Portrait of the oppressed and the afflicted in Dinkar's poetry
दिनकर के काव्य में शोषित - पीड़ितों का चित्रण
महान कवि काल की सीमाओं में बँधते नहीं उन सीमाओं का वे अतिक्रमण करते हैं। वे शाश्वत और सार्वभौम सत्यों का सौंदर्यमय तथा यथार्थ व्याख्यान करते हैं। यही कारण है कि, देशकाल और परिवेश के बंधनों को तोड़ता हुआ उनका काव्य कालजयी हो जाता है और वह कवि भी काव्य जगत् में कालजीवी बन जाता है। परंतु जो कवि अपने युग की पीड़ा, समस्या, परिस्थिति एवं परिवेश का अनुभव करके उसे अपनी सृजनात्मक शक्ति द्वारा अभि- व्यक्ति नहीं दे सकता वह कालजयी साहित्य की रचना नहीं कर पाता। देश की सीमा पर तैनात जवान जिस तरह देश पर आनेवाली हर समस्या तथा कठिनाईयों का डटकर मुकाबला करने के लिए कन्धे पर बंदूक ताने खड़ा रहता है तथा अपनी पैनी दृष्टि रखता है ठीक उसी तरह एक कालजीवी रचनाकार समाज में घटित होनेवाली हर घटनाओं के प्रति युग सापेक्ष दृष्टि का निर्वाह करते हुए उसकी जब रचनात्मक अभिव्यक्ति कर देता है तब वही रचनाकार अमर हो जाता है।
आधुनिक हिंदी साहित्य में अमर काव्यशिल्पी, राष्ट्रीय काव्यधारा के अग्रदूत तथा व्यष्टि और समष्टि के सांस्कृतिक सेतु रामधारी सिंह दिनकर जी का स्थान हिंदी साहित्य में महनीय है। उनके काव्य की भावभूमि अपने आप में किसी दायरे में बँधे हुये तालाब की तरह न होकर वह व्यापक समंदर की भांति राष्ट्रप्रेम, नारी चित्रण, जनवादी स्वर, विद्रोही भावना, समाजवादिता, परिवारवादिता के साथ प्रगतिवादी चेतना तथा शोषित-पीड़ितों के चित्रण को जितनी प्रखर मात्रा में अभिव्यक्ति मिली है उतनी अन्यत्र दुर्लभ है।
वैसे देखा जाये तो हिंदी साहित्य के इतिहास में दलित, पीड़ित, शोषितों के विसंगतिपूर्ण जीवन को लेकर आत्मीयतापूर्ण ढंग से लिखने की परंपरा भक्तिकालीन संत कवि कबीर, सूर से आरंभ होती है। तो आधुनिक काल में कथा सम्राट प्रेमचंद जी द्वारा इस परंपरा का श्री गणेश हुआ है, और यह परंपरा आगे चलकर राष्ट्रीय काव्यधारा तथा प्रगतिवादी काव्यधारा में अपने चरम शिखर पर पहुँची इसमें कोई संदेह नहीं है।
राष्ट्रीय कवि दिनकर जी का काव्य अनेक सोपानों को लेकर चलता है, एक ओर वे राष्ट्रीय भावना को जागृत करते है तो दूसरी ओर प्रगतिवादी तथा विद्रोही विचारों के माध्यम से शोषित-पीड़ित का करुण गान करते हुए उन्हें निचली सतह से ऊपरी सतह तक पहुँचाने का सार्थक प्रयास करते हैं। वे कहते हैं कि समाज में कोई बड़ा या कोई छोटा नहीं होना चाहिए, कोई शोषक या कोई शोषित नहीं होना चाहिए। मानव जीवन मिला है तो मानवता को केंद्र में रखकर ही जीना चाहिए। इसीलिए दिनकर कहीं भी महापुरुष या महामानव होने का दम नहीं भरते वे मसीहाई मुद्राएँ ओढ़कर जीना नहीं चाहते बल्कि, आदमी के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलना चाहते हैं।
"मैं दानव से छोटा नहीं,
न वामन से बड़ा हूँ।
सभी मनुष्य एक ही मनुष्य है,
सबके साथ मैं अलिंगन में खड़ा हूँ।"
दानव से तुच्छ और वामन से महान बनने का दावा करने से निश्चित रूप से मनुष्यता आहत् होती है। यहाँ पर दिनकर यथार्थवादी दृष्टि से शोषक- शोषित का भेद मिटाना चाहते हैं। कहीं-कहीं पर दिनकर जी नारी पर होने वाले अन्याय अत्याचार तथा शोषण के बिंब को इतनी यथार्थता से प्रस्तुत करते हैं मानो वह घटना प्रत्यक्ष हमारे सामने घटित हो रही हो जैसे- "लपटों से लज्जा ढको कहाँ हो ! धधकी-धधकी और अनल !
कब तक ढंक पायेंगे इसको रमणी के दो छोटे करतल । नारी का शील गिरा खण्ड़ित कौमार्य गिरा लोहू लुहान; भगवान भानु जल उठे क्रूध चिंघार उठा यह आसमान।"
यहाँ पर 'रमणी द्वारा अपनी छोटे-छोटे करतलों द्वारा अपनी लज्जा ढंकने का प्रयास,' 'कौमार्य लहू लुहान होकर गिरना,' 'सूर्य का जल उठना,' और 'आसमान का चिंघार उठना,' यह बिंब साम्प्रदायिक दंगों में नारी पर हुए अन्याय, अत्याचार एवं शोषण को आवेग तथा संवेदनात्मक रूप प्रदान करता है।
दिनकर जी नारी शोषण के साथ-साथ कृषक जीवन के शोषण का चित्रण भी बड़ी यथार्थ ढंग से करते हैं। यह चित्रण ही उनकी पैनी दृष्टि का परिचायक है जैसे-
"श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक आकुलाते है, माँ की हड्डी से चिपक-ठिठुर, जाड़े की रात बिताते है,
युवती की लज्जा-वसन बेच जब ब्याज चुकाये जाते है,
मालिक जब तेल फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते है।"
उपर्युक्त उद्धरण में दिनकर जी ने समाज की अत्यंत विसंगत स्थिति को सामने रखा है जिसमें शोषक वर्ग के पास इतनी संपत्ति है कि, उनके पालतू कुत्तों को दूध-वस्त्र सहज रूप से मिलता है परंतु किसान खून-पसीना बहाकर दिन-रात मेहनत करते हुए भी उनके बच्चे भूखे मरते हैं, तन ढंकने के लिए अथवा जाड़ों के दिनों में ओढ़ने के लिए कंबल तक उनके नसीब नहीं होता। इतना ही नहीं उन्हें तो ब्याज चुकाने के लिए अपनी जवान लड़कियों की लज्जा या इज्जत तक बेचना पड़ता है। जिसके चलते उत्पादक भूखों मरता है और संपन्न वर्ग किसान की खून-पसीने की कमाई को पानी की तरह बहाता है। निर्धनता और ऐय्याशी की इस निर्लज्ज विषमता को कवि ने अभिव्यक्ति दी है।
इतना शोषण होने के बाद भी हमारा कृषक वर्ग शोषकों का शोषण सहने का अभ्यस्त है क्योंकि, वह शरीर से कठोर परिश्रम का पुजारी होते हुए भी संस्कारों से दैववादी है। दिनकर ने किसान की शोषित-पीड़ित स्थिति की भयावहता को बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है, यथा-
"जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है;
छूटे बैल के संग, कभी जीवन में ऐसा याम नहीं है मुख में जीभ, शक्ति भूज में, जीवन में सुख नाम नहीं है,
वसन कहाँ? सुखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं।"
इससे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि, दिनकर जी ने किसान की शोषित-पीड़ित तथा दयनीय स्थिति का जो चित्रण किया है वह आज भी प्रासंगिक लगता है क्योंकि, आर्थिक अभावों से जर्जर किसान इस स्थिति से गुजरते हुए मौत को गले लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं।
जहाँ तक दलित तथा उपेक्षितों के शोषण का विषय है, वहाँ पर भी कवि की चिंतन परक दृष्टि अभिव्यक्त हो उठती है। जैसे वे लिखते हैं कि- "यह युग दलितों और उपेक्षितों का उद्धारक युग है। अतयव यह बहुत स्वाभाविक है कि, राष्ट्र-भारती के जागरुक कवियों का ध्यान उस चरित की ओर जाए जो हजारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का एक मुख प्रतीक बनकर खड़ा रहा है।"
इस तरह दिनकर जी स्वयं दलित-पीड़ित, उपेक्षित की ओर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं और साथ ही अन्य सभी कवियों को भी उनकी ओर आकृष्ट होने के लिये आवाहन करते हैं। इससे पता चलता है कि, दिनकर जी को दलित, पीड़ित और शोषितों के प्रति गहन आस्था रही है। इसलिए दीन-हीन हरिजनों की दुर्दशा पर कवि बोधिसत्व को आवाहन करना नहीं भूलते जैसे -
"अनाचार की तीव्र आंच में अपमानित अकुलाते हैं, जागो बोधिसत्व ! भारत में हरिजन तुम्हें बुलाते है।"
इस जाति-प्रथा ने मनुष्य-मनुष्य के बीच कितनी बड़ी विषमता की खाईयाँ उत्पन्न कर दी हैं, जिसके कारण उच्च कुलीन या उच्चजाति के लोग निचली जाति के लोगों पर किस तरह से अन्याय अत्याचार कर उनका शोषण कर रहे हैं उसको प्रतिपादित करते हुए 'रश्मिरथी' के कर्ण के माध्याम से इस स्थिति में से मुक्ति दिलाने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि महाभारत के कर्ण और दिनकर की 'रश्मिरथी' के कर्ण में काफी अंतर है। महाभारत के कर्ण को जाति के विषय में अपनी अकुलीनता के कारण निरुत्तरित होना पड़ता है किन्तु, 'रश्मिरथी' का कर्ण महाभारत का कर्ण न होकर वह दिनकर की मानसी सृष्टि है। कर्ण शौर्य के परख के इस निर्लज्ज और असंगत मानदण्ड़ की बात पर अपनी समस्त तेजस्विता, खीज और दर्प के साथ फूट पड़ता है-
"जाति ! हाय री जाति ! कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला; कंपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला; जॉति-जॉति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड़, मैं क्या जानूं जाति ? जाति है मेरी यह भुजदण्ड़।"
कर्ण का यह उत्तर समाज की रुढ़िगत तथा शोषण परक व्यवस्था पर पौरुष की विजय है। इस तरह दिनकर जी ने अपने काव्य में दलित, पीड़ित, शोषित एवं उपेक्षितों के जीवन के संदर्भ में मर्मांतक अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने केवल मर्मांतक अभिव्यक्ति ही नहीं की बल्कि, इस विषम स्थिति से उन्हें बाहर निकलने के लिए आवाहन भी किया है। इसी कारण हिंदी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर अमर काव्यशिल्पी एवं कालजीवी रचनाकार के रूप में प्रख्यात रहे हैं।
संदर्भ ग्रंथ सूची :
1. राष्ट्रीय कवि दिनकर और उनकी काव्य कला डॉ. शेखर चंद्र जैन
2. दिनकर और मिथक - डॉ. दिनेश कुमार शर्मा
3. दिनकर के काव्य में परंपरा और आधुनिकता- डॉ. जयसिंह नीरद
4. दिनकर की राष्ट्रीयता – डॉ. तारकनाथ बाली
5. रश्मिरथी - रामधारी सिंह दिनकर
प्रा. कदम भगवान रामकिशन राव
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