Uttarshati Ke Hindi ke Pramukh Aanchalik Upanyas
सर्वाधिक महत्व राजनीतिक चेतना का हिंदी उपन्यास साहित्य में है, मानव जीवन की सच्चाई को आंचलिक उपन्यासों ने अति सूक्ष्म एवं कलात्मकस्तर पर निरूपित करने का प्रयास किया है। आज उत्तरशती हिन्दी उपन्यास साहित्य में आँचलिकता की समस्याओं के बारे में विस्तृत रूप से इस आलेख में चर्चा करेंगे।
Table of Contents;
• हिन्दी उपन्यास और आँचलिकता की अवधारणा
• राष्ट्रीय चेतना पर आधारित हिन्दी उपन्यास
• पूंजीवादी व्यवस्था का विकास
• गांधीवादी दृष्टिकोण
• अंचल क्षेत्रों में व्याप्त बहुमुखी राजनीति
• समाजवादी विचारधारा का चित्रण
• वर्ग संघर्ष की समस्या
• युग चेतना का चित्रण
• मूल्यों में परिवर्तन
• ग्रामीण अंचल निवासियों की समस्याएँ
• निष्कर्ष (Conclusion)
• संदर्भ (References)
• FAQ (Frequently Asked Questions)
इस आर्टिकल में हिंदी के आंचलिक उपन्यासकार कौन है और उनके आंचलिक उपन्यास कौनसे हैं, आंचलिक साहित्य क्या है, आंचलिक शब्दों से क्या अभिप्राय है, आंचलिकता से आप क्या समझते हैं आदि सभी के बारे में जानकारी दी गई है, तो चलिए पढ़ते हैं उत्तरशती के हिन्दी उपन्यास और अंचलिकता के बारे में विस्तार पूर्वक।
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• Uttarshati Ke Hindi Upanyas : उत्तरशती के हिन्दी उपन्यास
• समकालीन हिन्दी उपन्यासों में चित्रित ग्रामीण राजनीति
उत्तरशती के हिंदी उपन्यासों में आँचलिक समस्याओं का चित्रण
समसामायिक राष्ट्रीय परिस्थितियों में हिंदी के आंचलिक उपन्यास साहित्य में राजनीतिक चेतना का सर्वाधिक महत्व है। आंचलिक उपन्यासों ने मानव जीवन की सच्चाई को अति सूक्ष्म एवं कलात्मकस्तर पर निरूपित करने का प्रयास किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से उपन्यास साहित्य का सृजन ऐसे काल में हुआ, जब भारतीय मानव के जीवन में अनेक परिवर्तन आ रहे थे। स्वतंत्र्योत्तर काल में ग्रामीण समाज में उन्नति और विकास के अनेक द्वार खुल गये थे। एक ओर पूंजीवाद और जमींदार प्रथा अंतिम सांस ले रही थी एवं उसके स्थान पर प्रजातांत्रिक युग की नवीन एवं प्रेरणादायक समाजवादी संस्थाएँ अपना स्थान ग्रहण कर रही थी। नव चेतना एवं नव जागरण के परिवर्तन-शील दिशा में राजनीतिक चेतना से हिंदी के आंचलिक उपन्यास साहित्य को विशेषवाणी प्रदान की है। नवीन ग्रामीण योजनाएँ नव निर्माण के अनेक कार्य पिछड़े ग्रामीण समाज की जर्जर दशा को सुधारने हेतु आगे आई। आंचलिक उपन्यासकारों ने अपने परिवेश की जनता की आस्थाओं, जीवन पद्धतियों, कार्य प्रणालियों, संस्थाओं, वैचारिक संगतियों एवं विसंगतियों, मान्यताओं एवं लोक संस्कृति आदि की मृत्तिका से अपने साहित्य का निर्माण कर उसे आगामी मानवता के लिए वर्तमान ग्रामीण एवं जनजातीय जनता के जीवन का स्मारक स्तम्भ बना दिया है। यदि किसी विद्वान की यह सूक्ति सत्य है कि "ज्ञान- विज्ञान की इतर शाखाओं समाजशास्त्र, मानव शास्त्र एवं इतिहास की अपेक्षा किसी कालखण्ड एवं स्थान के संबंध में उसका साहित्य अपेक्षा कृत अधिक प्रामाणिक जानकारी दे सकता है तो औपन्यासिक विधा समसामायिक ग्रामीण एवं जनजातीय समाज की सच्चे अर्थों में सांस्कृतिक गाथा प्रामाणित होगी।'¹
राष्ट्रीय चेतना पर आधारित उपन्यास : जागरण मन्मथनाथ गुप्त द्वारा रचित राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का विस्तृत चित्रांकन है। लेखक ने उपन्यास की भूमिका में कहा है- "जिस काल पर इस उपन्यास का ताना-बाना प्रस्तुत किया गया है वह हमारे आधुनिक इतिहास का एक अत्यंत गौरवमय अध्याय है। यह वह समय है अब महात्मागांधी भारतीय राजनीति के जगत में उदित हुए और एक ही छलांग में आकाश के सर्वोच्च बिन्दु पर पहुंच गए। उनके प्रकाश के आगे युग-युग की कालिमा, मानसिक आलस्य, असाहयता की भावना, समष्टि के स्वार्थ के आगे व्यक्ति के स्वार्थ को प्रधानता देना, साम्प्रदायिकता, कायरता सब दूर हो गई।"² इस तरह 'जागरण' भारतीय जागरण के उस त्याग और तपस्या की कथा है जिसकी बागडोर महात्मागांधी के हाथों में थी।
'कितने चौराहे' फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा रचित उपन्यास है जिसमें स्वतंत्रता पश्चात की विशृंखलित दशाओं में निर्मित एक मध्यम वर्गीय परिवार के किशोर के देशभक्तिपूर्ण व्यक्तित्व की कथा है। "प्रांतीयता, साम्प्रदायिकता आदि से निरपेक्ष रहकर देश और देश का काम करने की भावना को किशोरों के मन में दृढमूल करने के लिए यह उपन्यास लिखा गया है।''³ 'कितने चौराहे' में यह दर्शाया गया है कि किसी भी व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र को अपना मार्ग प्रशस्त करने के लिए कितने चौराहों से गुजरना पड़ता है।
राही मासूम रज़ा द्वारा रचित 'आधा गाँव' भारत विभाजन की कटुता से ओतप्रोत है। उपन्यास के केन्द्र में एक ही गांव है जो आधा है जिसे लेखक ने जिया है। गंगोली गांव उत्तर पट्टी और दक्षिण पट्टी में बंटा है। इस गांव में जमींदारों के गुट बने हुए हैं जो रात को डाका और दिन को मुकदमा लड़ते हैं। 1942 के भारत छोडो आंदोलन की स्पष्ट छाप इस उपन्यास पर है। उपन्यास में गांव की टूटती जिन्दगी का दिग्दर्शन हुआ है। अर्थाभाव, मानव मूल्यों का पतन, एकाकीपन को गांव में फलते- फूलते देखा जा सकता है। ग्राम्य जीवन के विघटन का स्पष्ट संकेत है जो राष्ट्रीय पीड़ा बनकर हमारे सामने उपस्थित हुआ है।
आज़ाद भारत में पूंजीपति वर्ग सुविधा की टोह में और अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए खादी पहनकर कांग्रेसी बन गया। जयसुखलाल अपने मित्र सेठ राधेश्याम से कहता है- "अरे हम लोगों को खददर पहनना पड़ेगा, युद्धकाल में हम लोगों ने जो करोड़ों रुपया कमाया है, उसे बरकरार एवं कायम रखना है। आगे चलकर देखना यही कांग्रेसवाले मिनिस्टर बनेंगे, राज करेंगे और इनका हमला हम पैसेवालों पर होगा। इस सबके पहले हम लोग खुद कांग्रेस मैन बन जाएँ फिर देखे यह कैसे हम पर हमला करते हैं।"⁴
गांधीवादी दृष्टिकोण : रेणु की 'मैला आंचल' पूर्णिया जिले के एक गांव मेरीगंज की जिन्दगी की वह कथा है जिसमें जीवन के प्रत्येक चढ़ाव उतार है, वहीं राजनीतिक दांव पेंच है तो कही जीवन की नैतिक, अनैतिक स्थितियों के साथ गांव में होनेवाले विभिन्न परिवर्तनों का सूक्ष्म एवं यथार्थ चित्रण है। राजनीतिक स्थिति गांव में इस प्रकार फैली हुई है कि मानो गांव के लोगों का एक अंग बन गई है। उपन्यास में अन्य राजनीतिक दृष्टिकोण के साथ गांधीवादी विचारधारा का सच्चा अनुयायी है। वह गांधीवाद के सत्याग्रह, अहिंसा, मानवसेवा, प्रेम हृदय परिवर्तन आदि सिद्धान्तों में विश्वास रखता है। वास्तव में बावनदास का जीवन पदलोलुप अवसरवादी नेताओं से भिन्न है, जो केवल सत्ता को हथियाने में आगे रहते हैं। डॉ. क्रान्ति वर्मा के बिचार बावनदास के संदर्भ में इस प्रकार है-"मैला आँचल में बावनदास के विफल बलिदान की एक बड़ी विवश और करुण छाया है। गांधीयुग के मूल्य स्वातंत्र्योत्तर युग में आकर किस प्रकार अकस्मात्त निष्फल सिद्ध हो गये और एक विचित्र से नैतिक शून्य का सामना भारतीय मानस को करना पड़ा इसका सफल चित्रण इस उपन्यास में हुआ है।"⁵ मैला आंचल में मानवता-वाद की जो स्थापना प्रेम, अहिंसा से करने की बात कही गई है वह विशुद्ध गांधीवादी भावना पर आधारित है।
देवेन्द्र सत्यार्थी रचित 'रथ के पहिये' उपन्यास में गांधीवादी सिद्धांतों के अंतर्गत आदिवासियों की सेवा का प्रभाव आनन्द और सोम पर स्पष्ट परिलक्षित होता है। तभी तो वह कहता है कि "मैं सोचता हूँ कि यही समय है कि गोंडों की जीवित संस्कृति का अध्ययन किया जाए और हो सके तो उसे आधुनिक सभ्यता के हाथों मिटने से बचाया जा सके।"⁶ अतः लेखक ने आनन्द के माध्यम से आदिम सभ्यता की उन्नति में ही मानव के विकास और प्रगति की आशा व्यक्त की है।
पूंजीवादी व्यवस्था का विकास : स्वतंत्रता के पश्चात उद्योग-धंधों को अधिक प्रोत्साहन मिला जिससे असहाय और निर्बल उसी हालत में रह गए और असमर्थों से अधिक समृद्धों को संरक्षण और सुविधा प्राप्त हो गई। गांवों के विकास के बजाय नगरों का ही विकास होने लगा, जिसमें पूंजीपति नेता, अधिकारीगण, कर्मचारी क्रमशः अपनी शक्ति बढ़ाने लगे और सर्वत्र उन्हीं का बोलबाला होने लगा।
'मैला आंचल' में राजनीतिक युगबोध को लेकर रेणुजी ने विभिन्न मतवादों के भीतर से गांव की लोक चेतना को वर्गों में बंटता हुआ दिखाया है। रेणुजी ने पूंजीवादजन्य आर्थिक विषमताओं के बीच गांव की वेदना, गांव की सच्चाई का रहस्योद्घाटन किया है। भैरव प्रसाद गुप्त का 'सती भैया का चौरा' सामंतीय एवं पूंजीवादी वर्ग की असंगतियों एवं अत्याचारों का सफल चित्रण है, जिसके विरुद्ध किसानों तथा मजदूरों के संघर्ष और उनके हारजीत का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है। पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतिनिधि, मजदूरों के नेता मुत्री है जो पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष करते हैं, मुन्त्री मजदूरों को पूंजीपतियों के चुंगल से बचने का रास्ता बताते हुए कहते हैं कि- "वे अपनो हाथ बढाकर एक दूसरे का हाथ थाम लें और आगे बढ़े तो यह जंगल साफ हो सकता है।"⁷ पूंजीपतियों ने मज़दूरों को कम पारिश्रामिक देकर दुगुनी-चौगुनी पूंजी का लाभ उठाया और ऐश आराम करता रहा।
अंचल क्षेत्रों में व्याप्त बहुमुखी राजनीति : आज़ादी के बाद लोगों में बहुधा यह विचार था कि स्वतंत्र व्यक्तित्व होगा और देश की व्यवस्था अपने ही हाथ में होगी किंतु इनका यह विश्वास केवल विश्वास ही रहा, सभी आशाओं पर पानी फिर गया, क्योंकि आज़ादी के बाद ज़मींदारों के स्थान पर किसानों के साथ नेतागण, सरकारी कर्मचारियों की सांठ-गांठ से एक ऐसा वर्ग पनपने लगा जो गांवों में दलबन्दी साम्प्रदायिकता फैलाता रहा। परिणाम स्वरुप राजनीतिक भ्रष्टता, अनैतिकता को प्रश्रय मिला।
रामदरश मिश्र का 'जल टूटता हुआ' तिविरपुर गाँव के परिवेश और राजनीतिक सच्चाई का यथार्थ चित्रण है। गाँव में व्याप्त राजनीति का बड़ा ही अनोखा बोलबाला है जो ग्राम पंचायत चुनाव के समय साकार हो उठता है, जन विरोध, दलबन्दी, अवसरवादिता भ्रष्ट एवं दल दल में फंसी नीति के बजाए स्वस्थ समाज का निर्माण कही नहीं बल्कि सर्वत्र जनसाधारण में हीनता की भावना है।
मधुकर सिंह का 'सबसे बडा छल' उपन्यास वास्तविक रुप से आपात स्थिति लागू होने के पूर्व के गांवों की मानसिकता, संस्कृति तथा वर्ग संघर्ष का चित्र प्रस्तुत करता है। बलदेवमहतो जैसे लोग देवता माने जाने के बाद भी उनके पक्ष में कभी जनमत नहीं बन पाया। फरेबी, मक्कार, लुटेरे, हत्यारे और बेईमान लोग गांववालों को आतंकित कर उनका शोषण करते रहते हैं। उपन्यास की मुख्य कथा देवनाथ सिंह के आसपास केन्द्रित है। जो लोग ज़मीन की केंद्रीयता को तोड़ने की बात कहते थे, उन्हें डाकू करार दिया जाता था। देवनाथ का कहना था कि "भूमि उतारु नहीं है... अभी तक जो भी नियम बने हैं, गरीबों को चूसने के लिए हैं। हरित क्रांति से फायदा बड़े किसानों को छोड़कर किसे हुआ है ? राजनीति से हिन्दुस्तान को कोई फायदा नहीं पहुंचा।"⁸
शोषक वर्ग की मनमानी शोषितों का उत्पीड़न, गांवों की राजनीति में नेताओं के अत्याचार, भ्रष्टाचार, मक्कारी, बेईमानी और शहरी राजनीति में नेताओं का पदलोलुप, स्वार्थपरक भ्रष्ट आचरण के उदाहरण सभी उत्तरशती के उपन्यासों में अभिव्यक्त हुए हैं।
समाजवादी विचारधारा का चित्रण : प्रेमचंद के बाद रांगेय राघव एक सशक्त राजनीतिक उपन्यासकार के रुप में समक्ष आए। साथ ही इन्होंने अपने उपन्यासों में समाजवादी विचारधारा को स्थान दिया है।
रांगेय राघव का 'विषादमठ' बंगाल के दुर्भिक्ष की वास्तविकता का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करता है। एक ओर तड़पती भूख से दम तोड़ती मानवता तो दूसरी ओर पूंजीपतियों का मनमाना शोषण हृदय विदारक चित्र प्रस्तुत करता है। वास्तव में पूंजीपतियों की शोषणनीति, स्वार्थपरता के विरुद्ध जन चेतना जाग्रत हुई है। उपन्यास के एक पात्र का कहना है कि "भीख से गरीबी मिटती नहीं, उसकी अवधि वास्तव में बढ़ती है। बंगाल चावल नहीं चाहता, क्रांति चाहता है, अगर नहीं कर सकता तो आज़ाद होने का उसे हक नहीं है। आज़ादी छीननी होगी और भूख से बढ़कर कौन क्रान्ति कर सकता है।"⁹
'विषादमठ' उपन्यास में मनुष्य सर्वत्र निराश्रय और निरुपाय है और पूंजीपतियों के स्वार्थों का साधन है। पूंजीपति वर्ग इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर पनप उठा। जैसे हुजूर उपन्यास में सेठ मटरुमल अंग्रेज सरकार को लड़ाई का चन्दा देता था। दूसरी तरफ कांग्रेस को भी खूब चन्दा देता था। दोनों घोड़ों पर इस सहूलियत से चढ़ता था कि पता ही नहीं चलता था, इसका राज यह था कि अंग्रेजी घोड़ों की दुलती बचाता था और कांग्रेसी घोड़ों के मुंह में घास भरता था।"¹⁰
वर्ग संघर्ष की समस्या : नागार्जुन के 'बलचनमा' तथा 'बाबा बटेश्वरनाथ' तथा भैरव प्रसाद गुप्त की 'गंगा मैया' 'सती मैया का चौरा' आदि उपन्यासों में किसानों का शोषण और सर्वहारा वर्ग संघर्ष की सफल अभिव्यक्ति हुई है।
'कर्मभूमि' की मूल समस्या स्वाधीनता की समस्या है। अछूतों और किसानों की समस्याएँ उसी राजनीतिक समस्या का अंग बनकर चित्रित हुई है। 'कर्मभूमि' की पृष्ठभूमि में सविनय अवज्ञा आंदोलन और उत्तर प्रदेश के किसानों के लगान बन्दी आन्दोलन की गहरी छाप देखी जा सकती है। रामदीन गुप्त के शब्दों में "यही राष्ट्रीय आंदोलन प्रस्तुत उपन्यास का प्रेरणा स्तोत्र है, आधार है। 'कर्मभूमि' में भारत के इस स्वाधीनता संग्राम और तज्जन्य जन जागृति के व्यापक प्रसार का अंकन किया है। इस आंदोलन में हिन्दू और मुसलमान नागरिक और किसान, विद्यार्थी और प्रोफेसर, अछूत और सवर्ण, युवक और वृद्ध, माताएँ और बहिनें, दुकानदार और मजदूर, सभी सक्रिय रुप से भाग लेते हैं। सच्चे अर्थों में जिस विशाल राष्ट्रीय स्तर पर यह आंदोलन लड़ा गया था 'कर्मभूमि' उसकी व्यापक और गहराई का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करता है।"¹¹
आलोच्य उपन्यास में अछूतोद्धार आंदोलन शहर और ग्राम दोनों धरातलों पर उठाया गया है। अछूत समस्या के विविध पहलू हैं और उनमें से एक धार्मिक है। इसका समाधान हरिजनों के मन्दिर प्रवेश तक सीमित है। अछूतोद्धार का दूसरा पक्ष सामाजिक और आर्थिक है, और जो सामाजिक क्रान्ति की अपेक्षा रखता है। प्राचीन समय के चली आ रही अछूत समस्या 'कर्मभूमि' के रचनाकाल में राजनीतिक बन गयी थी।"¹²
युग चेतना का चित्रण : रेणु के 'कितने चौराहे' उपन्यास में युग चेतना स्पष्ट रुप से परिलक्षित हुई है। उपन्यास का प्रमुख पात्र प्रियोदा कहता है कि "बात रोने की नहीं हसने की है... अब देरी नहीं। स्वराज्य करीब आ रहा है धीरे... धीरे... और भी मरेंगे। मारे जाएंगे। "¹³ इस पंक्ति से यह पता चलता है कि युवकों में युग चेतना का तीव्रतम बोध है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ग्रामीण जीवन की समस्याओं का रुप कुछ परिवर्तित ढंग से समक्ष आया। क्योंकि आज़ादी के बाद जमींदारी उन्मूलन के पश्चात किसान और मज़दूरों का अलग ढंग से शोषण होने लगा।
श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' में स्वतंत्रता के बाद जनतंत्रीय दरबार व्यवस्था राजधानियों में नहीं बल्कि गांवों और छोटे-छोटे कस्बों में जनतंत्रीय दरबार की झांकी देखने को मिलती है। गांववाले मुकदमें में भी बड़ी कुशलता से गवाही देते हैं जिसमें अच्छे अच्छे चकरा जाते हैं। गांव की सशक्त पार्टी के विरुद्ध किसी ने विद्रोह किया तो उसका हाल खन्ना मास्टर जैसा होता है जो तिरस्कृत होता है क्योंकि यह जीवन की व्यावहारिकता को नकारता है। वैद्य जी गांव की समस्त गतिविधियों का केन्द्र है, इनकी परिधि से गांव के जाने- माने लोग जुड़े होते हैं। प्रत्येक चरित्र अपनी कहानी के समावेश में दूसरे चरित्र से जुड़ता रह जाता है। इस प्रकार अनेक कहानियों की अन्विति से 'राग दरबारी' की औपन्यासिक कथा बनती है। लोकतंत्र के विभिन्न पहलू समक्ष आए हैं, जिसका प्रस्तुतीकरण व्यंग्य के रुप में किया गया है।
आज देश में स्वार्थपरकता एवं पदलोलुपता के कारण नेता केवल मात्र अपनी ही हित चाहते हैं। यद्यपि चेतना जाग्रत हो रही है, नागरिकों में अधिकारों के प्रति सजगता आ गई है, किन्तु फिर भी ये लोग अपनी लड़ाई लड़ते ही रहते है और उसी में अपना जीवन समाप्त कर देते हैं। अतः आज ऐसे समाज सुधारक नेताओं की आवश्यकता है जो निःस्वार्थ भाव से देश के हित में सर्वोपरि मानकर आगे आए।
मूल्यों में परिवर्तन : नागार्जुन ने जाति और वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी मूल्यों के परिवर्तन को दिखाया है। वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामीजी सूर से कहते है- "वर्ण चेतना अब निर्लज्ज बनकर पछाड़ें खाने का खोखला अभिनय करती है। सीताराम एक अन्य स्थल पर शूद्र कही जाने वाली जातियों के सम्बन्ध में कहता है धन्य हो कालूराम इस कलिकाल में शुद्र जातियों में जितनी भाव वृद्धि है, उत्तनी उच्च वर्णों में नहीं।"¹⁴ इस वर्ण और जाति व्यवस्था विषयक मूल्य विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि नागार्जुन जी वर्णों के अस्तित्व को जन्म के आधार पर न स्वीकार कर कर्म के आधार पर मानते है। नागार्जुन जी वर्ण और जाति व्यवस्था विषयक प्राचीन धारणा का प्रतिकार करते हैं। इनके दृष्टि में वह ब्राह्मण जो पुरानी सामाजिक व्यवस्था में सर्वोच्च माना जाता था, निन्द्य है जो आचरणहीन और विवेकहीन है।¹⁵ जाति और वर्ण के प्रति भेदभाव के इस रवैये को मिटाकर पिछड़े हुए वर्गों को आगे आने के अवसर सुलभ करवाए गए हैं।
नागार्जुन कृत 'बलचनमा' में समाजवादी विचारधारा का सफल चित्रांकन हुआ है। 'बलचनमा' गरीब किसान के संघर्षशील जीवन की कथा है। जमींदारी अत्याचारों से पीड़ित ग्रामीण जीवन का चित्रण करते हुए लेखक ने बलचनमा को उसके विरोध में खड़ा किया। 'बलचनमा' संघर्ष करता हुआ सफलता को प्राप्त होता है जो निम्न पंक्तियों द्वारा स्पष्ट होता है। 'बलचनमा' को बटाई पर बहुत से खेत मिल गए और वह परिश्रम से कमाई करने लगा। इसी बीच जमींदारों की बेदखली से बचने का किसान आंदोलन चला। 'बलचनमा' ने इसमें सक्रिय भाग लिया। वह किसानों की अधिकार रक्षा के लिए बिना किसी भय के जी जान से जुट गया।¹⁶ न कि 'बलचनमा' अत्याचार से भयभीत होकर समर्पित हो जाता है, बल्कि उसके अंतर मन की पुकार उसे विद्रोह करने पर मजबूर करती है। वह अपना रास्ता स्वयं बनाता है और सफल भी होता है। डॉ. रामदरश मिश्र के अनुसार "जन सामान्य में तो किसान, मजदूर, निम्न मध्य वर्ग के पढ़े-लिखे प्रगतिशील दृष्टिकोण के लोग सब ही है। अतएव नागार्जुन जन सामान्य के जीवन की आर्थिक विषमता, पीडा, अभाव, अपमान संघर्ष को यथार्थवादी दृष्टि से उभारता है और उन्हें नई चेतना में बनते हुए नए मूल्यों और स्थितियों की विभिषिका को चित्रित करता हुआ सर्वत्र उसमें उभरती दरारों को अनावृत करता है तथा नए क्षितिजों की ओर संकेत करता है।"¹⁷ ये नवीन क्षितिज शोषण का प्रतिकार है जिसके लिए आदर्शवादी या सुधारवादी दृष्टिकोण नहीं है, बल्कि समाजवादी दृष्टिकोण है।
'बलचनमा' अत्याचार से भयभीत नहीं होता वह निरन्तर संघर्ष करता है आगे बढ़ता है और अपनी भूमि पर अपना अधिकार चाहता है वह कहता है। "जमीन नहीं छोड़ेगे, चाहे कुछ हो जाए।"¹⁸ इस तरह 'बलचनमा' की लड़ाई अस्तित्व की लडाई है जो क्रांति करने के लिए मजबूर करती है। अपने अधिकारों के प्रति नयी चेतना की ओर संकेत करती है।
ग्रामीण अंचल निवासियों की समस्याएँ : भारतीय संविधान के लक्ष्य के कार्यान्वयन हेतु ग्रामीण अंचलों में पुनः निर्माण सम्बन्धी सरकारी सुधार नियोजन ग्रामपंचायत, सहकारी बैंक आदि सरकारी सेवकों की विशेष सेवाएँ उपलब्ध करवाई गयी। भारतीय सरकार की की न्याय व्यवस्था सक्रिय योगदान देकर ग्रामीण जनता की राजनीतिक चेतना को अभिव्यक्त करने में पूर्ण सहयोगी सिद्ध हुई।
स्वतांत्र्योत्तर काल में सबसे पहले समाजवादी सिद्धांतों के अनुसार भारतीय ग्रामीण समाज में विषमता को दूर करने हेतु विविध प्रकार की जाति, लिंग, धर्म एवं रंग सम्बन्धी विषमता का उन्मूलन किया गया। "जातिगत विषयता को उन्मूलन करने एवं राजनीतिक दृष्टि से समानता स्थापित करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत सरकार ने राष्ट्रीय चुनाव व्यवस्था में शताब्दियों से पिछड़े हुए हरिजनों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की है। आज हरिजन सभा करते हैं एवं विश्व मानवता के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। हिंदी के आंचलिक उपन्यास साहित्य में ग्रामीण जनता में अवतरित इस परिवर्तन को पूर्ण एवं व्यापक स्तर पर उद्घाटित किया गया है।"¹⁹ इसी तरह उत्तर प्रदेश के अंचल पर आधारित 'आधागाँव' उपन्यास में हरिजन जाति के विकास पर कुछ मुसलमान महिलाएँ आपस में कुछ इस प्रकार चर्चा करती हैं। "आसिया ने एक अचम्भे की बात बताई है कि सुखरमा चमार का लड़का परसरमवा खद्दर की टोपी पहिने ऐसी-ऐसी तकरीर कर रहा था कि मौलवी इबने हसन का करिहे ? खुदा गारत करै ई मिट्टी मिले कांगरेसियों को जिन्होंने चमारो और भंगियों का रुतबा बडा दिया है। ऊसब अछूत ना है। हरिजन हो गये हैं। उन्होंने मुर्दा खाना भी छोड़ दिया है और कोई महीना भर पहले चमारों का एक गोल परसरमवा की लीडरी में पंडिताने के कुँए पर चढ़ गया और पानी भर लाया। पुनः चुनाव में परसुराम हरिजन विधायक चुना जाता है तथा सम्पूर्ण क्षेत्र के राजनीतिक आर्थिक एवं सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है।"²⁰ इस तरह आंचलिक उपन्यासों में जाति विषमता को दूर करने की क्रांतिकारी परिवर्तन की अभिव्यक्ति मिलती है।
रेणु द्वारा रचित "मैला आंचल" उपन्यास में मानवतावादी एवं राष्ट्रवादी दृष्टिकाण है। डॉ. प्रशांत कुमार और उनकी सहचरी ममता के चरित्र का अंकन इसी दृष्टि से हुआ है। वह कहता है- "ममता मैं फिर काम शुरु करूंगा। यही इसी गांव में। मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ, आँसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के खेत लहलहायेंगे।
मैं साधना करूंगा, ग्रामवासिनी भारत माता के मैले अंचल तले।"²¹ ग्रामांचल की दयनीय पिछड़ी स्थिति को देखकर वह अत्यंत द्रविभूत होते हैं। आज देश में कई पिछड़े अंचल हैं, जहाँ राष्ट्रवादी, मानवतावादी विचारों से ओतप्रोत चिकित्सकों की आवश्यकता है जो दरिद्रता और रोगों से पीडित जनजीवन को जीने का मार्ग बता सके।
निष्कर्ष : ग्रामीण अंचलों में आशावादी दृष्टिकोण एवं निर्माणकारी तत्व अनेक रुप से उभरकर सामने आए हैं। गतिहीन समाज को उन्नत बनाकर उसे पुनः प्रगति की ओर अग्रसर करना सभ्य समाज का कार्य है।
- जी. संतोष (हैदराबाद)
संदर्भ;
1. आंचलिक उपन्यास : सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ - डॉ. विमल शंकर नागर - पृ. 264
2. जागरण : मन्मथनाथ गुप्त - भूमिका से
3. कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु : डॉ. चंद्रभान सोनवणे - पृ. 157
4. सब ही नचावत राम गोसाई : भागवतचरण वर्मा - पृ. 39
5. स्वतंत्रोत्तर हिन्दी उपन्यास : डॉ. क्रांति वर्मा - पृ. 194
6. रथ के पहिये : देवेन्द्र सत्यार्थी - पृ. 57
7. सती मैया का चौरा : भैरवप्रसाद गुप्त - पृ. 133-135
8. सबसे बड़ा छल : मधुकर सिंह - पृ. 100
9. विषाद-मठ - रंगेय राघव - पृ. 63
10. हुजूर : रंगेय राघव - पृ. 24
11. प्रेमचन्द और गांधीवाद : रामदीन गुप्ता - पृ. 239-240
12. हिन्दी के राजनीतिक उपन्यासों का अनुशीलन : ब्रजभूषण सिंह आदर्श - पृ. 148
13. कितने चौराहे : फणीश्वरनाथ रेणु - पृ. 88
14. खंजन नयन : अमृतलाल नागर - पृ. 121-122
15. अमृतलाल नागर के उपन्यास : डॉ. हेमराज कौशिक - पृ. 191
16. हिन्दी के राजनीतिक उपन्यासों का अनुशीलन : ब्रजभूषण सिंह आदर्श - पृ. 410
17. हिन्दी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा - डॉ. रामदरश मिश्र - पृ. 194
18. बलचनमा : नागार्जुन - पृ. 199
19. आंचलिक उपन्यास : सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ - डॉ. विमल शंकर नागर - पृ. 15
20. आधा गांव : राही मासूम रज़ा - पृ. 122
21. मैला आंचल - फणीश्वरनाथ रेणु - पृ. 425
FAQ;
Q. पहला आंचलिक उपन्यास हिन्दी में कौनसा है?
Ans. मैला आंचल (1954) 'फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा लिखित पहला आंचलिक उपन्यास हिन्दी का श्रेष्ठ आंचलिक उपन्यास है।
Q. आंचलिक उपन्यासकार हिन्दी में कौन है?
Ans. प्रमुख आंचलिक उपन्यासकार- फणीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन, देवेंद्र सत्यार्थी, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र, राही मासूम रज़ा आदि।
Q. मैला आँचल किसका उपन्यास है?
Ans. मैला आँचल फणीश्वरनाथ 'रेणु' का प्रतिनिधि उपन्यास है।
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