भारतीय साहित्य और नारीवादी चेतना

Dr. Mulla Adam Ali
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Indian Literature and Feminist Consciousness

Indian Literature and Feminist Consciousness

भारतीय साहित्य और नारीवादी चेतना

विश्व साहित्य के इतिहास में भारतीय साहित्य अपना एक उल्लेखनीय स्थान रखता है। वास्तव में भारत की चिर प्रतिष्ठित भारतीय संस्कृति, विचार अनादि काल से विश्व को आकर्षित करता आ रहा है। जब सारा विश्व आँख भी नहीं खोला था उसी समय संस्कृति का पाठ पढ़ाने वाला देश भारत है। भारतीय संस्कृति ने सच्चे अर्थों में सदा के लिए प्रासंगिक छाप समाज पर छोड़ी है। इसीलिए इसके गूढार्थ को जानने, समझने के लिए ईसा के जन्म के कई वर्षों पहले से विभिन्न देशों के यात्री इस पावन भूमि पर कदम रखने के लिए उत्सुकता जताते आ रहे हैं। ऐसा क्यों न होता जब भारत के पास दुनियाँ को देखने व समझने की मानवीय दृष्टि, सर्वजन सम्मत दृष्टिकोण जो था। विश्व मंगल, विश्व बंधुत्व, सम- समाज का निर्माण, विश्व मानवतावादी दृष्टि आदि संसार हितैसी विचार साहित्य के द्वारा जब विश्व मानस के अंतरात्मा को छुआ तो सारा संसार पुलकित हुआ और अपने में जीवन के सार को परिलक्षित करने वाला भारतीय साहित्य मानव के जिज्ञासु प्रवृत्ति को जाग्रत किया और इस दर्शन को समझने के लिए मार्ग प्रशस्त करवाया। इस तरह समझने का रुझान सीमाओं के बंधनों को तोड़कर भारत की इस मूलभूत भारतीय मूल तत्व को समझने एवं नवअध्ययन करने प्रोत्साहित किया।

भारतीय साहित्य का आदर्श : भारतीय साहित्य के अवलोकन से हमें इस सत्य के दर्शन होते हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही सदा सर्वदा साहित्य का आदर्श रहा है। क्या संस्कृत साहित्य, प्राकृत साहित्य, पाली साहित्य, अपभ्रंश साहित्य और क्या लोक भाषा साहित्य, सभी ने संस्कृति और राष्ट्रीयता को ही अपना कथ्य बनाया है। इसके पीछे कारण यह है कि साहित्य और संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। साहित्य संस्कृति का संवाहक है और संस्कृति साहित्य की आशा है। यह भारतीय साहित्य नगर की उपज नहीं है एकांत वन-प्रदेश में प्रकृति के प्रांगण में एकांत साधना में निरत तपस्वियों द्वारा अनुभूत सत्य ही हमारी संस्कृति का प्राण है। युद्ध की विभीषिकाओं से संत्रस्त विश्व मानव को भारतीय संस्कृति ने त्याग, तप और तपोवन का संदेश दिया। इस संस्कृति में प्रागैतिहासिक युग में ही साहित्य का निर्माण हुआ था।

भारतीय साहित्य व नारीवादी चेतना : ईसा पूर्व 2500 से 500 ई.पू. तर्क के अमुमन समय को वैदिक काल के नाम से संबोधित करते हैं। और इस लम्बे समय को पुनः पूर्व वैदिक एवं उत्तर वैदिक में वर्गीकृत किया गया है। इसमें पूर्व वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति बहुत ऊँची थी। स्त्रियों की शिक्षा अनिवार्य माना जाता था। यज्ञ स्त्रियों के बिना संपन्न नहीं माना जाता था। उपनयन संस्कार पूर्ण किये बिना स्त्री वैवाहिक बंधन के अनर्ह मानी गई। स्त्रियों को विद्या देवता के समान पूजा गया था। ऐसा कहा जा सकता है कि भारतीयों के सभी आदर्श स्त्री रूप में पाये जाते हैं। विद्या का आदर्श 'सरस्वती' में, धन का 'लक्ष्मी' में, शक्ति का 'दुर्गा' में, सौंदर्य का 'रति' में, पवित्रता का 'गंगा' में इतना ही नहीं सर्वव्यापी ईश्वर को भी 'जगत्जननी' के नाम से सुशोभित किया गया है।

समय व समाज के परिवर्तन के साथ-साथ नारी की मातृ-सत्तात्मक अधिकार का उन्मूलन, पुरुष का उस पर अधिकार व सामाजिक स्वेच्छाचार की त्रासदी की विडंबना नारी को झेलनी पड़ी। पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों का दमन कोई नई बात नहीं है। आरंभ से ही स्त्री कुंठाएँ लिए जीती आ रही है। उसकी इच्छाओं आशाओं, आकांक्षाओं का सदा से ही दमन होता आ रहा है। यह दुःख की बात है कि आधुनिक काल तक आते-आते स्त्री के दिव्यगुण धीरे-धीरे उसके अवगुण बनने लगे। साम्राज्ञी से वह धीरे-धीरे आश्रिता बन गयी। नारी की सामाजिक स्थिति अपने पतन की चरम सीमा तक पहुँच चुकी थी।

वैदिक युग का दृष्टिकोण जो स्त्री के प्रति दिव्य कल्पनाओं तथा पुनीत भावनाओं से परिवेष्टित था अब पूर्णतया बदल चुका था। यह युग तो जैसे स्त्रियों की गिरावट का युग था। उनके मानसिक तथा आत्मिक विकास के द्वार पर ताला लगा दिए गए। उनकी साहित्यिक उन्नति के मार्ग पर अनेकों प्रतिबंध लगा दिए गए। 'स्त्री शूद्रो नादियताम्' जैसे वाक्य रचकर उसे शूद्र की कोटि में रख दिया। स्त्री को विवाह संस्कार के अतिरिक्त और सभी संस्कारों से वंचित कर दिया गया।

18वीं शताब्दी तक स्त्रियों की स्थिति जितनी खराब थी उसमें 19वीं सदी में कुछ सुधार आया। धार्मिक आडंबर, रुढ़िगत विचार जैसे अंधविश्वासों का बोल बाला चारों तरफ इस प्रकार निर्मित कर दिया था कि उसे तोड़ सकना सहज संभव नहीं था। इस बर्बर युग के प्रति प्रतिक्रिया स्वरूप राजा राममोहन राय हमारे सामने आये जो नारी जाति की वकालत लगातार करते रहे। आज नारीवाद वैश्विकवाद बन गया है जिसके माध्यम से विश्व की नारियाँ व उनकी समस्याएँ आपस में जुड़ी हुई हैं। इसके द्वारा सहस्त्राब्दियों से अपने प्रति होते आए अत्याचार व प्रताड़नाओं के विरोध में नारी को अपनी आवाज़ ऊँची करने का अवसर मिला है। भारतीय साहित्य की मुख्य विधाओं में नारीवाद के प्रतिपादन द्वारा जीवन के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, व्यावहारिक, शैक्षिक, औद्योगिक व प्रौद्योगिक आदि क्षेत्रों में नारी की सक्रिय भागीदारी बढ़ रही है। नारीवाद नारी के समान भागीदारी से समाज का पुनर्निर्माण चाहता है। आज के नारीवादी साहित्य नारी की इच्छाओं- आकांक्षाओं का दस्तावेज है।

समूचे भारतवर्ष की सभी भाषाओं में नारीचेतना संबंधी साहित्य सृजन किया जा रहा है। पारंपरिक मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष करती हुई 'Angry Women' की मानसिकता ही हिन्दी की समकालीन कहानी में व्यंजित हुई है। मलयालम भाषा में कवि के.जी. शंकरपिल्लै, कन्नड़ महिला लेखिका वीणा-शांतेश्वर, तेलुगु के प्राचीन महान कवि वेमना अपनी रचनाओं में स्त्री पर जो अत्याचार हो रहे हैं उसके प्रति अपनी कविताओं के जरिए खण्डन किया। नारीवाद की दृष्टि से तेलुगु के उपन्यासों का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। तेलुगु में नारीवादी साहित्य का नाम लेते ही ओल्गा का नाम स्मरण आए बिना नहीं रहता। ओल्गा नारी की संपूर्ण स्वेच्छा की प्रबल दावेदार है। उनका उपन्यास 'स्वेच्छा' में नारी को संपूर्ण स्वेच्छाकांक्षी के रूप में चित्रित किया है जो नारीवाद की नींव है।

अंत में जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' में कहा गया है कि-

"नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्व रजत नभ-पग-तल में पीयूष श्रोत सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।"

- एस. अब्दुल मुनीर

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