Literature and society in current perspective
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य एवं समाज
मनुष्य समूचे संसार में अद्वितीय प्राणी है। उसके कई कारण है। भाषा और साहित्य भी उन्हीं में से हैं। मानव की विकास यात्रा में भाषा का सर्जन सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है। भाषा के कारण मनुष्य की संप्रेषण की समस्या हल हुई, तो अपने ज्ञान को संजोए रखने की आवश्यकता से साहित्य का निर्माण हुआ। अगर साहित्य का निर्माण नहीं हुआ होता तो मनुष्य इतना सुसंस्कृत भी नहीं हुआ होता। साहित्य रूपी संबल से ही मनुष्य समाज की विकासधारा प्रवाहमान रही है। अतएव दोनों का निकटतम संबंध है। दोनों एक-दूसरे के अन्योन्याश्रित है। दोनों के एक-दूसरे पर अनेक उपकार है। समय के साथ-साथ समाज बदलता है, उसके विचारों में नवीनता आती है, जिसके कारण साहित्य की अवधारणाएँ भी बदलती है।
समाज की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों से जहाँ साहित्य बदलता है, वहीं साहित्यिक विचारों के प्रचार-प्रसार से भी समाज की ये परिस्थितियाँ प्रभावित होती है। समाज ही साहित्य की भूख को मिटाता है। साहित्य के लिए विचारतत्व साहित्यकार समाज से ही ग्रहण करता है और इन्हीं विचारतत्वों के वेष्टायुक्त साहित्य से समाज सुसंस्कृत, उन्नत एवं अधुनातन बनता है। प्रत्येक साहित्यकार एक समाज में जीता है। समाजविशेष का एक हिस्सा होने के नाते समाज की रागात्मकता से वह प्रभावित होता है। अपनी लेखनी से निर्दिष्ट खामियों को वह अपने साहित्य में प्रतिबिंबित कर समाज को सुधारने की चेष्टा करता है।
साहित्य के निर्माण काल से ही उसमें उपयोगिता का गुण अंतर्भूत रहा है। मम्मट के काव्य प्रयोजन 'काव्य यशो अर्थकृते...' से लेकर काव्य जीवन के लिए, जीवन से पलायन के लिए, कला के लिए जैसे अनेक विचार काव्य की-साहित्य की उपयोगिता के संदर्भ में सामने आते हैं। अर्थात् साहित्य की उपादेयता अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज की उन्नति इसमें आना अनायास ही है पर साहित्य के ये प्रयोजन हमेशा ही एक जैसे नहीं रहते। समयानुरूप उसमें बदलाव आता है। समयानुरूप परिस्थितियों के साथ- साथ प्रवृत्तियाँ भी बदलती हैं। मसलन हिंदी साहित्य की बात करें तो, आदिकाल में वीर रस प्रधान रहा तो भक्तिकाल में भक्तिभावना। इसके बाद साहित्य के केंद्र में श्रृंगार आया। बाद में राष्ट्रवाद, व्यक्तिवाद, समाजवाद, यथार्थवाद आदि साहित्य के केंद्र में रहे।
भारतीय साहित्य में आजादी, भूमंडलीकरण, आधुनिकीकरण, नीजीकरण, वैश्वीकरण ये ऐसे पड़ाव हैं जहाँ से साहित्य का रूख बदलता गया। प्रेम, सत्य, नैतिकता, भाईचारा, कर्तव्य, मर्यादा, सेवा, मानवता, त्याग, समता, करुणा जैसे मूल्यों पर आधारित साहित्य में उत्तरोत्तर इन मूल्यों का हास या इनकी अस्पष्टता एक ओर जहाँ आधुनिकता को दर्ज करती है, वही कहीं ना कहीं साहित्य के होते अवमूल्यन को भी दर्शाती है। उपर्युक्त पड़ावों के पहले साहित्यकार समाज का यथार्थ चित्रांकन करते हुए आदर्श को प्रतिष्ठापित करता था। वह समस्या को चित्रित करता था तो उसका निदान या समाधान भी प्रस्तुत करता था, पर उत्तरोत्तर केवल समस्या प्रधान बनती गई, समस्या का निराकरण गौण।
वर्तमान समय में साहित्य की दशा एवं दिशा दोनों बदल गई है, चूंकि समाज की मान्यताएँ बदली है। आज साहित्य का आधार केवल किताबें, पत्र-पत्रिकाएँ नहीं रही है, समूचा मीडिया साहित्य की भूमिका निभाता दिखाई देता है। प्रिंट मीडिया की अपेक्षा इलेक्ट्रानिक मीडिया का बोलबाला आज चारों ओर है। इंटरनेट, ट्विटर, ब्लॉग, व्हॉट्सएप जैसे संचार साधन आज साहित्य का काम करते दिखाई देते हैं पर सवाल यह है कि क्या साहित्यिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक मान्यताओं पर यह खरा उतरता है? या बदलते समाज का जामा पहनाकर उसे वैसे बनाकर आधुनिकता का नाम दिया जाता है? या आधुनिकता की आड़ में वैसा साहित्य परोसा जाता है? वैसे साहित्य की उपादेयता को कभी नकारा नहीं जा सकता। उसके आरंभ काल से लेकर आज तक समाज के दिशा-दर्शन का महत्वपूर्ण दायित्व उसने बखूबी निभाया है और निभाता रहा है। लेकिन वर्तमान के मूल्य विघटन के दौर में इसकी जिम्मेदारी अहं है।
आज के साहित्य के केंद्र में व्यक्ति तो है, पर क्या मनुष्य केंद्र में है? इसके पहले के साहित्य में व्यक्तिवाद की अपेक्षा समाजवाद, राष्ट्रवाद की प्रधानता रही। आज की व्यक्ति केंद्रित जीवनशैली के चलते यह स्वाभाविक भी लगता है, पर क्या व्यक्तिवादी चित्रण समूचे मनुष्यमात्र का चित्रण हो सकता है? इसका उत्तर नहीं जैसा ही आएगा। चूँकि आज का साहित्य स्त्री विमर्श, जाति विमर्श, आदिवासी विमर्श, दलित विमर्श जैसे अलग-अलग खानों में बँट गया है। इनके चलते लेखक की नजर और लेखनी भी सीमित घेरे में संचरण करती दिखाई देती है। पुरूष-पुरूष की नजर से सोचता, लिखता, पढ़ता है; स्त्री स्त्री की नजर से सोचती, लिखती, पढ़ती है। इतना ही नहीं इसे तो हर जाति, धर्म, पंथवादी अपने जाति, धर्म, पंथ के चश्मे से देखता है, लिखता है और पढ़ता है। सभी अलग-अलग दायरों में अपने आपको रखकर विमर्श करते नजर आते हैं। अतः सवाल यह खड़ा होता है कि मनुष्य की नजर से कौन देखता है, सोचता है और कौन लिखता और पढ़ता है? मनुष्य के संदर्भ में विमर्श कौन करता है?
साहित्य का इन दायरों में सीमित होना समय की माँग कह सकते हैं। समयानुरूप बदलते साहित्य एवं समाज का परिपाक भी कहना अनुचित नहीं है। हर व्यक्ति, समुदाय को अपने स्वत्व, वजूद, अस्तित्व के संदर्भ में सोचना, उसके लिए प्रयासरत रहना गलत भी नहीं है। पर क्या समाज, राष्ट्र से व्यक्ति या समुदाय बड़ा होता है? अपने स्वत्व के घेरे के चक्कर से उन्नति का मार्ग निकलता है? क्या साहित्य की ऐसी धाराएँ स्वस्थ्य समाज बना सकती है? इन सबका उत्तर नहीं जैसा ही आएगा।
हर व्यक्ति की कोई न कोई जाति है। पुरूष और स्त्री तो है ही, पर इससे भी बढ़कर Cast और Religion ही आज आदमी की प्रमुख पहचान है। मनुष्य की कोई पहचान नहीं है। सभी अपने-अपने दायरों में सिमटकर स्वयं श्रेष्ठ और दूसरे को ओछा समझते हैं। इसी में उन्हें धन्यता मिलती है। हर क्षेत्र में यह जातिवाद, धर्मवाद काम करता है। अनेक साधू-संतों ने इसे मिटाने का प्रयास किया, पर यह कम होने की बजाय दिनों-दिन बढ़ता दिखाई देता है। खान-पान के तौर पर भले यह नजर न आता हो, लेकिन शादी-ब्याह, नौकरी आदि के संदर्भ में यूँही सरचढ़कर बोलता है। ऊपर से सभ्य दिखनेवाले समाज के मन में यह वाद अधिकं क्रियाशील रहता है, सांप्रदायिक दंगों आदियों से इसकी प्रतीति आती है। इसे पाटना आज के लेखक के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
शिक्षा, संस्कृति, राजनीति सभी के केंद्र में यही जातिवाद, धर्मवाद काम करता है। अनुसंधान का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। शैक्षिक संस्थाओं, विश्वविद्यालयों के अनुसंधान कार्य में इसी आधार पर काम किया जाता है। जिसे गलत भले नहीं कहा जाए, पर क्या वह मनुष्य की सोच को सीमित एवं कमजोर नहीं करता है? भाषावाद, प्रांतवाद, व्यक्ति क्षेष्ठतावाद को क्या उससे बढ़ावा नहीं मिलता ? पर इसके बारे में किसे चिंता है? हर कोई अपने में ही इतना मश्गुल है कि यह अपनी जिम्मेदारी नहीं है मानकर हाथ झटक लेता है। ऐसे माहौल में, वातावरण में एक साहित्यकार होने के नाते उसकी जिम्मेदारी अधिक बढ़ती है, चूँकि साहित्यकार जाति-धर्म-पंथ आदि से परे होता है और होना चाहिए। तटस्थता से निरीक्षण-परीक्षण उसका धर्म होता है, यही उसकी विशेषता भी होती है। वर्तमान के बढ़ते क्षेत्रवाद के मद्देनजर आज के साहित्यकार के सामने बड़ी चुनौती है। समाज को एकसंध बनाए रखने की चुनौती। स्त्री, पुरूष, जाति, धर्म आदि जैसी खंडनात्मक प्रवृत्तियों की अपेक्षा सभी को समान दिखाने-समझाने की चुनौती । व्यापक अर्थ में मनुष्य को मनुष्य बनाए नखने की चुनौती। अगर इस चुनौती को लाँघने में साहित्यकार सफल हुआ तो मनुष्य जाति का विकास संभव है, अन्यथा. आगे मनुष्य की व्याख्या करना भी कठिन होगा।
- डॉ. प्रमोद पडवल
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