नागरी लिपि का आरंभ, विकास और उसकी वैज्ञानिकता

Dr. Mulla Adam Ali
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Nagari Script

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नागरी लिपि का आरंभ, विकास और उसकी वैज्ञानिकता

संसार की और भारत की भी प्राचीन भाषा संस्कृत है। संस्कृत को देववाणी तथा उसमें प्रयुक्त लिपि को देवनागरी लिपि कहा जाता है। जिस प्रकार अन्य लिपियाँ-अरबी, रोमन, चीनी, जापानी, द्रविड़ आदि है, उस प्रकार देवनागरी लिपि भी है। इस लिपि का प्रयोग कब से हो रहा है यह निश्चित नहीं है। वेदों की रचना इस लिपि में की गयी है। वेदों की व्यवस्थित तथा उत्कृष्ट रचना को देखते हुए यह मानना पडता है कि वैदिक युग के पूर्व से ही इसका प्रयोग होता आ रहा है। लिपियों का प्रयोग ध्वनियों को व्यक्त करने के संकेत के रूप में होता है। मनुष्य के मुख से जो ध्यवनियाँ उच्चरित होती हैं उनको किस रूप में रखा जाय उनको व्यक्त करने के लिए कैसा संकेत रखा जाय यही लिपियों के आविष्कार का कारण है। ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता गया, त्यों-त्यों मनुष्य को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने तथा स्थाई रखने के लिए साधन आवश्यक होने लगे। इस क्रम में मनुष्य ने ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए संकेतों का निर्माण किया और इन संकेतों की रूप-रेखा और आकार प्रकार, ध्वनि विशेष के उच्चारण में श्वास के घुमाव के अनुसार बनाया गया। देवनागरी लिपि इसी आधार पर बनाई गयी। इसका आरंभ इस प्रकार हुआ। इसका प्रारम्भिक रूप सीधा-साधा था, परन्तु धीरे-धीरे इसे सुंदर और सुव्यवस्थित करके वर्तमान रूप में लाया गया।

देवनागरी लिपि का क्रमिक विकास-महर्षि पाणिनी के मतानुसार शंकर भगवान जब तांडव नृत्य कर रहे थे, तो उसके अंत में उन्होंने अपने डमरु को चौदह बार बजाया और उससे देवनागरी ध्वनियों का विकास हुआ। उसी के आधार पर पाणिनी ऋषि ने अपने व्याकरण ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' की रचना की। उन्होंने चार सहस्र से अधिक सूत्रों का निर्माण किया। इन्हीं सूत्रों के आधार पर संपूर्ण व्याकरण शास्त्र की रचना हुई। इसमें स्वर-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, ऋ, ऋ, लृ आदि तेरह और क्, खू, ग्, घ, ङ्, च्, छ, ज, झ, ञ, टू, ठू, इ, द्, ण, त्, थ, द, धू, न्, प्, फ्, ब्, भ्, म्, य्, र्, लू, व्, श्, ष्, स्, ह, क्ष, त्र, ज्ञ आदि अडतीस व्यंजनों का समावेश हुआ। यही देवनागरी लिपि का परिवार है। इनका वर्तमान रूप अनेक परिवर्तनों और संशोधनों के बाद बन पाया है। वर्तमान सरकार ने भी टंकण-सुविधा के लिए इनमें सुधार करने का प्रयास किया पर इनका रुप और आकार इतना वैज्ञानिक और सुंदर है कि सुधार में विकृति आजाती है, और लाभ भी नहीं होता। इनकी वर्णमाला में सभी संभव ध्वनियों के लिए संकेत बने हुए है। स्वर व्यंजनों से मिलाकर उन्हें उच्चारण सुलभ बनाते है। उनसे व्यंजनों में स्वराभाव दिखाने के लिए हलन्त लगाना पडता है या संयुक्ताक्षर बनाना पड़ता है।

देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता : देवनागरी लिपि में हर ध्वनि के लिए निश्चित संकेत के कारण जो कुछ लिखा जाता है, वही पढा भी जा सकता है। पाठक को अपनी ओर से कुछ भी मिलाना नहीं पडता, और न किसी ध्वन्यांश को छोडने की आवश्यकता पडती है। इसी कारण यह लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक मानी जाती है। वैज्ञानिक वही वस्तु कही जाती है जिसमें सविकल्पक ज्ञान हो यानी जहां स्पष्ट और ठोस ज्ञान हो। इन लिपियों में स्पष्ट और ठोस ज्ञान भरा हुआ है। व्याकरण शास्त्र ने इन सभी वर्गों के उच्चारण स्थान तथा उच्चारण में श्वास गति और जिह्वा की स्थितियों का बराबर ध्यान रखा है। अतः प्रत्येक वर्ग का स्वतंत्र अस्तित्व माना जाता है। कोई भी लिपि ऐसी नहीं है, जिसमें इतनी वैज्ञानिकता हो। रोमन, अंग्रेजी, अरबी, चीनी, विभिन्न लिपियों के लिखने और पढ़ने में अनेक विकल्पों की शंका हो जाती है। कहीं जापानी आदि में संयोग वर्ण का रूप ही लुप्त हो जाता है तो कहीं उनके उच्चारण में भेद हो जाता है। कहीं व्याकरण के नियम से अधिक से महत्वपूर्ण अपवाद ही बन जाते हैं। अंग्रेजी में 'बी-यु-टी' का उच्चारण 'बट' हो जाता है तथा 'पी-यु-टी' का उच्चारण 'पुट' होता है। एक ही स्वर 'यू' जो प्रथम स्थान पर 'अ' का काम करता है वही दूसरे स्थान पर 'उ' का काम करता है। इस प्रकार की अनेक अव्यवस्थाएँ दीखती हैं। 'एच-ओ-यू-यस' से 'हाउस' शब्द बनता है। इसमें 'इ' का वर्ण उच्चारण में स्पष्ट नहीं होता। यही स्थिति अनेक शब्दों में देखी जाती है। अरबी लिपि में तीन ही स्वरों से काम लिया जाता है। अतः विकल्प ज्ञान उच्चारण में सम्भावित रहता है। यही दशा और भाषाओं की लिपियों की भी है, देवनागरी लिपि से उच्चारण में सदा निर्विकल्प ज्ञान रहता है। अतः लिखने-पढ़ने और समझने में कठिनाई नहीं पड़ती। इन कारणों से इनकी वैज्ञानिकता पूर्ण रूपेण प्रामाणित हो जाती है।

इसका स्वरुप व्याकरण के अनुकूल है। 'क' वर्ग के सभी वर्ग प्रायः समान से लगते हैं। क्योंकि उनके उच्चारण-स्थान समीप ही होते हैं। उसमें ध्वन्यात्मक समानता जान पड़ती है। किन्तु श्वास की उनकी उच्चारण में पृथक विकार गति होती है, इसलिए उनके आकार में भिन्नता है। इसी प्रकार की स्थिति 'च वर्ग', 'ट वर्ग', 'त वर्ग' और 'प वर्ग' के वर्षों की भी है। य, र, ल, व आदि वर्ण अपना-अपना स्वतंत्र उच्चारण स्थान रखते हैं। अतः उनके आकारों में समता का आभाव है और वे वर्गीकृत भी नहीं हैं। स्वरों के आकार निर्धारण में उनके उच्चारण-काल का ध्यान रखा गया है और वे हस्व- दीर्घ, लुप्त इस प्रकार विभाजित किए गये हैं कि उनसे सम्बन्धित मात्राएँ उच्चारण-प्रकार के अनुसार पास की है। 'अ ई' आदि स्वरों व्यंजनों में मिलकर हलन्त की तिरछी लकीर को, जो व्यंजनों से नीचे लगाई जाती है, लुप्त कर देते हैं। अन्य मात्राओं का रूप भी इसी प्रकार निर्धारित हुआ है। इनके रूपों में भी संदेह के लिए स्थान नहीं रहता। अतः ये भी निर्दोष ही है। इस प्रकार देवनागरी लिपि के प्रत्येक वर्ण प्रायः निर्दोष हैं।

भारत सरकार और कुछ राज्य सरकारों ने देवनागरी लिपि में सुधार के लिए कुछ समितियों की नियुक्ति की और कुछ सुधार भी किए गए। सुधारों का कोई विशेष महत्त्व देवनागरी के क्षेत्र में नहीं, इससे उसकी वैज्ञानिकता में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई।

- डॉ. सी. हेच. चंद्रय्या

ये भी पढ़ें; देवनागरी लिपि का उद्भव तथा विकास : Devanagari Lipi

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