Premchand Ka Sahityik Parichay : Biography of Premchand
हिंदी साहित्य में प्रेमचंद का योगदान : उपन्यास सम्राट कहे जाने वाले महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद जयंती पर विशेष उनका व्यक्तित्व और कृतित्व हिन्दी में। आज 31 जुलाई जयंती पर विशेष प्रेमचंद का जीवन परिचय और साहित्यिक संक्षिप्त परिचय दिया गया है। हिन्दी साहित्य में कहानी और उपन्यास के माध्यम से पाठकों को झकझोर कर देनेवाले रचनाओं को लिखने वाले कलम के सिपाई का जन्मदिन है आज, तो चलिए शुरू करते हैं प्रेमचंद का साहित्य और जीवन परिचय को हिन्दी में।
प्रेमचन्द : व्यक्तित्व और कृतित्व
जब हमारा देश एक साथ कई परेशानियों के साथ जूझ रहा था और आजादी के लिए देश में क्रान्ति का उबाल आया हुआ था। तब उस समय अन्य साहित्यकारों के साथ-साथ एक महान् लेखक मुंशी प्रेमचन्द का हिन्दी के इतिहास में आगमन हुआ। मुंशी प्रेमचन्द जमीन से जुड़े एक सच्चे इंसान थे और उस से भी अच्छे संवेदनशील महान् साहित्यकार थे।
उनका व्यक्तित्व अत्यन्त ही सादा एवं सरल था। हमारा भारतीय जीवन भारत के गाँवों में ही बसता है जिसका सजीव चित्रण उन्होंने मार्मिक रूप से अपने लेखन में प्रस्तुत किया है। मुंशी जी एक सर्वश्रेष्ठ कहानीकार थे। ये उपन्यास के सम्राट भी कहे जाते हैं। इन्होंने अपने कलम से कभी फायदा नहीं उठाया। मुंशी प्रेमचन्द कलम के सिपाही भी थे और कलम के मजदूर भी। उन्होंने अपने समय की परिस्थितियों में जो देखा और भोगा, उसे ही अपने कलम से उतारा है। इनके अनुभवी लेखन में जागृति है, चेतना है, हाहाकार त्रासदी है तथा रूदन व दुःख के साथ-साथ स्वाभिमान भी है। 1920 से 1936 के युग में प्रेमचन्द जी एक समर्थ कहानीकार के रूप में सामने आये थे। इन्होंने अपनी कहानी में स्वस्थ मनोरंजन के साथ जौवन के संघर्षों को भी व्यक्त किया है तथा समाज के दलित शोषित वर्ग की समस्याओं के प्रति भी समाज का ध्यान आकर्षित किया है।
वे स्वयं जीवन में संघर्ष करते रहे तथा अपने आँखों देश का भी संघर्ष देखते रहे, इसका निदान कैसे हो ? उसे उन्होंने लेखन में भी उतार कर समाधान नहीं दे पाये। क्योंकि देश का नेत्र तब भी उलझा हुआ था और आज भी उलझा हुआ है। जब देश के लोग अंग्रेजों के अधीन होकर लुटते-पिटते थे तब भी सामंतों जमींदारों के हाथों भी भोले-भाले नागरिक लुटते थे। और आज देश आजाद है फिर भी शासक एवं पूंजीपति वर्ग अपनी जनता को लूट रहा है। प्रेमचन्द जी सदा ही इस व्यवस्था से विचलित रहे हैं तथा पीड़ित व शोषित वर्गों की वकालत करते रहें हैं उन्होंने अपने सिद्धान्तों से हटकर कभी समझौता नहीं किया तथा जीवन भर अन्याय व अत्याचार के विरोध में कलम का मोर्चा संभाला।
स्वतंत्रता आन्दोलन के तहत कई ऐसी कहानियाँ लिखीं। "सोजे वतन" जो कि आपत्तिजनक माना गया और राजद्रोह के नाम पर उसकी सारी प्रतियाँ जलवा दी गई। यहाँ फिर इन्होंने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। और सर्वत्मना लेखन में लग गये। लखनऊ से प्रकाशित 'माधुरी' के भी ये सम्पादक बने। लेकिन लेखन से घर नहीं चल पाता था। अतः प्रकाशन जगत में सरस्वती प्रेस के नाम से पादार्पण किया। फिर इन्होंने हंस तथा साप्ताहिक जागरण भी निकाला। फिर भी ये आर्थिक विपदा से उबर नहीं पाये।
मुंशी प्रेमचन्द जी जो हजारों लोगों को अपने लेखन से प्रभावित करते थे, उन्होंने जैनेन्द्र जी को पत्र लिखते हुए पत्र में कहा कि मेरी सारी जिन्दगी घाटे में व्यतीत हो गई। अब घाटे का क्या रोना ?
कुछ दिन ये बाम्बे में भी मूवीटोन (फिल्म लाईन) में भी किस्मत आजमाने आये। किन्तु यहाँ भी मनोरंजन के नाम पे फूहडता का समावेश देखकर वापस बनारस आ गये। अपने चिन्तन के विकास की प्रगति में प्रेमचन्द अपने सम-सामयिक आन्दोलनों से बहुत प्रभावित होते रहे थे। पहले उन पर आर्य समाज का प्रभाव था बाद में वे गाँधीवाद से प्रभावित हुये । परन्तु उनका कलाकार मन निरन्तर नये समाधान साहित्य द्वारा ढूंढता रहा। भारतीय प्रांगण के हर छोटे-बड़े समस्याओं को मुंशी जी अपने लेखन में उतारते रहे।
इसी तरह सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार मुंशी जी ने उपन्यासों में भी वास्तविकता को ही सामने रखा है। 'गोदान' यह कृषक जीवन पर आधारित उपन्यास है। जिसमें इन्होंने कृषकों की दयनीय स्थिति के साथ-साथ राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियों का भी सुन्दर चित्रण किया है तथा जमींदारों द्वारा किसानों के शोषण का विस्तृत वर्णन किया है। और महाजनी सभ्यता का शाप, तलाक की समस्या, जाति-पांति का भेदभाव, मजदूरों का संघर्ष, धर्म का ढोंग, अद्यौगिक समस्या, वेश्या समस्या, गाँव व शहर के जीवन में भिन्नता इन सभी विषयों पर मुंशी जी ने व्यापक दृष्टिपात कर उन्हें साहित्य में उतारा है, जो कि यहाँ चिन्तन मनन करने योग्य है। वे भारतीय साहित्य में ही नहीं, विश्व साहित्य में भी सर्वश्रेष्ठ स्थान रखते हैं। इनके मुख्य उपन्यास-सेवा-सदन, रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन, प्रेमाश्रम, कायाकल्प व गोदान आदि उल्लेखनीय है।
मुंशी प्रेमचन्द के द्वारा रचित सामाजिक उपन्यासों में समाज की व्याख्या को स्थान मिला है। उन्होंने अपने उपन्यासों में यथार्थ एवं आदर्श का सुखद समन्वय प्रस्तुत किया है और उनकी समस्याओं को वार्णा प्रदान की है। इन्होंने ग्राम वासिनी भारत माता का ऐसा चित्र प्रस्तुत कर समाज के प्रगतिशील दृष्टि को बल प्रदान किया है। इनके उपन्यास गाँधी युग के सामाजिक इतिहास बन गए जिनको जनता ने भरपूर आदर दिया है। इनकी कहानियाँ व उपन्यास आज भी भारतीय जन-जीवन में जीवित है।
मुंशी प्रेमचन्द जी का जन्म 31 जुलाई 1880 में बनारस के निकट लमही गाँव में हुआ था। जिनका असली नाम धनपतराय जी था तथा वे नवाबराय कहलाते थे। इन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया था। (ये विधवा विवाह के समर्थक भी थे) सारी जिन्दगी कठिनाईयों से जूझते हुए ये कभी निराश नहीं हुए। इन्होंने 8 अक्तूबर 1936 ई. को अन्तिम सांस ली। श्रीपतराय व अमृतराय दो पुत्र तथा एक पुत्री कमला के साहित्यकार पिता मुंशी जी प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ अधिवेशन के अध्यक्ष बने थे जहाँ उन्होंने स्मरणीय भाषण भी दिया था।
साहित्य सेवी लेखन में समृद्धिशील लेखक, एक गरीब मास्टर का युग समाप्त हो गया है। किन्तु उनका वैभवशाली लेखन भारतीय मानस पर परिव्याप्त है, जिसमें वे आदर्श लेखक साहित्यकार आज भी जिन्दा हैं। आज साहित्य एवं साहित्यकार का रूप बदल चुका है। वातानुकूलित कक्ष में बैठकर लिखा जा रहा है। जहाँ लक्ष्मी उनके साथ होती है। आज अब ऐसे महान् आदर्श स्वाभिमानी लेखक साहित्यकार कहाँ हैं जो सच्चे भारतीय हुआ करते थे।
"जय किसान', 'जय भारत'।
- ज्योति नारायण
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