सांप्रदायिकता पर प्रेमचंद के विचार

Dr. Mulla Adam Ali
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Premchand's Views On Communalism

Premchand's views on communalism

साम्प्रदायिकता की समस्या और प्रेमचंद : इस आर्टिकल में सांप्रदायिकता का संदर्भ और प्रेमचंद का साहित्य के बारे में बताया गया है, साम्प्रदायिकता-विरोध के लिए प्रतिबद्ध प्रेमचंद अपने साहित्य लेखन में यथार्थ चित्रण किया है, बढ़ती सांप्रदायिकता, जातिगत भेदभाव और ग़रीबी को प्रेमचंद ने अपने कहानियों और उपन्यासों में खुलकर बताया है। तो चलिए पढ़ते हैं प्रेमचंद के विचार सांप्रदायिकता पर उनके साहित्य में।

सांप्रदायिकता पर प्रेमचन्द के विचार

मुंशी प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों, उपन्यासों और नाटकों की वस्तु के रूप में जीवन के कई पक्षों को यथार्थ रूप में ग्रहण किया। एक कथाकार के रूप में उन्होंने कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों पर तटस्थ एवं निर्भीक होकर लिखा। 'जमाना', 'हंस', 'जागरण' आदि पत्रिकाओं के संपादक के रूप में प्रेमचन्द ने सांप्रदायिकता और शोषण जैसे महत्वपूर्ण अंशों पर जो तर्क प्रस्तुत किये वे मूल्यवान और प्रासंगिक हैं। सांप्रदायिक तनाव और फसाद पर प्रेमचन्द के विचारों का अध्ययन इसलिए आवश्यक है कि यदि उनसे हमें कोई मार्ग दिखाई देता है तो वह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी।

प्रेमचन्द ने सांप्रदायिकता का समर्थन किसी भी रूप में करना उचित नहीं समझा। उन्होंने सांप्रदायिक द्वेष और दंगों के प्रश्नों पर मुक्त भाव से विचार किया। डॉ. आलम की 'एन्टिकम्यूनल लीग' पर टिप्पणी करते हुए 'इण्डियन शोषल रिफार्मर' शीर्षक अंग्रेजी पत्रिका में लिखा गया कि- 'सांप्रदायिकता अच्छी भी है और बुरी भी' इस कथन का विरोध करते हुए 'हँस' पत्रिका के जनवरी 1934 में अंक में प्रेमचन्द ने अपनी प्रतिक्रिया यों प्रकट की 'अगर सांप्रदायिकता अच्छी हो सकती है, तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है, मक्कारी भी अच्छी हो सकती है, झूठ भी अच्छा हो सकता है, क्योंकि पराधीनता में जिम्मेदारी से बचत होती है, मक्कारी से अपना उल्लू, सीधा किया जाता है और झूठ से दुनिया को ठगा जाता है। प्रेमचन्द घोषणा करते हैं कि सांप्रदायिकता समाज का कोढ़ है।

उपन्यासकार प्रेमचन्द भारतीय समाज में सांप्रदायिक दंगों के कारणों का पता लगाना चाहते हैं। प्रेमचन्द उस सत्य से अवगत हुए कि घृणा और आत्म-रक्षा की चिनगारी से हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायों के बीच धार्मिक द्वेष के बारूद को कभी-भी भड़काया जा सकता है। प्रेमचन्द ने अपनी कृतियों में इस तथ्य को दोहराने की चेष्टा की है कि जिम नेताओं के भरोसे को लेकर या उनके उकसाने पर छोटी-सी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर हिन्दू और मुस्लिम धर्मालम्बी अशिक्षित लोग धर्म की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे इस सत्य से अवगत नहीं है कि उनके नेता लोग अपने-अपने स्वार्थों को पूरा करने में लगे हुए हैं। वैचारिक संकीर्णता, क्षुद्रता और स्वार्थ लोलुपता को तिलांजलि देकर सांप्रदायिक सद्भाव को बनाये रखने की दिशा में नेताओं को अपेक्षित कदम उठाने का संदेश प्रेमचन्द की कृतियों में दिया गया है।

प्रेमचन्द ने सांप्रदायिकता के प्रश्न को राजनीति के संदर्भ में रखकर महत्वपूर्ण औपन्यासिक कथा-प्रसंगों की योजना द्वारा इस समस्या के समाधान के रूप में कई स्पष्ट एवं प्रासंगिक विचार व्यक्त किये हैं। 'हँस' पत्रिका (मार्च) में प्रेमचन्द यह बात स्पष्ट करते हैं। अगर इन को फसादों से सरकार को कोई डर होता, अपनी जड़ें उखड़ जाने का संदेशा होता तो वह यो तटस्थ न बनी रहती। प्रेमचन्द ब्रिटिश सरकार की, सांप्रदायिक दंगों के निवारण में, असमर्थता और सरकार के खतरनाक रवैये की निन्दा करते हैं। ब्रिटिश सरकार पर आरोप लगाते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं-"एक सप्ताह तक कानपुर में अराजकता का पूरा आधिपत्य रहा। सरकार अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ उसका दमन न कर सकी। अक्ल यह मानने को तैयार नहीं होता कि जो सरकार राजनीतिक आंदोलन का दमन करने में इतनी तत्परता से काम ले सकती है, इतनी आसानी से गोलियाँ चलावा सकती है, वह इस अवसर पर इतनी अशक्त हो गई कि उसकी मौजूदगी में खून की नदी बह गई और वह कुछ न कर सकी। क्या खुफिया पुलिस सिर्फ सियासी आंदोलनों की जाँच करने के लिए ही है? उसे आवाम में सुगबुगाने वाले जज्बात का पहले से ही क्यों ज्ञान नहीं होता?"

"स्वाधीनता आंदोलन में मुस्लिम भाईयों को अपने साथ न ले चलने में हमने भूल की है-प्रेमचन्द स्वतंत्रता आंदोलन की एक विशेष कमी को पूरी तरह सामने लाते हैं। प्रेमचन्द अपने लेखन से राष्ट्रीय एकता और धार्मिक उदारता जैसी बातों का प्रचार करते थे। बम्बई सरकार के अर्थ सचिव सर गुलाम हुसेन हिदायतुल्लाह के बम्बई मुस्लिम स्टूडेन्ट्स यूनियन में दिये गये भाषण पर प्रसन्न होकर प्रेमचन्द 'जागरण' पत्रिका के (22 जनवरी 1934) के अंक में लिखते हैं-इस सांप्रदायिक हो-हल्ले के युग में वह भाषण चारों तरफ फैले हुए अंधकार में एक दीपक के समान है। प्रेमचन्द की मान्यता है कि "बात-बात में अपने समुदाय के विशेष अधिकारों की हाँक लगाना अपमान जनक है। हमें सिर्फ अपनी योग्यता के बल पर आगे बढ़ना चाहिए।"

शिक्षा के पाठ्य-क्रम में थोड़ा-सा परिवर्तन करना, तीसरी क्लास से लेकर बी.ए. तक हिन्दी और उर्दू को अनिवार्य भाषा के रूप में स्वीकार करना आदि से एक-दूसरे की संस्कृति का ज्ञान तो होगा ही, साथ ही सांप्रदायिक भावना का संशोधन भी हो जायेगा। इससे भाषा और लिपि का झगड़ा भी मिल जायेगा।

हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रश्न पर विचार करते हुए प्रेमचन्द घोषणा करते हैं- "हिन्दू और मुसलमान न कभी दूध और चीनी थे, न होंगे, न होने चाहिए। दोनों की अलग-अलग सूरतें बनी रहनी चाहिए और बनी रहेंगी। आवश्यकता इस बात की है कि नेताओं में परस्पर सहिष्णुता और उत्सर्ग की भावना हो।" (जमाना, फरवरी 1924) सांप्रदायिकता की समस्या पर प्रेमचन्द का यह विश्वास था कि - "जब तक हम अपने इतिहास और सभ्यता व संस्कृति और ऐसे ही दूसरे ढकोसलों पर राष्ट्र के आधारभूत सिद्धान्तों को होम करते रहेंगे, उस पल तक ये फसाद होते रहेंगे। प्रेमचन्द यह भी कहते हैं कि जो मनुष्य धर्म-भाव-शून्य है वह राष्ट्रीयता के भाव से भी शून्य रहेगा। वे मजहब को राजनीति से गड़बड़ न करने का आग्रह करते हैं। राष्ट्रीयता की कसौटी पर पूरी तरह खरा नहीं उतरने वालों को, जिनका समर्थन आपका धर्म करता भी क्यों न हो, देश के हितों में बाधक मानकर उन्हें त्यागना चाहिए।

- डॉ. एस. ए. सूर्यनारायण वर्मा

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