Harishankar Parsai
डॉ. हरिशंकर परसाई जी के निबंधों में राजनैतिक चेतना (रूप, रेखा)
भूमिका :
श्री हरिशंकर परसाई जी जनता के रचनाकार हैं। वे अपने बेजोड़ व्यंग्यात्मक तेवर के सहारे अपनी समूची समकालीनता को खंगालते हुए पाठकीय मानस में चेतना लाकर और परिष्कृत करने की जैसी कोशिश वे करते हैं, वह मुझे अत्यंत पसंद आयी क्योंकि "राजनीति लोक कल्याणकारी दर्शन भी है।" इस विषय पर अब तक किसी ने भी शोध नहीं किया इसलिये मैं "डॉ. हरिशंकर परसाई जी के निबन्धों में राजनैतिक चेतना" विषय पर शोध करना चाहता हूँ।
वीरगाधा काल :
एक अखण्ड राष्ट्रीय भावना वैदिक साहित्य में मिलता है। "जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" जैसी उक्तियाँ समग्र भारत के जन मानस में राष्ट्रीय चेतना का संचार करती रही। सातवीं शताब्दी तक भारत की अखण्ड राष्ट्रीयता सुरक्षित रही। आठवीं शताब्दी से भारत पर विधर्मी-विदेशी लुटेरों के आक्रमण आरंभ हुए, तब से भारत की राष्ट्रीयता विच्छिन्न हुई।
आदिकाल के दरबारी कवियों ने वीर रस की जो काव्यधारा बहाई उसमें उनकी राष्ट्रीय भावना दृष्टिगोचर होती है। पृथ्वीराज रासों 'हम्मीर रासों', बीसलदेव रासों, आल्हाखण्ड, आदि रचनाओं में राष्ट्रीय भावना एवं राजनैतिक चेतना पायी जाती है।
भक्ति काल :
राजनैतिक पृष्ठभूमि के रूप में भक्तिकाल अनेक विदेशी वंशों के आक्रमणों का काल है। विदेशी शासन, आक्रमण, निराश्रित, अत्याचारों से पीड़ित होती गयी। जड़ दशा से मुक्त कर समाज को सजग एवं चेतनशील बनाना, छूआछूत, जात-पाँत की अवैज्ञानिकता और शोषण से कबीर की भाषा में ज्वाला जैसी, आग भड़कने लगे। कबीर ने मानव को बौद्धिक दासता से मुक्त होने की प्रेरणा दी तथा प्रजा में चेतना शील बुद्धिवाद जगाने का प्रयत्न किया।
रीति काल :
रीतिकाल में श्रृंगार भावना का प्राबल्य रहा। केवल भूषण, लाल सूद ने राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत कविताओं का प्रणयन किया। भूषण की राष्ट्रीय भावना को सांप्रदायिक नहीं कहा जा सकता। उस समय राष्ट्र हिन्दुओं का था। मुसलमान विदेशी शासक थे। अतएव छत्रपति शिवाजी को नायक बनाकर भूषण ने उन विदेशी शासकों के प्रति क्षोभ और असंतोष को व्यक्त किया। शिवाजी की प्रशंसा के मूल में भूषण की यही राष्ट्रीय भावना रही है।
"राखी हिन्दुवानी हिन्दुवान को तिलक राख्यो
स्मृति पुरान राखे वेद विधि सुनी मैं
राखी राजपूती राजधानी राखी राजन की
धरा में धरम राख्यों गुन गुनी मैं"।
कवि भूषण ने अपनी कविताओं में हिन्दू राष्ट्र के उद्धार के प्रतीक शिवाजी और छत्रसाल जैसे राजाओं के सत्कर्मों की प्रशंसा करके, जनता में राजनैतिक चेतना लाये।
आधुनिक काल :
अंग्रेज़ी शासक, औद्योगिक उत्पादन भारतीय बाजारों में लाकर, परंपरागत उत्पादकों को समाप्त कर दिया, जिसका प्रभाव घरेलू उद्योग पर पडा। अंग्रेज़ों ने ज़मींदार को सभी हक़ प्रदान करते हुए किसानों को नौकर में बदल दिया। बाद में वे भारतीयों पर अनेक जुल्म ढ़ाने लगे। द्विवेदी युग में भारतीय नवजागरण के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना आदि कविता के मुख्य विषय बनें। जयशंकर प्रसाद ने अपने काव्य में निम्न गीत के द्वारा जनता में राजनैतिक चेतना जगायी थी।
हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयं प्रभा समुज्वला स्वतंत्रा पुकारती .....
पण्डित माखन लाल चतुर्वेदी की कविता....
चाह नहीं मैं सुर बाला के,
गहनों में गूँथा जाऊँ।
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मुझे तोडलेना वनमाली,
उस पथ में देना तुम फेंक,
मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें, वीर अनेक।
माखनलाल चतुर्वेदी जी की राजनैतिक चेतना में सर्वत्र विद्रोह की पुकार गूंजने लगती है। अंग्रेज़ शासकों के शोषण से भारत की दुर्दशा से आकुल हो वे बार-बार क्रान्ति का आह्वान करते हैं-
"सूरज सावधान हो जाओ,
मातृभूमि तुम धर लो धीर।
पश्चिम ! तू भी शीघ्र संभल ले
नीति बदल, बनजा गंभीर।।"
इसी युग में कवि श्री बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' ने भी क्रान्ति का स्वागत किया है-
"कवि कुछ ऐसी तान सुना दो,
जिस से उथल-पुथल मच जाये"
निबन्ध का अर्थ :
निबन्ध शब्द का अर्थ विशेष या पूरी तरह किसी वस्तु या पदार्थ को बाधाने के लिये प्रसिद्ध है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार "निबन्ध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबन्धों में ही अधिक संभव है।"
राजनीति का अर्थ :
अरस्तु के अनुसार "मानव एक राजनैतिक प्राणी और समाज उसका कार्यक्षेत्र है।" सभी सामाजिक शास्त्रों में राजनीति शास्त्र महत्व पूर्ण शास्त्र है। भारत के नागरिकों को अपने अधिकारों अथवा कर्त्तव्यों के प्रति सदा सचेत रहना चाहिए।
लेखक परिचय : श्री हरिशंकर परसाई
नाम : श्री हरिशंकर परसाई
जन्म : 22 अगस्त 1924
जन्म स्थान : ज़मानी गाँव, होशंगाबाद जिला, मध्य प्रदेश ।
शिक्षा : नागपुर विश्व विद्यालय में हिन्दी में एम.ए., फिर "डिप्लोमा इन टीचिंग"। अपने महत्वपूर्ण अवदान के लिये जबलपुर विश्व विद्यालय से डी.लिट्. की मानद उपाधि। कई अन्य पुरस्कारों के अतिरिक्त 1982 में "साहित्य अकादमी पुरस्कार" से सम्मानित । विश्व शान्ति सम्मेलन (1962) में भारतीय प्रतिनिधि मण्डल के एक सदस्य के नाते सोवियत रूस की यात्रा।
निधन : 10 अगस्त 1995
प्रकाशित : हँसते हैं रोते हैं, भूत के पाँव पीछे, पुस्तकें तब की बात और थी, जैसे उनके दिन फिरे, सदाचार का ताबीज़, पगडंड़ियों का ज़माना, रानी नागफनी की कहानी, वैष्णवकी फ़िसलन, शिकायत मुझे भी है, अपनी- अपनी बीमारी, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, निठल्ले की डायरी, मेरी श्रेष्ट व्यंग्य रचनाएँ (संकलित), बोलती रेखाएँ, और अंत में, तट की खोज, माटी कहे कुम्हार से, पाखंड का आध्यात्म, सुनो भई सधो तथा विकलांग श्रद्धा का दौर। इनकी रचनाओं का अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी में, मलयालम में सर्वाधिक 4 पुस्तकें।
रामायण मेला :
परसाई जी इस निबन्ध के द्वारा वह संशय प्रकट करते हैं कि 'रामायण मेला' जैसे आध्यात्मिक समारोह की प्रेरणा देने में निरीश्वर वादी डॉ. लोहिया की नज़र संस्कृति के सिवा राजनैतिक लाभ की भी रही होगी। लेखक कहते हैं 'चित्रकूट से लगे तीन विधान सभा क्षेत्र और एक लोक सभा क्षेत्र वहाँ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सामंती राजनीति भी मिलती है।'
हरिशंकर परसाई जी इस निबन्ध के द्वारा इस सम्मेलन का सरोकार न हिन्दू जाति से है, न हिन्दू धर्म से, न हिन्दू संस्कृति से, बल्कि गैर हिन्दू के प्रति उकसाकर राजनैतिक लाभ उठाने का एक षड्यंत्र था। मगर वे नहीं जानते कि "राजनीति लोक कल्याणकारी दर्शन भी है।"
विश्व हिन्दी नौटंकी :
इस निबन्ध के द्वारा परसाई जी प्रो. स्केमेल और प्रो. चेलीशेव के कथन का समर्थन करते हैं "पहले अपने देश में हिन्दी भाषा को मान्य भाषा बना लीजिए, फिर उसे अंतर्राष्ट्रीय"। लेखक का कहना है कि पहले हिन्दी को देश के भीतरी मामलों में संपर्क भाषा बनालो। झगड़ा मान्यता का शासकीय स्तर पर, वे कहते हैं कि "हम अपने जड़ों से उखड़ रहे हैं", क्योंकि अंग्रेज़ी के इतने किंडरगार्टन स्कूल। यह सम्मेलन मुख्यतः रत्नाकर पाण्डे, सुधाकर पाण्डे जैसे काँग्रेसी राज्य सभा के सांसद अपने राजनैतिक भविष्य के लिये इन्दिरागाँधी जी की प्रशंसा में, इन्तजार में, शुरु हुआ और उनके जाते ही खत्म हुआ।
नैतिकता का मोल :
इस निबन्ध के द्वारा लेखक कहते हैं कि राजनीति से दूर होने की कोई लेखक कितनी भी घोषणा करे, वह राजनीति में है और उन लोगों से घटिया, गंदी राजनीति में है जो अपनी राजनीति की खुली घोषणा करते हैं। वे कहते हैं व्यवस्था ? व्यवस्था तो समाजवाद के नाम से पूँजीवाद है। जो इसके विरोधी है, वे इसको बदलने का संघर्ष करें।
"भारत में वर्तमान संविधान से समाजवाद नहीं आ सकता" भारत के प्रधान न्यायाधीश चन्द्रचूड़ । लेखक कहते हैं कि जो समाजवाद विरोधी है, पूँजीवाद को स्वीकारते हैं, वे पूँजीवाद के नैतिक मूल्यों को स्वीकारें। ये नियम स्पष्ट है जहाँ से जो मिल सके झपटो, पैसे को भगवान मानो, कालाधन कमाओ, घटिया माल बेचो, काला बाज़ारी करो। परसाई जी कहते हैं कि - चोर, चोर को 'चार्जशीट' नहीं देता।
लेखक 'सत्ता प्रतिष्ठान' के बारे में कहते हैं कि "आर्थिक शक्ति ही राजनैतिक सत्ता प्रतिष्ठान बनाती है।" उनका कहना है कि एकाध सम्मेलनों में मुख्यमंत्री ने क्रांतिकारी भाषण दे डाला - "सर्वहारा की क्रान्ति, भेद की दीवारें तोड़ दी जायें इत्यादि। ये चतुर राजनीतिज्ञ हैं।" उन्होंने कहा है - भेद की दीवारें तोड़ दीजिए। अब आप दीवार तोड़ने जाये तो यहीं आप पर लाठी चार्ज करायेंगे।
संस्कृति की रक्षा :
इस निबन्ध में परसाई जी देश के राजनैतिक परिस्थितियों के बारे में प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि "हर राज्य में विधायक बिकाऊँ हो गया है। जो गुट से दो-चार लाख दे दे, मंत्री या उपमन्त्री बनादे, पैसा खाने की छूट मिल जाय, तो वह वहाँ चला जायेगा। कहाँ सिद्धांत, कहाँ कार्यक्रम, कहाँ ईमान ?
भारत में राजनैतिक 'विपक्ष' नाम की कोई चीज़ नहीं है। विकल्प नाम की कोई चीज़ नहीं है। सिद्धांत, नैतिकता, मूल्य, ईमान सब राजनीति से गायब हो चुके। राजनैतिक संस्कृति सड़ चुकी । परसाई जी का कथन है कि इस समय एक ही जीवन मूल्य रह गया है - सही या गलत तरीके से बिना मेहनत के, छल, कपट, भ्रष्टाचार से पैसा कमाओ। एक ही संस्कृति है-बेईमानी से पैसा इकट्ठा करना। जहाँ देखो वहाँ भ्रष्टाचार, योजनाओं का लोहा, सीमेंट, काला बाज़ार में बिकता है। मामूली इंजनीयर पाँच साल की नौकरी में बँगला बनाता है, सरकारी इमारत दो साल में टूटने लगती है।
पर्दे के राम और अयोध्या :
इस शहर में सड़क से निकल रहा था। कालेज का समय था। आज भी जगह-जगह लड़कियाँ छेड़ी जा रही थीं। उन्हें धक्का देकर गिराया जा रहा था। मगर आसपास के लोग ऐसे चले जा रहे थे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो।
मुझसे चुप रहते न बना और मैं ने एक आदमी से पूछ लिया "नारी की इज्जत लूटी जा रही है और तुम सैकड़ों लोग विरोध नहीं करते, उनकी रक्षा नहीं करते। तुम लोक क्या नपुंसक हो?"
समाज में आये दिन होनेवाली आभूषण चोरी पर प्रकाश डालते हुए लेखक हरिशंकर परसाई जी कहते हैं कि- "बस में ये औरतों की चेन छीन लेते हैं, अगर बस में बैठे चालीस-पचास आदमी सिर्फ चिल्लाये, तो भी ये डरकर ढेर हो जायें। पर कोई चिल्लाता भी नहीं है।"
उपसंहार :
हाल ही के दशक में निकली सूचना का अधिकार-2005 से पहले ही लेखक डॉ. हरिशंकर परसाई जी ने अपने समय में दुनिया के कुछ हिस्सों में उठ रही-जानकारी का अधिकार की पूर्ति अपने निबन्धों के माध्यम से करते हुए सामान्य जनमानस में राजनैतिक चेतना लाने में सक्षम भूमिका निभाते रहे फलस्वरूप उन्हें अपने विशिष्ट योगदान के "सामाजिक परिवर्तन के लिए लेखन तथा संघर्ष हेतु" पुरस्कृत किया गया।
लेखक डॉ. हरिशंकर परसाई जी के निबन्ध सामान्य जन मानस में राजनैतिक चेतना लाने में अब भी उतनी ही प्रासंगिक बनी हुई है, जितनी की तब। इसलिए मैं इस विषय पर शोध करना चाहता हूँ।
- डॉ. ए. वेंकट नायक
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