कफ़न' की सोच में

Dr. Mulla Adam Ali
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कफ़न (Kafan) by Munshi Premchand

Kafan Story by Munshi Premchand

Kafan Kahani in Hindi : प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक कहानी 'कफ़न' है, ये पारिवारिक त्रासदी की कहानी नहीं बल्कि हमारी समाज व्यवस्था के अंतर्गत खोखलेपन की कहानी है। आर्थिक वैषम्य से जुड़ी ये कहानी आपको पढ़ते समय पाठक जरूर आंसू बहायेगा, इस कहानी के पात्र, चरित्र निर्माण, शैली बहुत ही सुंदर ढंग से वर्णन किया गया है, कफ़न हिन्दी की सबसे प्रसिद्ध और मार्मिक कहानी है, तो चलिए पढ़ते है कफ़न कहानी की समीक्षा।

मुंशी प्रेमचंद की कहानी: कफ़न' की सोच में

प्रेमचन्द द्वारा 'कफ़न' की रचना हो जाने के बाद उसने कथा विशेष के इतिहास में अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व ग्रहण कर लिया है। हर दशक में उस पर नयी सोचों को लादा गया, कथा-साहित्य की नींव में गढ़ी देह मानकर उसके अस्तर-पंजरों की शिनाख्त हुई, यथार्थ- आदर्श ढाँचे को चरमराती दुनिया बताकर यह कहा-माना जाने लगा कि उसमें जीवन और लेखन का द्वित्व का संवेग है। सच्चाई यह है कि प्रेमचन्द की 'कफ़न' कहानी अपने सीधेपन के बलबूते पर आज भी मनुष्य के आत्म-चेतन के सर्वोच्च आसन पर प्रतिष्ठित रही है। बार- बार कहानी में ऐसे संकेत मिलते ही रहे हैं कि प्रेमचन्द जैसा आत्म-चेतन व्यक्ति स्वयं अपने भीतर के 'आत्मा' में प्रकृति की संचरित चेतना से संयुक्त करता रहा है।

'कफ़न' जैसी कहानी आत्म-बोध के रास्ते में बुद्धि की भूमिका को नकार नहीं रही थी वरन् उसकी परिधि को प्रशस्त बना रही थी। घीसू-माधव की अकर्मण्यता जमींदार- किसान संस्कृति की सीमाओं का परिपाक है, घीसू-माधव का गैरजिम्मेदाराना, बेखौफ और अलगाव-सा जीवन मानव-संबंधों पर क्रमागत रूप से लादा गया हाड़-मांस की सभ्यता का परिपाक है, जो भक्त की निरागस-निरासक्त प्रेम की लगन को दैहिक नशे का नाम देकर ललकारता है। उसका जवाब 'हाँ' में नहीं, 'ना' प्राप्त होता है क्योंकि शराब का नशा पृथ्वी पर रहकर लौकिक और दिव्य आयामों में सभी जगह निर्बाध खुलेपन आकांक्षा लिए हुए नहीं होती। मनुष्य अपने सर्वांगीण जीवन अनुभव से प्रकृति की परम सत्ता के साथ अपने संबंध धीरे-धीरे दृढ़वत करता है।

संस्कृति विशेष से ऊपर उठकर मानव-चेतना के संकट की अनुभूति और उससे मुक्ति का मार्ग सुझाने का कार्य 'कफ़न' के घीसू और माधव ने अकर्मण्य बनकर सुझाया है। यहाँ सही व्यक्ति-संबंध न के बराबर ह। घीसू-माधव को बुधिया की प्रसव- वेदना या मृत्यु से कुछ लेना-देना नहीं ह। माधव को भूने आलू खाने की घटना के संदर्भ में अपने बाप घीसू पर भरोसा नहीं है। जमींदार 'कफ़न' के लिए पैसा खुशी से न देकर प्रतिष्ठा के नाम पर दे रहा है। यहाँ मानव-संबंध निभाने का पाखण्ड-मात्र है। ईमानदार किसान-मजदूरों के बीच बैठकर शराब पीने का, जमींदार का साहस या दावा भी उतना ही पोला है जितना कि एक अकर्मण्य व्यक्ति का जीवन एक तरह की पंगु और कट्टर किस्म की एकांगिता को जन्म देती है।

प्रेमचन्द ने कबीर की उलटबांसियों की तरह ही जीवन का नकारात्मक चित्रण देकर उस पर इतना करारा व्यंग्य दे मारा है कि प्रेमचन्द की विचारधारा को लेकर चलने वाले भी यह जान नहीं पाये थे कि किस तरह बेहद सरल और बोलचाल के लहजे में लिखी कहानी बेहद जटिल जीवन-व्यापार का रेशा रेशा सरलतम दुनिया के समक्ष उघाड़ देती है। आसान-सा, सरल-सा लगता यह भाव-बोध, सीधे-सीधे मुद्दों पर आकर कहानी का लिख जाना लेखक की बात नहीं है। इसीलिए यशपाल जैसा लेखक 'वाद' की मदद से मानव-संबंधों को उघाड़ता है तो अमृतलाल नागर जैसे लेखक लखनऊ के गली-मुहर्ता, इतिहास में पारिवारिक संबंधों की खोज करते हैं। प्रेमचन्द की काम से काम रखनेवाली वृत्ति ने 'कफ़न' कहानी को व्यक्ति और उसकी स्वतंत्रता, उसकी चेतना, नैतिकता की बेहद सरल अभिव्यक्ति बना दी है।

यदि 'कफ़न' समाज की कहानी है तो वह व्यक्ति की स्वाभाविक मानवीय आवश्यकतओं की पूर्ति से प्रेरित भावना है, जो जमींदार की बारात में घीसू का भोजन खाना या माधव द्वारा कफ़न के द्वारा भरपेट पूड़ियाँ खाकर बची हुई पूड़ियों को एक भिखारी को देना आदि क्रिया- कलापों में निहित है। वे अपनी ही सोच से घिरे हैं पर देने के आनंद और उल्लास के अनुभव को घीसू की अगली पीढ़ी, माधव के रूप में व्यक्त करके प्रेमचन्द ने व्यक्ति की मुक्ति का एक नन्हा-सा संकेत दे डाला है। और प्रेमचन्द की सोच उस एकांगी चिंतन से बच जाती है जिसे घीसू जैसी पीढ़ी विनाश की ओर धकेल रही थी। घीसू की सोच सर्वथा उसके अपने पर ही केन्द्रित है। 'साठ साल घास नहीं खोदी है' या 'रोयें रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाड़ी कमाई के पैसे हैं' जैसी घीसू की टिप्पणियाँ या बुधिया के वैकुण्ठ जाने का विश्वास व्यक्त करना, नितांत स्वार्थी बनकर अपने विनाश की ओर जानेवाली नितांत तथाकथित बुद्धिवादियों की जमात का प्रतिनिधित्व करती है। घीसू और माधव ऐसे आदिम और अनगढ़ पात्र हैं जो मनुष्यता से वंचित है, समाज के स्थापित मानदण्डों की परधि में कैद हैं, समाज में समयानुकूल होनेवाले बदलाव से अछूते हैं परंतु जीवन और मृत्यु के कगार पर खड़े होकर उनकी बंद आँखें बुधिया की प्रसव वेदना की कराह को देख-सुन पाती है किन्तु नर होने के नाते नारी की मदद करने में संकोच महसूस करते हैं, उसकी मृत्यु उनके लिए वरदान साबित हो उठती है। घीसू- माधव अपनी अकर्मण्यता-बदनामी का सामना वे दोनों 'दिन-रात मेहनत करने वाले किसानों से दूर' जमींदारों की बैठकों और बारात में शामिल होकर करते हैं। अपनी शक्तिहीनता का वैकल्पिक चुनाव उन्हें निन्दा का पात्र अवश्य बना देता है पर यह उनके तस्वीर का दूसरा रूख है और प्रेमचन्द भविष्य की उस नई नैतिकता की ओर संकेत करते हैं जहाँ नकारने की कुत्सित सोच भी शान और तारीफ की बात बन जाती है। वे अपने निन्दा न अवमानना के कालेपन से अपरिचित नहीं हैं। उनमें कोई हीन भावना, पश्चात्ताप, ग्लानि, अपराध-बोध कुछ भी नहीं है और इसीलिए जीवन-संग्राम की शक्ति का राज यह है कि दीनता भी ढाल और तलवार बन जाता है।

प्रेमचन्द के घीसू और माधव में सान्निध्य का स्नेह है तो दूरी की निस्संगता भी। परंतु यह स्नेह न तो प्रकृति का आत्मबोध है न ही आत्मा से ऊपर उठने की निस्संगता। संबंध होने का यह ढंग मूलगामी है। अतः इसका जन्म मृत्यु और 'कफ़न' के संदर्भ में है। जन्म घीसू माधव की उस शक्ति का है जो मात्र बुद्धि केन्द्रित है, विनाशकारी है और मृत्यु भी उस ईमान और कुफ्र के संदर्भ में है जहाँ स्वतंत्रता स्वयं को ही संशय की दृष्टि से देखती है। इसीलिए कफ़न के पैसों से शराब उड़ाते हुए घीसू-माधव उन्हीं मूल्यों का स्मरण करते हैं जिनका व्यवस्था से एक स्तर पर उन्होंने विद्रोह किया है। यही तो प्रेमचन्द के पात्रों में ढली चीज़ है, जो जीवन और साहित्य दोनों का ही आत्मानुभव है।

- डॉ. विजया

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