Mahadevi Verma and women's education
महादेवी वर्मा एवं नारी शिक्षा
महादेवी जी की श्रृंखला की कडियाँ निबंध संग्रह में हमारी समस्याएँ निबंध के प्रारंभ में ही लिखती है कि "जिस प्रकार मिले रहने पर भी गंगा यमुना के संगम का मटमैला तथा नीला जल मिलकर एक वर्ण नहीं हो पाता उसी प्रकार हमारे जन साधारण में शिक्षित तथा अशिक्षित वर्ग के बीच में एक ऐसी रेखा खिंच गई है जिसे मिटा सकना सहज नहीं। शिक्षा हमें एक दूसरे के निकट लाने वाला सेतु न बनकर विभाजित करने वाली खाई बन गई है, जिसे हमारी स्वार्थपरता प्रतिदिन विस्तृत से विस्तृततर करती जा रही है।"¹ यह लेख उन्होंने उस समय लिखा था जब देश अंग्रेजों के शासन में परतंत्रता की बेड़ियों से जकड़ा था। उस समय भी मुक्ति का एक साधन शिक्षा प्रचार को ही लेखिका ने प्रमुखता से विज्ञापित किया। किंतु शिक्षित लोग अपने देश के अशिक्षित भाई-बहनों के प्रति संवेदनशील भाव देकर उनके हित-साधन में सहायक बनने के बदले अपने स्वार्थवश औरों से अलग ही श्रेणी का प्राणी सिद्ध करने में लगे हैं ऐसा लेखिका ने अनुभव किया।
शिक्षा की अनिवार्यता को शत प्रतिशत स्वीकार करती हुई लेखिका ने उसे देश मुक्ति, समाज-मुक्ति, प्रमुख पुरुष समाज मुक्ति तथा स्त्री समाज मुक्ति आदि अनेक क्षेत्रों की मुक्ति का एक मात्र साधन माना है। किंतु साथ ही शिक्षित वर्ग द्वारा स्वार्थपरता का त्याग किया जाना आवश्यक है जिसे उसके अर्जित ज्ञान का लाभ समाज को मिल सके और इसी से स्त्रियों की अनेकानेक जटिल समस्याओं के अंधकार में भी प्रकाश का प्रसार होना संभव है। इस संबंध में लेखिका कहती हैं कि "हमारे सारे दुर्गुण अपने बाल रूप में बडे प्रिय लगते हैं। छोटे से अबोध बालक के मुख से फीका झूठ भी मीठा लगता है, उसकी स्वार्थपरता देखकर हँसी आती है, परन्तु जब वही बालक सबोध होकर अपने झूठ और स्वार्थपरता को भी बड़ा कर लेता है तब हमें उन्हीं गुणों पर आँसू बहाने पड़ते हैं। दरिद्र माता जब अनेक परिश्रमों से उपार्जित धन का प्रचुर अंश व्यय कर अपनी विद्यार्थिनी बालिका को गृह के इतर कार्यों से घृणा तथा जिन्हें ऐसी सुविधा नहीं मिली है उनके प्रति अपेक्षा प्रकट करते देखती है तब उसे आत्मसंतोष की प्रसन्नता हो सकती है, परन्तु जब वही बालिका बड़ी तथा शिक्षिता होकर अपनी माता तथा उसके समाज के प्रति अनादर दिखाने का स्वभाव बना लेती है तब सम्भव है उसे पहली-सी प्रसन्नता न होती हो।"²
शिक्षा द्वारा मनुष्य का संस्कार होता है। मनुष्य के व्यक्तित्व विकास का अनन्य साधारण महत्व है। व्यक्ति को सुसंस्कृत संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता है। व्यक्तित्व को उन्नत बनाने का काम शिक्षा द्वारा ही संभव होता है। अतः जिस शब्द में शिक्षा का प्रसार अधिक होता है, उस राष्ट्र की प्रगति अधिक गति से होती है। विशेषतः राष्ट्र की गतिशीलता का प्रतीक है, स्त्री शिक्षा जिस राष्ट्र में स्त्री शिक्षा का काफ़ी प्रसार होता है शिक्षित स्त्रियों की संस्था अधिक होती है, वह राष्ट्र या समाज अधिकाधिक सुसंस्कृत माना जाता है, अर्थात समाज अथवा राष्ट्र जितना विकसित होगा उतना स्त्री शिक्षा का काफ़ी प्रसार होगा। अतः समाज में केवल पुरुष को शिक्षा देना और स्त्री को शिक्षा से वंचित रखना सर्वथा अनुचित है। क्योंकि स्त्री मानव समाज का अभिन्न अंग है। अतः मानव समाज की प्रगति के लिए पुरुष के समान स्त्री की प्रगति भी अत्यंत आवश्यक है।
वस्तुस्थिति तो यह है कि आज धीरे-धीरे अपने देश की स्त्रियाँ भी जाग रही हैं। लेखिका लिखती है कि "आज हमारी सामाजिक परिस्थिति कुछ और ही है। स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण-प्रतिष्ठा चाहती है। कारण वह जान गई है कि एक का अर्थ अन्य को शोभा बढाना तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाना है तथा दूसरे का अभिशाप दूर से उस पुजापे को देखते रहना है जिसे उसे न देकर उसी के नाम पर लोग और उसी में उत्तीर्ण होने को जीवन की चरम सफलता समझती हैं।'³
महादेवी जी का विचार है कि आज भी अनेक ऐसे बच्चे हैं जिनमें सहज स्वाभाविक जिज्ञासु वृत्ति है साथ ही पढ़ने की लगन भी है परन्तु उन्हें उचित साधन न मिलने के कारण वे जंगल में खिलने वाले फूल की तरह असमय ही मुरझा जाते हैं। महादेवी जी अपने रेखाचित्र "अतीत के चलचित्र में संकलित घीसा रेखाचित्र में एक ग्रामीण बालक को केन्द्र बनाकर ग्रामों के अविकसित वातावरण में पलने वाले ऐसे बच्चों की ओर भारतीय समाज का ध्यान आकर्षित किया है, जो होनहार होते हुए भी अपनी निर्धन एवं असमर्थ परिस्थितियों के कारण विकसित नहीं हो पाते। सर्वगुण सम्पन्न होने पर भी किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाने में सर्वथा असमर्थ ही रहा करते हैं। अतः लेखिका यह कहना चाहती है कि यदि इस प्रकार के बच्चों की ओर ध्यान देकर उनकी उचित शिक्षा और उनके जीने के लिए उचित परिवेश का निर्माण किया जा सके तो वे देश जाति के लिए बडे ही हितकर प्रमाणित हो सकते हैं। घीसा के संबंध में वे लिखती है कि, "पढ़ने, उसे सबसे पहले समझने, उसे व्यवहार के समय स्मरण रखने, पुस्तक में एक भी धब्बा न लगाने, स्लेट को चमचमाती रखने और अपने छोटे-से-छोटे काम का उत्तरदायित्व बड़ी गंभीरता से निभाने में उसके समान कोई चतुर न था। इसी से कर्म-कर्मा-मन चाहता था कि उसकी माँ से उसे माँग ले जाऊँ और अपने पास रखकर उसके विकास की उचित व्यवस्था कर दूँ-परन्तु उस उपेक्षिता, पर मानिनी विधवा का वहीं एक सहारा था। वह अपने पति का स्थान छोडने पर प्रस्तुत न होगी वह भी मेरा मन जानता था और उस बालक के बिना उसका जीवन कितना दुर्वह हो सकता है, यह भी मुझसे छिपा न था। फिर नौ साल के कर्तव्यपरायण घीसा की गुरु भक्ति, देखकर उसकी मातृ-भक्ति के सम्बन्ध में कुछ सन्देह करने का स्थान ही नहीं रह जाता था और इस तरह घीसा वहीं और उन्हीं कठोर परिस्थितियों मे रहा, जहाँ क्रूरतम नियति ने केवल अपने मनोविनोद के लिए ही उसे रख दिया था।"⁴
'स्मृति की रेखाएँ' में पहला रेखाचित्र एक देहाती वृद्ध महिला का है जिसका नाम भक्तिन है। भक्तिन सर्वथा अशिक्षित और देहातिन है। उसके स्वभाव में अपेक्षाकृत अवखंड़ता है जो खटकती भी है। वह बारह वर्ष से लगभग महादेवी जी के साथ रही है। कैसा भी अनपढ क्यों न हो वह शिक्षित व्यक्ति के साथ रहकर कुछ शिष्टता सीखा जाता है। परन्तु भक्तिन इतने दिनों से महादेवी जैसी प्रतिष्ठित व शिष्ट सहृदय विदूषी के साथ रहती आई है पर पुकारने पर ओम के स्थान पर जी कहना नहीं सीखी। वह महादेवी जी से तो प्रभावित नहीं हुई पर उन्हें अवश्य प्रभावित कर दिया। महादेवी का विचार है कि वह अशिक्षित और अज्ञात के अंधकार में भी कुछ ऐसे गुण हैं जो उसके व्यक्तित्व का प्रबल आकर्षण है।
वे भक्तिन रेखाचित्र में लिखती हैं कि "वह मूर्ख है या विद्याबुद्धि का महत्व नहीं जानती, यह कहना असत्य कहना है। अपने विद्या के अभाव को वह मेरी पढाई लिखाई पर अभिमान करके भर लेती है। एक बार जब मैं ने सब काम करने वालों से अँगूठे के निशान के स्थान पर हस्ताक्षर लेने का नियम बनाया तब भक्तिन बडे कष्ट में पड गयी, क्योंकि एक तो उस से पढ़ने की मुसीबत नहीं उठायी जा सकती थी, दूसरे सब गाडीवान ने आरम्भ किया "हमारा मलिकिन तो रात-दिन कितबियन मा गडी रहती हैं। अब हमहू पढे लागब तो घर गिरस्ती कहबन देखी सुनी।" इस प्रकार महादेवी वर्मा अपने रेखाचित्रों में स्त्री शिक्षा की अनिवार्यता के बारे में लिखा है।
संदर्भ ग्रंथ;
1. हमारी समस्याएं - पृष्ठ संख्या - 96
2. वहीं - 97
3. वहीं - 108
4. अतीत के चलचित्र घीसा - पृष्ठ संख्या - 37
- मुहम्मद साबिर
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