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प्रत्यक्ष साक्षी
हे आसमान तू है हर,
उस बात का साक्षी।
जिस पर नहीं जाती,
किसी की दृष्टि भी।
तुम अपनी आँखों से देखे,
धरा की हर उस बात को।
परंतु बयान नहीं करते,
मौनव्रत लिए सदियोंसे।
काश तुम बता सकते,
इस जग को
क्या सच है कौन झूठा।
हवा तुम व्याप्त हो,
हर उस कण-कण में।
जहाँ नहीं पहुँच पाती,
मानव की इक सोच भी।
तू हर-एक को जानता,
परंतु सजग नहीं करता।
मौनव्रत लिए सदियों से,
काश तुम जगा सकते,
इस जग को,
बेइमानों की करतूत से॥
- पी. हरिता
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