भी ध्यान देने की बात है कि उनकी हिंदुस्तानी की संकल्पना के भीतर न केवल साहित्यिक हिंदी और उर्दू का अपना सही संदर्भ मिलता है बल्कि हिंदी की स्थानिक या क्षेत्रीय बोलियों को भी स्थान मिलता है। जिस प्रकार गांधी जो राजनीति में समन्वयवादी दृष्टि ले कर चले थे, ठीक उसी प्रकार साहित्य में प्रेमचंद भी समन्वयवादी दृष्टि के समर्थक बने। राष्ट्रीय और सामाजिक मसलों में प्रेमचंद सदैव गांधी जी की नीतियों के प्रति आशावान रहे और भाषा संबंधी नीति निर्धारण में भी वे गांधी जी के विचारों से सहमत थे। अर्थात समन्वयवादी भाषा अथवा हिंदुस्तानी के प्रसार-प्रयोग के पक्षधर दोनों ही थे। प्रेमचंद की हिंदुस्तानी की संकल्पना में इसीलिए बोलचाल के रूप में प्रचलित अंग्रेजी के आगत शब्द भी उसकी परिधि में आ सिमटते हैं। उनकी दृष्टि में हिंदी भाषा का वह जीवंत भाषा रूप है जो अपना स्वरूप जन-मानस के दैनिक भाषा व्यवहार के भीतर पाता है। उनकी हिंदुस्तानी के भीतर इसीलिए संस्कृत-अरबी-फारसी के वे शब्द तो आ ही जाते हैं जिन्हें समाज ने अपनी भाषा-प्रकृति के अनुरूप ढाल लिया है, इसके अलावा अंग्रेज़ी के वे शब्द भी इसमें शामिल हैं जिन्हें मध्यवर्ग का सामान्य व्यक्ति सामान्य संदर्भ में प्रयोग में लाता है।
प्रेमचंद ने हिंदुस्तानी को उसके व्यापक रूप में लिया था जिसमें बोली-हिंदी-उर्दू तीनां सिमट आते हैं। उस संकुचित 'हिंदुस्तानी' के रूप में नहीं जिसको स्थापना गिलक्राइस्ट ने की थी। प्रेमचंद के लिए हिंदुस्तानी केवल एक भाषा शैली ही नहीं थी, उनके लिए वह जातीय-अस्मिता का एक प्रतीक थी। इस जाति के निर्माण में उसके अनुसार देहात के मुसलमान का महत्व शहर के उर्दूद। संभ्रांत व्यक्तियों से किसी भी प्रकार कम न था 'हिंदी- क्षेत्र में फैले हुए देहातों में हिंदुओं-मुसलमानों के बीच किसी तरह का कोई भाषाभेद नहीं हैं।' प्रेमचंद के इस कथन का आधार भाषा वैज्ञानिक है क्योंकि हिन्दी-उर्दू का व्याकरण, वाक्य रचना तथा शब्द भण्डार सभी हिंदुस्तानी के नाम पर एक हो जाते हैं। अपने इस कथन को भाषा वैज्ञानिक आधार देते हुए प्रेमचंद ने कहा था कि 'बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्रायः एक-सी हैं। उर्दू-हिंदी के सर्वनाम एक हैं-वह, तुम, मैं, हम इत्यादि। हिंदी-उर्दू की क्रियाएं एक ही हैं-जाना, सोना, खाना, पीना, करना, मरना, जीना, लिखना, पढ़ना इत्यादि। उर्दू के संबंधवाचक शब्द-पर, का, में, से आदि वही हैं जो हिंदी के। दोनों का मूल शब्द-भण्डार भी एक है लेकिन यहाँ बहुत दिनों तक फारसी के राजभाषा रहने से हिंदी शब्दों के फारसी या अरबी पर्यायवाची शब्द भी प्रचलित हो गए हैं। जैसे-देश- मुल्क, आकाश-आसमान, नदी-नदिया, रोगी बीमार आदि। इन शब्दों का व्यवहार बोलचाल की हिंदी-उर्दू में बिना किसी भेद-भाव के होता है।'
हिंदी-उर्दू और हिंदुस्तानी के संदर्भ में अपनी जिस भाषाई-चेतना को प्रेमचंद ने सिद्धांत के स्तर पर स्वीकार किया अर्थात हिंदी को उसके शैली-भेदों के साथ स्वीकार किया; उसे उन्होंने शत-प्रतिशत अपनी रचनाओं की भाषा से पुष्ट भी किया। उनकी कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी' से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं, इसमें केवल एक बार विवरण हिंदी की एक शैली में है, वार्तालाप दूसरी शैली में तथा परिवेश या वातावरण का उभार एक अन्य शैली में-
1. 'लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद- प्रमोद का प्रधान्य था। शासन विभाग में, साहित्यिक क्षेत्र में, साहित्यिक अवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी। यह राजनीतिक अधः पतन की चरम सीमा थी।'
2. मिरजा-बड़ी मुसीबत है। कहीं मेरी तलबी न हो।
मीर : कमबख्त कल फिर आने को कह गया।
मिरज़ा : बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलो ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने में नक्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी। हज़रत आकर आप लौट जाएंगे।
मीर : वल्लाह, आपको खूब सूझी। इसके सिवा और कोई तदबीर ही नहीं है।
3. 'राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फरियाद सुनने वाला नहीं था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची आती थी और वह वेश्याओं में, भाड़ों में और विलासिता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी। रेजीडेंट बार-बार चेतावनी देता था पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे। किसी के कानों पर जूँ न रेंगती थी।'
प्रेमचन्द के इस प्रकार के भाषा प्रयोग को देखते हुए, निसंकोच भाव से यह कहा जा सकता है कि वे वास्तविक रूप में जनता के कथाकार थे। वे न हिंदू थे, न मुसलमान, उनका उद्देश्य व्यापक था। प्रेमचन्द ने न केवल हमें जनता का साहित्य दिया चल्कि साहित्य कैसी भाषा में लिखा जाना चाहिए इसका पथ-निर्देश भी किया है। उनकी भाषाई चेतना संवेदनाशील साहित्यकार के भाषा-वैविध्य को अपना कर ही चली है और यही कारण है कि उनकी एक ही रचना में परिस्थिति, वातावरण, पात्र और विषय से नियंत्रित होकर हिंदी अपनी विभिन्न शैलियों के माध्यम से अकृत सामाजिक अर्थ को ध्वनित करती रही है। जनता द्वारा बोले जाने वाले कितने ही शब्दों को उन्होंने साहित्य में स्थापित किया। प्रेमचंद के पूर्व साहित्य में वर्णन और कल्पना के लिए तो बहुत कुछ था परंतु भाषा और समाज का वास्तविक रूप नहीं था। प्रेमचंद उर्दू और हिंदी दोनों के ऐसे प्रथम कहानीकार थे जिन्होंने जनता की भाषा में ही बातें की, उनके दुख-दर्द को उन्हीं को जबान में व्यक्त किया और पाठकों के हृदय पर राज्य किया। उन्होंने साहित्य को जन- जीवन और उसकी भाषा से जोड़कर एक गहरे अर्थ से भर दिया।
आज जब पूरे देश में भाषागत, जातिगत और सांप्रदायिक दंगे अकारण हो जाते हैं तभी प्रेमचंद की यह समन्वयवादी और जनवादी विचारधारा अनायास स्मरण हो आती है, भाषा के संबंध में उन्होंने हमेशा कट्टरवादी हिंदी और उर्दूवादी लोगों को लताड़ा, उनका विरोध किया और उन दोनों से भाषा का एक समन्वित रूप अपनाने का आग्रह किया। यह काम केवल कबीर, गांधी या प्रेमचंद जैसे लोग ही कर सकते हैं। जब तक हिंदी तथा उर्दू के लेखक-पाठक जीवित रहेंगे; प्रेमचंद, उनकी जीवंत भाषा और उनका साहित्य अमर रहेगा। इस नक्षत्र की चमक साहित्याकाश में कभी मंद नहीं पड़ेगी।
1. प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य, खण्ड-2, पृष्ठ 349-50
2. विविध प्रसंग, भाग-3, पृष्ठ 143
3. निर्मला-परिच्छेद-2, पृष्ठ 16-17
4. रंगभूमि, परिच्छेद-43, पृष्ठ 544
5. वही परिच्छेद-1. पृष्ठ 14
6. वही परिच्छेद-3, पृष्ठ 38
- डॉ. कमल किशोर गोयनका
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