Birth Anniversary Special : Linguistic consciousness of Premchand
प्रेमचंद जयंती विशेष : आज 31 जुलाई साहित्य सम्राट प्रेमचंद जयंती है, उनका जन्म 31 जुलाई 1880 में में हुआ था, कलम के सिपाई, कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद हिन्दी कथा साहित्य के यथार्थवादी रचनाकार है, उनके उपन्यास और कहानियों में समाज की विविध विषयों जैसे छुआछूत, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता, ऊंच-नीच आदि सभी विषयों पर उन्होंने लिखा है। आज इस लेख में उनके भाषा शैली के बारे में बात करेंगे, कहानियों और उपन्यासों में प्रेमचंद की भाषाई चेतना से संबंध महत्वपूर्ण जानकारी पढ़िए।
मुंशी प्रेमचंद की भाषाई चेतना
भारत वर्ष न केवल बहुभाषा देश है। अपितु वह बहु-सांस्कृतिक भी है। ऊपरी सामाजिक एवं सांस्कृतिक विभिव्रता के बावजूद भी उसकी अंतरात्मा 'एक' है। भाषा के धरातल पा जब इस विभिन्नता में एकता की बात उठाई जाती है तब सवाल एक तरफ बोली और शैलिक से उठ कर भाषा की ओर मुड़ जाता है। और दूसरी ओर अनेक भाषाओं के बीच संप्रेषण को साधने वाली संपर्क भाषा की ओर। इसके विपरीत जब स्थानीय विशेषताओं और जातीय संस्कृति के अपने विशिष्ट रंगों की अभिव्यक्ति का प्रश्न उठता है तब सवाल भाषा से शुरू होकर बोलियों और शैलियों की ओर मुड़ जाता है। प्रत्येक सजग साहित्यकार इन धाराओं के दवाब को महसूस करता है। जहाँ तक प्रेमचन्द का प्रश्न है, वे न केवल समर्थ कथाकार थे बल्कि एक सजग द्रष्टा भी थे; स्वाभाविक है कि उन्होंने इस दोहरे दबाव को झेला है और साथ ही व्यक्त और अव्यक्त रूप में इनके बीच से अपना रास्ता निकाला है।
जहाँ तक भाषा अभिमुखी एकता का सवाल है उन्होंने हिन्दी के व्यापक स्वरूप के भीतर उसे सिद्ध करना चाहा है। हिन्दी उनके लिए भारत की सामाजिक संस्कृति का प्रतीक थी। प्रेमचन्द के पूर्व गिलक्राइस्ट ने यह स्थापित किया था कि हिन्दी-हिन्दुस्तानी की शैलियों है-हाईकोर्ट की अर्थात फारसी शैली, बीच की अर्थात मान्य हिन्दुस्तानी शैली और गंवारु हिंदवी। फारसी शैली का उदाहरण सौदा, वली, मीर और दर्द की रचनाओं में मिलता है। हिंदवी नीचे स्तर के हिंदुओं और नौकरों की भाषा है। इनके बीच की शैली (हिंदुस्तानी) मुशियों के बोलचाल की भाषा है। गिलक्राइस्ट इसी मुशियों की शैली के समर्थक थे। परंतु उनके इस त्रि-वर्गीय विभाजन का आधार बहुत कुछ सांप्रदायिक था। उनका यह मत था हिंदू स्वभावतः हिंदवी की तरफ झुकेंगे और मुसलमान अरबी-फारसी के प्रति आसक्ति दिखाएंगे। इससे दो शैलियों पैदा होती हैं-एक तो उच्च शैली (कोर्ट की या हाई स्टाइल) और दूसरी ग्रामीण या प्राचीन शैली। इनके बीच में एक प्रचलित लोक-शैली रहेगी जिसे मैं ने सर्वोत्तम माना है और जिसका वर्णन अन्य शैलियों के साथ विस्तार से कर चुका है।' निश्चय हो हिंदी के इस त्रि-वर्गीय भेद का आधार सांप्रदायिक था जो न तो सिद्धांत के आधार पर सही था और न ही व्यवहार के आधार पर। ऐसे कई हिंदू साहित्यकार थे जिन्होंने अरची-फारसी मिश्रित उर्दू शैली में न केवल रचना की बल्कि उसके रूप को भी निखाए। इसी प्रकार सौदा, जफर जैसे शायरों ने ब्रज भाषा में रचना की। प्रेमचन्द ने स्वयं अपने लेखन रही थी, 'वाह रे दुलार !' वास्तव में इस प्रकार के संवेदनीय सांस्कृतिक ग्राम-चित्र ही 'गोदान' की आत्मा है। जहाँ एक ओर ऐसे सुरुबिपूर्ण चित्रों को लेखक ने उपस्थित किया, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण नारियों के वाक-युद्ध और कुरुचिपूर्ण संघषों के दृश्य भी यथातथ्य अंकित हुए हैं। हीरों के हाथों से पिटती हुई पुनिया के मुख से निकलती गालियों की बौछार कितनी प्रवाहमयी है, 'तेरी मिट्टी उठे, तुझे हैजा हो जाय, तुझे मरी आवे, देवी मैया तुझे लील जाय, भगवान् करे तू कोढ़ी हो जाय।' इस तलवर्ती जीवन के सूक्ष्म अध्ययन को देखते हुए कथाकार को उस जीवन का परिनिष्ठित कलाकार कहना अत्यन्त समीचीन प्रतीत होता है। जिस पुरोहित के भय से ग्राम-जीवन काँपता रहता है उसी पुरोहित के साथ परिस्थितिवश गाँव का निम्नवर्ग वर्ग-संघर्ष में भी जुड़ा हुआ चित्रांकित दृष्टिगोचर होता है। सिलियावाले काण्ड का एक चित्र दृष्टव्य है-'चमारों ने लपककर मातादीन के हाथ पकड़ अपनी-अपनी लाठी संभाल सके दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया।'
वास्तव में इस दृश्य के बिना ग्राम-जीवन का चित्र अधूरा रहता, क्योंकि रगड़ से बन्दन में भी आग उत्पन्न हो जाती है। ग्राम-जीवन सिधाई और सरलता का जीवन अवश्य है किन्तु उसके भीतर प्रतिशोध, प्रतिक्रिया, आक्रोश और क्षोभ की निहित तरंगें भी कम प्रबल नहीं होती है।
अन्य चित्रांकित दृश्यों में खलिहान का चित्रण है जहाँ कहीं मड़ाई हो रही है। बढ़ई, लोहार, पुरोहित, भाट, भिखारी भी अपना-अपना हक लेने के लिए जमा हो गये हैं। खलिहान में गाँव का पूरा 'समूह धर्म' दृष्टिगोचर होता है और गाँव के बाहर वह एक नया गाँव होता है। लेखक ने वर्षामंगल, कोल्हुआड़, सत्तू-गुड़ की संस्कृति और ग्रामीण छेड़छाड़ जैसी छोटी-से-छोटी बातों को भी देखा है। उन्होंने चमरौधा जूता, चबैना, पुआल, चक्की, जनेऊ, कऊड़ सबका वर्णन किया है। बेदरवली, सरखत, भरपायी, शहादत, रसीद, रेहनामा, कुर्की और कचहरी के कागजात के सारे नाज-नखरे सामने प्रस्तुत किए हैं।
इस ग्राम-वर्णन में कुछ चित्र ऐसे भी हैं जो आज की दृष्टि से पुराने पड़ गए हैं। जैसे रामसेवक एक जगह कहता है, 'किसान सबका नरम चारा है। पटवारी को नजराना दस्तूरी नदे तो गाँव में रहना मुश्किल। जमींदार के चपरासी और कारिंदों का पेट न भरे तो निर्वाह न हो।' वास्तव में यह स्थिति परिवर्तित हो गई हैं। थानेदार, पुलिस, कानूनगो, तहसीलदार और डिप्टी कलेक्टर आदि के दौरों पर अब किसान उस प्रकार हाथ बाँधे खड़ा नहीं रहता है। हाँ रामसेवक के कथन में जो नए-नए विभाग के अफसरों को उपद्रव संकेतित है वह आज की स्थिति में भी एक सत्य है। इसी प्रकार प्रेमचन्द एक जगह लिखते हैं, 'देहातों में साल के छह महीने किसी-न-किसी उत्सव में ढोल-मंजिरा बजता रहता है। होली के एक महीने पहले से एक महीने बाद तक फाग उड़ती है। असाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में कजलियाँ होती हैं। कजलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है। घर में अनाज नहीं, देह में कपड़े नहीं, गाँठ में पैसे नहीं, कोई परवाह नहीं।' यह स्थिति भी बदल गई है। गाने-बजाने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। अनाज, पैसे और कपड़े होने पर भी आज गाँव टूटा हुआ, उदास, उखड़ा हुआ और अपरिभाषित कुंठा तथा द्वंद्वों में अत्यन्त गहन रूप में उलझा हुआ है। प्रेमचन्द का एक ग्रामीण जंगी गोबर को अंग्रेजी जूता पहने हुए देखकर आश्चर्य करता है। आज ऐसा आश्चर्य करने वाला गाँव में नहीं मिलेगा। प्रेमचन्द ने धनियाँ को चक्की चलाते हुए चित्रांकित किया है, 'धनियाँ रोती थी और साहस के साथ जौ पीसती थी।' आज आटा-चक्कियों ने पीसने-कूटने से फूर्सत दे दी है। आज का ग्रामीण होरी की भाँति न तो पंच-परमेश्वर के न्याय को आँख मूंदकर स्वीकार कर लेता है और न उसकी भाँति अपने को बिरादरी का चाकर कहता है। आज के ग्रामीण ने बिरादरी को सबसे अधिक तिरस्कृत और उपेक्षित कर दिया है। भोजभात का अनुशासन गाँवों में समाप्त प्रायः है। प्रजातंत्र और चुनाव की कृपा से एक गाँव के भीतर कई गाँव हो गए हैं। पंचायत सरकारी हो गई है जो केवल नाम-भर के लिए है। जमींदारी टूट जाने से प्रेमचन्द द्वारा चित्रित जमींदारी और कारिंदों के अत्याचार के दृश्य भी ग्रामांचल से ओझल हो गए हैं। होरी का सिद्धान्त था कि 'खेती में जो मरजाद है, नौकरी में नहीं।' आधुनिक ग्रामांचल में स्थिति विपरीत है। 'गोदान' में चित्रित चिलम तमाखू में जो विश्राम के साथ स्वागत-भाव था, वह धीरे-धीरे रूपांतरित होता जा रहा है और नया ग्रामांचल आदर-सत्कार में 'हुक्का चिलम' की जगह बीड़ी प्रस्तुत करने लगा है।
इन कुछ परिवर्तनों के होते हुए भी प्रेमचन्द ने ग्राम-जीवन का जो मूलभूत प्रवृत्यात्मक चित्रण किया है उसमें सनातन गाँव की धड़कन है। वह भारतीय कृषक जीवन अथवा ग्राम-जीवन का सम्पूर्ण चित्र है और कुल मिलाकर लोक-संस्कृति का अत्यन्त निर्मल दर्पण है।
- प्रो. दिलीप सिंह
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