Novels of Munshi Premchand
प्रेमचंद की साहित्यिक मान्यताएँ : इस आर्टिकल में प्रेमचंद के उपन्यास साहित्य की विशेषताएँ क्या है उसके बारे में विस्तार रूप से बताया गया है, प्रेमचन्द का साहित्य और हिंदी साहित्य में उनका का योगदान, प्रेमचंद के प्रमुख उपन्यास, उपन्यास सम्राट कहे जाने में उनके साहित्य का क्या प्रभाव है आदि के बारे में विस्तार रूप से पढ़िए।
मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास : साहित्यिक मान्यताएँ
बीसवीं शताब्दी, वैज्ञानिक प्रगति की शताब्दी है। वैज्ञानिक परीक्षणों की अत्यधिक सफलता में एक ओर ईश्वर संबंधी आस्था को, समाप्त सा कर दिया था तो दूसरी ओर विश्व- युद्ध की आशंका ने मानव में भय, निराशा और पीड़ा भर दी। फलतः जन-जीवन बाह्य और अंदर के संघर्ष को झेलने लगा। ऐसी स्थितियों में प्रेमचन्द अपने युग को आत्मसात् करते हुए साहित्य जगत में पधारे। यहाँ यह कहा जा सकता है कि हिन्दी कथा-साहित्य जगत को सुयोग मिल सका कि इसका आविर्भाव जिन साहित्यिक मनीषियों द्वारा हुआ, उन्हीं की साहित्य- साधना से इसका विकास भी हुआ। यह विकास उतना व्यापक और विस्तृत था कि इसने अपने में एक स्वतंत्र युग की प्रतिष्ठा की। इस प्रकार हिन्दी कथा-साहित्य के आविर्भाव में प्रेमचन्द का अपना ही महत्व है और इसके विकास की दिशा में भी इन्हीं की साधना फली भूत हुई है।
प्रेमचन्द का बाहरी व्यक्तित्व औपनिवेशिक शासन के एक आम भारतीय आदमी का व्यक्तित्व है। अमृतराय के शब्दों में "उन में कुछ तो इस देश की पुरानी मिट्टी के संस्कार हैं, कुछ उन का नैसर्गिक शील है, संकोच है, कुछ उनकी गहरी जीवन दृष्टि है और कुछ उनका सच्चा आत्मगौरव है, जो किसी तरह के आत्म प्रदर्शन या विज्ञान को उनके नजदीक घटिया बना देता है।" प्रेमचन्द ने पहली बार हिन्दी कथा-साहित्य को मनोरंजन के स्तर से उठा कर जीवन के साथ-सार्थक रूप में जोड़ने का काम किया। विशेषतः उनके उपन्यासों में अपने युगीन परिवेश में फैले हुए जीवन उससे जुड़ी अनेक समस्याओं को उठाते हुए उनका यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने में इन्हें आशातीत सफलता प्राप्त हुई।
प्रेमचन्द के विचार में उपन्यासकारों के दो गिरोह हो गये हैं, एक आइडियालिस्ट या आदर्शवादी, दूसरा रीअलिस्ट या यथार्थवादी।" आगे वे लिखते हैं- "रियलिज्म यदि हमारी आँखें खोल देता है तो आइडियालिज्म हमें उठाकर किसी मनोरम स्थान में पहुँचा देता है।" इन्हीं विचारों का प्रस्तुतीकरण उनके हर उपन्यास में विद्यमान है। इनका सर्वप्रथम हिन्दी उपन्यास सेवासदन (1918) है। इसके पश्चात् प्रेमाश्रम (1922) रंगभूमि (1925) कायाकल्प (1926) निर्मला (1927) गबन (1931) कर्मभूमि (1932) तथा गोदान (1936) आदि उपन्यास इनकी कलम से निकले। इनका अधूरा उपन्यास 'मंगलसूत्र' भी उनके निधन के बाद सन् 1948 में प्रकाशित हुआ। इन सभी उपन्यासों में उनकी जीवन दृष्टि अत्यंत प्रखर रूप से व्यक्त हुई है। राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति के साथ अपने समय की सभी विचारधाराओं से प्रभावित होकर नारी एवं दलित चेतना का स्पष्ट रूप इनके उपन्यासों में अभिव्यक्त हुआ है। इनके अलावा गाँव एवं किसानों की समस्याओं तथा अपने युग की सांप्रदायिक सोच के प्रति भी वे अत्यंत जागरूक रहे और इनका यथार्थ परक चित्रण अत्यंत सच्चाई के साथ अपने उपन्यासों द्वारा किया गया है।
'सेवासदन' उपन्यास में वेश्या जीवन से संबंधित सभी पहलुओं को प्रस्तुत करते हुए समस्या के मूल तह को जानने का प्रयास इन्होंने किया है। इसी कारण इस उपन्यास में तिलक, इहेज प्रथा, पति द्वारा पत्नी की उपेक्षा, पति द्वारा उपेक्षित नारी के प्रति समाज की उपेक्षा संबंधी मान्यताएँ भी मिलती हैं। कृष्णचंद, गजाधर, पद्मसिंह के परिवारों के चित्रण के द्वारा प्रेमचन्द ने समकालीन मध्यवर्ग की आर्थिक स्थिति, मूल्य संकट, नैतिक दुर्बलता आदि का विस्तार पूर्वक और विश्वसनीय चित्रण किया है। इस प्रकार, इस उपन्यास के साथ हिन्दी उपन्यास जगत में जबरदस्त बदलाव आया है। मध्यवर्ग के जीवन की अभिव्यक्ति का शुभारंभ सेवासदन द्वारा ही हुआ है। इसके पश्चात् रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, गबन आदि उपन्यासों में इस वर्ग का पर्याप्त विस्तार के साथ चित्रीकरण हुआ है। 'रंगभूमि' का ताहिर अली, 'निर्मला' के उदय भानुलाल और मुंशी तोताराम्, 'गबन' के मुंशी दयानाथ और इन्दुभूषण आदि की समस्याएँ मध्यवर्गीय अंतर्विरोधों की ही समस्याएँ हैं।
भारतीय जीवन के यथार्थ का एक महत्वपूर्ण पक्ष, समाज और परिवेश में नारी की स्थिति से संबंधित है। भारतीय नवजागरण नारी की परंपरागत स्थिति में सुधार से अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ था। प्रेमचन्द के समय में भी नारी, विशेषकर मध्य और उच्च वर्ग की नारी, दोहरी दासता की शिकार थी। उस समय की नारी के लिए न तो पारिवारिक संपत्ति में कोई हक था और न वह स्वतंत्र रूप से अपनी जीविका अर्जित करने में समर्थ थी। 'सेवासदन' और 'निर्मला' में इस तथ्य की अभिव्यक्ति अत्यंत मार्मिक रूप से व्यक्त हुई है। 'गबन' में पति की मृत्यु के बाद रतन की दुर्दशा, तत्कालीन समाज में विधवा की असहाय स्थिति का उदाहरण है। 'रंगभूमि' में अभिजात वर्गीय इन्दु की विवश स्थिति यह सिद्ध करती है कि स्त्री चाहे किसी भी वर्ग की क्यों न हो, दासता की जंजीरों में जकड़ी हुई है। 'गोदान' में गोबर और झुनिया तथा सिलिया और मातादीन के विवाह को चित्रित करते हुए, उन्होंने विधवा विवाह की ही नहीं बल्कि अंतर्जातीय विवाह का भी चित्रण किया है। मातादीन एवं सिलिया के विवाह का समर्थन करते हुए प्रेमचन्द एक सामाजिक क्रांति की ओर बढ़ते हुए दिखाई देते हैं। सन् 1930 में गाँधी जी ने स्त्रियों को विदेशी वस्तुओं की दुकानों, शराबघरों और सरकारी संस्थानों पर धरना देने के लिए प्रेरित किया। जिसकी प्रेरणा पाकर भारतीय स्त्रियाँ घर की देहली छोड़ बाहर आयीं। इसी संदर्भ में प्रेमचन्द की पत्नी शिवरानी देवी ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और जेल भी गयीं। इसका प्रभाव प्रेमचन्द के उपन्यासों में चित्रित नारी पात्रों पर स्पष्ट रूप दिखाई देता है। 'गबन' की जालपा के चरित्र का उत्तरार्ध झा नारी जागरण को ही संकेत देता है। 'कर्मभूमि' में सुखदा हरिजनों के मंदिर प्रवेश आंदोलन का नेतृत्त्व करती है और जेल जाती है। इसके अलावा सकीला, बुढ़िया पठानिन, रेणुकादेवी, मुत्री आदि ब्रिटिश सरकार का विरोध करती हुई जेल जाती है। नैना तो जुलूस का नेतृत्व करती हुई शहीद ही हो जाती है। 'गोदान' की मालती देशसेवा और समाज सेवा के लिए विवाह न करने का व्रत लेती है। इस प्रकार प्रेमचन्द के नारी पात्र त्याग एवं बलिदान की ओर बढ़ती हुई अपने असाधारण व्यक्तित्व का परिचय देती हुई दिखाई देती हैं।
प्रेमचन्द के समय का एक अन्य यथार्थ उपन्यास दलितों की सामाजिक स्थिति से सम्बद्ध था। गाँधी जी ने मानवीय संवेदना की दृष्टि से ही नहीं, राजनीतिक व्यावहारिकता के तहत भी अछूतोद्धार आंदोलन प्रारंभ किया था। इस आंदोलन का प्रभाव 'कर्मभूमि' एवं 'गोदान' में दिखाई देता है।
इसके अलावा उस समय का एक अन्य यथार्थ, सांप्रदायिक तनाव से जुड़ा हुआ है। प्रेमचन्द ने तत्कालीन जीवन की इस सच्चाई का चित्रण किया है। वैसे प्रेमचन्द सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे। इसी कारण उन्होंने हिन्दी उपन्यास को इस संकीर्ण विचारधारा से मुक्त करने का प्रयास किया था। प्रेमचन्द का विश्वास है कि इन सांप्रदायिक आंदोलन के मूल में विशेषकर कट्टरपंथी धार्मिक नेताओं, व्यावसायियों और शासन का हाथ होता है। प्रेमचन्द ने खुल कर ऐसे लोगों को बेनकाब कर उनकी स्वार्थ-वृत्ति को व्यक्त करने का प्रयास किया है। 'कायाकल्प' में इसका यथार्थ चित्रण मिलता है। इस उपन्यास का चक्रधर ऐसा ही पात्र है जो हिन्दू या मुसलमान होने से पहले मनुष्य होता है और इन सांप्रदायिक संघर्षों को रोकने के लिए अपने प्राणों की बाजी भी लगा देता है। इस उपन्यास का दूसरा पात्र खाजा महमूद अपने हिन्दू मित्र की बेटी के लिए अपने बेटे को भी माफ नहीं कर पाता। इस प्रकार के सांप्रदायिक सच्चाई के प्रति प्रेमचन्द अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति में प्रेमचन्द की साहित्यिक दृष्टि एवं उनकी जन जीवन दृष्टि अत्यंत प्रभोवोत्पादक ढंग से व्यक्त हुई है।
'सोज़ेवतन' की जब्ती के बाद प्रेमचन्द कुछ समय तक सरकार-विरोधी टिप्पणियाँ एवं कहानियाँ लिखने में संयम बरतते रहे लेकिन इसकी कसक उनके मन में बराबर बनी रही। अंततः 15 फरवरी, 1921 को उन्होंने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया था। इसके पश्चात् इन्होंने खुलकर अपने विचारों को अपने साहित्य में अभिव्यक्त किया है। 10 मार्च 1930 को 'हंस' की संपादकीय टिप्पणियों में प्रेमचन्द ने नमक सत्याग्रह की खुलकर प्रशंसा की और ब्रिटिश सरकार की आलोचना की। इस संदर्भ में अमृतराय लिखते हैं- 'कितनों को मुंशी जी के अपने हाथ से खद्दर का कुर्ता-टोपी पहना कर, पान का बीड़ा देकर और उनकी पत्नी ने माथे पा तिलक लगा कर सामने पार्क में नमक बनाने के लिए भेजा।" प्रेमचन्द राजनीति में दिलबस्पी तो रखते थे, पर किसी राजनीतिक दल के सदस्य न थे। सन् 1942 में वे दयानारायण निगम के नाम पत्र लिखते हुए कहते हैं- "आपने मुझ से पूछा, मैं किस पार्टी में हूँ। मैं तो उस आनेवाली पार्टी का मेम्बर हूँ जो छोटे आदमियों की सियासी तालीम को अपना दस्तूर उल- अमल बनाएँ।" इससे आम आदमी के प्रति प्रेमचन्द की प्रतिबद्धता का पता चलता है। 1936 के 'हंस' में प्रेमचन्द का प्रसिद्ध लेख 'महाजनी सभ्यता' प्रकाशित हुआ।
सन् इसमें उन्होंने पूँजीवादी सभ्यता की कटु आलोचना करते हुए लिखा है, इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज़ पैसा है। किसी देश पर राज्य किया जाता है तो इसलिए कि महाजनों, पूँजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा नफा हो।" आगे वे लिखते हैं-"इसी मानसिकता में प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में आम आदमी की मुख्यतः किसानों की ही समस्याएँ उठायी हैं। इनके द्वारा रचित 'प्रेमाश्रम' में इन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशक शासन के अंतर्गत किसानों और जमींदारों के संबंधों का चित्रण किया है। इस काल की सबसे तीखी सच्चाई यह थी कि भारत एक विदेशी पूँजीवादी ताकत का उपनिवेश था जिस का एकमात्र लक्ष्य देश का आर्थिक शोषण करना था। प्रेमचन्द के उपन्यास देश की पराधीनता के यथार्थ और उसके व्यापक आयामों के सत्य-प्रस्तुत करते हैं। देश की आजादी की समस्या प्रेमचन्द के लिए मात्र भावात्मक या राष्ट्रप्रेम की समस्या नहीं थी। वरन् वह देश के आर्थिक शोषण और दमन से जुड़ी हुई हैं। शोषण की नीति से पैदा हुई किसानों की जिन्दगी प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, कर्मभूमि, गोदान उपन्यासों में मिलती है। यहाँ किसानों और कृषक मजदूरों के नेता गाँधीवादी हैं पर किसान बीच-बीच मे हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। यह स्वाधीनता आंदोलन की ऐतिहासिक सच्चाई है जो प्रेमचन्द के उपन्यासों में विश्वसनीयता के साथ सुरक्षित है।
प्रेमचन्द ने विशेषकर शिक्षित वर्ग की आलोचना की है जो स्वार्थ के लिए सरकार का समर्थन और जनता का शोषण करते हैं। जैसे 'कर्मभूमि' में अछूतों के मंदिर प्रवेश और निम्न वर्ग के लोगों के आवास की समस्या आदि तत्कालीन जनांदोलन के चित्रण को मात्र बहाना बनाया। 'गोदान' तक आते-आते प्रेमचन्द ने यह अनुभव किया है कि जब तक किसान संगठित नहीं होंगे, तब तक वे सरकारी शोषण का प्रतिरोध नहीं कर सकेंगे। ऐसी सामाजिक, आर्थिक समस्याएँ भी स्वाधीनता आंदोलन से सीधे जुड़े हुए हैं। इन सब का हृदयस्पर्शी चित्रण प्रेमचन्द के उपन्यासों में व्यक्त हुआ है।
इस प्रकार अपने युग के सच्चे यथार्थ के चित्रीकरण में प्रेमचन्द ने अपने जीवन-दृष्टि का स्पष्टीकरण किया है। साहित्य के बारे में स्वयं प्रेमचन्द का यह कथन, उनके वैचारिक दृष्टि को स्पष्ट करते हैं- 'हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति और बेचैनी पैदा करें।" उनके उपन्यास साहित्य में उनकी साहित्यिक मान्यताओं को जानने के पश्चात् यही कहा जा सकता है कि उनके आदर्शोन्मुख यथार्थवाद में "आलोचनात्मक यथार्थवाद' और 'आदर्शवाद' का समन्वय देखा जा सकता है। उनका यथार्थ संबंधी दृष्टिकोण निरंतर वैज्ञानिक होता हुआ दिखाई देता है। इसके अलावा उनका विश्वास है कि सच्चा आनंद सुन्दर और सत्य से मिलता है। जहाँ मनुष्य, अपने मौलिक, यथार्थ, अकृत्रिम रूप में हो वहीं उसे आनंद की प्राप्ति होती है। उनके अनुसार साहित्य का लक्ष्य केवल देश-शक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई ही नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
- प्रो. के. लीलावती
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