Problems and modern understanding of Beej Natak
बीज नाटक की समस्याएँ और आधुनिक बोध
यह सच है कि आधुनिक बोध नाटक और एकांकी की अपेक्षा, कहानी, उपन्यास और कविता में अधिक पाया जाता है। क्यों कि कविता, कहानी और उपन्यास का आस्वाद एकांत में भी पाया जाता है जबकि नाटक के सही भाव बोध को पाने के लिए रंगमंच की परिकल्पना की आवश्यकता है जिसमें पाठक को दर्शन, अभिनेता और रंगमंच का परिज्ञान रखना अत्यंत आसानी से आ नहीं पाते। इस अत्याधुनिक युग में यह जरूर कहा जा सकता है कि आधुनिकता का दौर अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह नाटक में भी मिलने लगा है। आधुनिक नाटक में अधिकतर मध्यवर्गीय परिवार के इतिवृत्त और उनसे तत्संबंधित समस्याओं पर अधिक प्रकाश डाला गया है। जिस कारण नाटक में आंतरिक यथार्थ, मानसिक संघर्ष की अभिव्यक्ति मिलती है। इस तरह नाटकों में आधनिकता या आधुनिक बोध का प्रारंभ हुआ है।
मोहन राकेश के नाटकों का आधुनिक बोध अन्य नाटककारों के आधुनिक बोध से अलग ही है। प्रसाद, अश्क जैसे नाटककारों से बिलकुल अपना अलग व्यक्तित्व मोहन राकेश ने अपने नाटक जगत में स्थापित किया है। कथा-भाषा, नाट्य-शिल्प सभी विषयों में उनकी नवीनता दृष्टिगोचर होती है। नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के निर्देशक तथा प्रख्यात रंगकर्मी आल्डा जी ने कहा है - "भारतीय रंगमंच के नये युग की शुरुआत उनके द्वारा ही होती है।" मोहन राकेश के नाटक अर्थ औ जीवन-मूल्यों के संघर्ष से पैदा होते है। रूढ़ियों, परंपराओं को त्यागकर वे आज के विचारों और प्रवृत्तियों को नये प्रयोगों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए प्रख्यात नाट्य समीक्षक डॉ. सुरेश ने लिखा है, 'उन्होंने अपने नाटकों से हिन्दी में एक नया दर्शक वर्ग तैयार किया और जयशंकर प्रसाद के बाद पहली बार हिन्दी रंगमंच की समर्थता का एहसास कराया। यह कहा जा सकता है कि जनता पाश्चात्य नाटकों की यथार्थवादी चेतना के प्रति जागरुक है। राकेश ने अपने नाटकों में स्थितियों को कुछ ऐसे गढ़ा है कि उनकी भाषा विश्वसनीय बन गयी है। इस प्रकार नाटकीय दृष्टि से सभी तथ्यों में मोहन राकेश का आधुनिक बोध झलकता है।
माहेन राकेश की नाट्य कृति "अंडे के छिलके" में चार एकांकियों के अतिरिक्त दो बीज-नाटक "शायद..." और "हाँ" और अन्य नाट्य प्रयोग "छतरियाँ।" (पार्श्व नाटक) भी संकलित है। वस्तुतः राकेश की तीन सुविख्यात नाट्य कृतियों के अलावा यह संकलन भी उनके नाटक कार-रूप को ही उजागर करता है। वाद-संवाद की भाषा से सभी निरर्थक अंश निकालकर एक दूसरे के लिए उनकी अर्थवत्ता को इसी कारण पैना और सामर्थ्यवान करने के प्रयाग में "दो बीज नाटक" तथा "छतरियाँ" नाम के पार्श्व नाटक की रचना की गयी है जिसमें मंच पर भाषा के उपयोग को उन्होंने पार्श्व से आनेवाली आवाजों के आधार पर प्रायः नगण्य-सा सिद्ध कर दिया है। ये सर्जनाएँ सिद्ध करती हैं कि नाट्य क्षेत्र में राकेश का महत्व ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, जयशंकर प्रसाद के बाद के हिन्दी नाट्य-क्षेत्र के गतिरोध को तोडने में वे सफल हुए।
"शायद..." और "हाँ" शीर्षक दो बीज नाटक कहे गये हैं। बीज नाटकों से मतलब रचनात्मक सर्वेक्षण और समीक्षा के स्तर पर उनके उस तरह के नाटकों से होगा, जिनमें भाषा-संवाद, "साधारण-क्षमता" के सम्मत हैं और तदनुकूल कथ्य भी आधुनिक एवं अत्यंत सरल है। दो बीज नाटकों में मध्यवर्गीय घर-परिवार का चित्रण बहुत जीवंत और प्रामणिक है। साहित्यिक भाषा को व्यावहारिक रूप देनेवाले प्रयोग इन बीज नाटकों में बहुत सार्थक लगता है। 'शायद' एक ऐसा बीज नाटक है, जिसमें दो पात्रों के माध्यम से आधुनिक दांपत्य जीवन की ऊब उदासी, निराशा और खालीपन की स्थिति को निरूपित किया गया है। जो पुरुष विवाह से पूर्व खुश रहता था और एक भरे-पूरेपन के अहसास के साथ जीता था वहीं विवाहोत्तर काल में खाली और अकेला अनुभव करता है। उसके लिए किसी भी वस्तु का कोई अर्थ नहीं रह गया है, चीजें वहीं हैं, नाम भी वहीं हैं और उनका इस्तेमाल वही है, किन्तु जैसे उनकी अहमियत कहीं खो गयी है। अर्थवत्ता जैसे निषप्राण हो गयी है, स्त्री की स्थिति भी ऐसा ही है। ये दोनों ही सबसे कटे हुए दीख पड़ते हैं। निम्नलिखित स्त्री-पुरुष के संवाद के जरिये उनके मानसिक स्थिति-गतियों का पता चलता है और भाषा भी साधारण सी होकर सार्थक कैसी बन पड़ी है, इसका अंदाजा लगा सकते हैं।
पुरुष : आदमी रोज-रोज उसी तरह खाता-पीता है, उसी तरह बकता झकता है, उसी तरह उदास होता है। कोई चीज है जो...
स्त्री : मैंने तो यह सोचना भी छोड़ दिया है।
पुरुष : खैर, तुम जो करती हो, उसका तो फिर भी कुछ अर्थ निकलता है।
स्त्री : बाइ द वे निकल आता हो तो पता नहीं। हम तो इसलिए किये जाते हैं कि करना होता है। ऐसे ही जिंदगी की उम्र काट देंगे।
इससे स्पष्ट होता है कि यह नाटक समकालीन जिंदगी के एक वृत्त को स्पष्ट करता है। जिंदगी की एकरसता और वही रोज-रोज की स्थितियों की धारणाएँ व्यक्तियों को तोड देती हैं। और वे कैसे अनुभव करते हैं वह इस बीज नाटक के स्त्री-पुरुष के संवादों से व्यक्त होता है। इस प्रकार यह बीज नाटक समकालीन जिंदगी के एक वृत्त को अंकित करनेवाला नाटक है।
"शायद..." शीर्षक ही इस बात का सूचक है कि जीवन में कहीं भी कुछ निश्चित नहीं है। इस बीज नाटक में असाधारण संदर्भों के बीचमें साधारण और साधारण के बीच असाधारण स्थितियों का अंकन इस "शायद..." में मिलता है। भाषा की दृष्टि से यह एक उपलब्धि है।
- के. लीलावती
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