Indian languages vs English
भारतीय भाषाएं बनाम अंग्रेजी
विचारों के आदान-प्रदान में भाषा की अहम भूमिका होती है। इस दृष्टि से हिन्दी एक सरल व सक्षम भाषा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार हिन्दी बोलने व समझने की दृष्टि से हिन्दी दुनिया की दूसरी भाषा है।
स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी की प्रमुख भूमिका रही। गाँधीजी ने हिन्दी और खादी को स्वतंत्रता-संग्राम का अंग बनाया वह इसलिये कि हिन्दी आम जनता के दिलों की धड़कन थी। दयानंद सरस्वती ने हिन्दी में 'सत्यार्थ प्रकाश' लिखा। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने हिन्दी में नारा दिया 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा'। क्योंकि वे सभी समझते थे कि हिन्दी में वह शक्ति है जिसके द्वारा दिलों को जोड़ा जा सकता है। गांधीजी हिन्दी को राष्ट्रीय एकता का प्रतिबिम्ब मानते थे। उन्होंने कहा था कि 'अगर कोई भाषा देश को एकता के सूत्र में पिरो सकती है तो वह है हिन्दी'।
भारत अनेक भाषाएँ बोलनेवालों का देश है परंतु आपस में सम्पर्क स्थापित करने का एकमात्र माध्यम हिन्दी है। इस अर्थ में भारतीय भाषाएं सहोदरी हैं, बहनें हैं उनमें आपस में मतैक्य है क्योंकि भारतीय भाषाओं के विकास पर ही हिन्दी का विकास निर्भर है। इसलिए हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिन्दी पर गर्व होना चाहिए।
महात्मा गाँधी ने कहा था- 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है'। यह देश की वाणी है। एक ओर हमने जब हिन्दी को 'राजभाषा' के रूप में स्वीकार कर लिया है तो हमारा यह दायित्व हो जाता है कि हम राजभाषा हिन्दी के विकास में सक्रिय योगदान दें।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि हिन्दी सहित विभिन्न प्रांतों में बोली जानेवाली सभी भारतीय भाषाएँ-एक दूसरे की पूरक हैं वे इस देश की उपज है उनमें आपस में कोई प्रतिद्वन्दिता नहीं है। ऐसे में हिन्दी और अन्य भाषाओं के बीच विरोध की बात करना बेमानी है जबकि वस्तु-स्थिति यह है कि शिक्षा तथा रोजगार में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व के कारण हमारी भाषाएं पिछड़ रहीं हैं। उन्हें आम जनता से वह समर्थन नहीं मिलता है जिसकी वे हकदार हैं। इतने लम्बे अरसे के बाद भी हम अंग्रेजी की दासता से मुक्त नहीं हो पाये हैं। एक भाषा के रूप में अंग्रेजी से परिचित होना एक अलग बात है परंतु बेवजह हर कहीं अंग्रेजी का प्रयोग करना, कहाँ तक उचित है। चुनाव के दौरान हमारे जन-प्रतिनिधि हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करते हैं, उसके बाद उसे वे भूल जाते हैं।
आज अंग्रेजी के पक्ष में अनेक दलीलें दी जाती हैं। गाँधीजी के शब्दों में- 'यह कितनी विडम्बना की बात है कि भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी का स्थान लेने के लिए समय चाहिए पर हम भारतीयों ने अंग्रेजी का स्थान तुरंत ले लिया। यह स्पष्ट करता है कि हम कितने निर्लज्ज व स्वार्थी हैं।'
जापानी साहित्यकार के शब्दों में- "मैं सुनता हूँ कि भारत में सुशिक्षित आदमी उसे कहते हैं जिसे अंग्रेजी अच्छी तरह आती हो... जिसके घर अंग्रेजी किताबों का संग्रह हो और अंग्रेजी अखबार आता हो परंतु दूसरे देशों में शिक्षित आदमी उसे कहते हैं, जिसे अपनी भाषा का पर्याप्त ज्ञान हो, जिसके घर में राष्ट्रभाषा की पुस्तकों का संग्रह हो और जिसे अपनी मातृभाषा का साहित्य पढ़ने में विशेष रुचि हो।"
हमने राजभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार तो कर लिया, आदेशों और निर्देशों की भाषा हमने उसे बना दिया लेकिन न तो उसे हृदय की भाषा बनने दिया और न उसे राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ जोड़ा। यही हमारी भूल है।
गाँधीजी ने कहा था- 'मैं अपने देश में बच्चों के लिए यह जरुरी नहीं समझता कि वे अपनी बुद्धि के विकास के लिए एक विदेशी भाषा का बोझ अपने सिर पर ढोएं और अपनी शक्तियों का ह्रास होने दें। इस अस्वाभाविक परिस्थिति का निर्माण करनेवालों को जरुर गुनहगार मानता हूँ।'
अतः आज भाषा के प्रति प्रतिबद्धता व राष्ट्रीय अस्मिता को जगाने की आवश्यकता है। हिन्दी को राष्ट्रीय महत्व तक ले जाने में हमको अंग्रेजी का मोह त्यागना होगा।
बापू ने कहा था-'भारत भाषा के संबंध में गुलाम तो ज्यों का त्यों रहा है। मैं उसको स्वाधीन नहीं कहता हूं। अतः हमारा यह निश्चय हो कि जिस तरह हमारी आजादी को छीनने वाले अंग्रेजों की हुकूमत को हमने उखाड़ फेका, उसी तरह हमारी संस्कृति को दबानेवाली अंग्रेजी भाषा को हमें यहां से निकाल देना चाहिए।
- गजानन पाण्डेय
ये भी पढ़ें; विदेशी विद्वानों की हिन्दी भक्ति और भारतीय मानसिकता