प्रश्न आस्था का : A Question of Faith

Dr. Mulla Adam Ali
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A Question of Faith

आस्था का प्रश्न

प्रश्न आस्था का

आज हम अपने चारों और फैले मिथ्याचार पर विजय पाने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। निराशा की इस स्थिति में देश, समाज, परिवार या व्यक्ति का मिथ्याचरण देखकर 'भगवान ही मालिक है' कहकर शान्त हो जाते हैं। विचारणीय यह है कि क्या हमारी इस तटस्थता से स्थिति सुधर पायेगी। वस्तुतः यह तटस्थता शुतुरमुर्ग की नीति है। व्याघ्र से न तो शुतुरमुर्ग बचता है और न अन्य जानवर और हम भ्रष्टाचार करने वालों की काली करतूतों से अप्रभावित रह सकते हैं। द्रौपदी के साथ अन्याय को चुप होकर देखने वालों को उसका दण्ड भोगना पड़ा। अतः तटस्थ होने के स्थान पर हमारी सक्रियता की आवश्यकता है। हमें व्यवस्था बदलने का प्रयास तो करना ही चाहिए। शायद कभी कोई हमारा अनुकरण करने वाला पैदा हो- 'कालोह्मम् निरवधिर्विपुला च पृथ्वी'।

आज के मानव ने भौतिक साधनों का विशाल भण्डार खड़ा कर लिया है। तनिक सी कल्पना कीजिए कि ये सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए, उसे तुरन्त साकार कर देता है। पक्षियों को निस्सीम आकाश में उड़ते देखकर मानव की इच्छा हुई कि मैं भी इसी प्रकार आकाश में विचरण करूँ तो वायुयान का आविष्कार हो गया किन्तु इतने से उसे सन्तोष नहीं हुआ। उसने कहा- मैं ही नहीं मेरा खिलौना भी आकाश में इच्छानुसार घूमें, तो मानव रहित विमान उड़ा दिया। यह विमान मानव के इंगित पर वहीं जाता है और वही कार्य करता है जो उसका मानव-प्रभु आदेश देता है।

मनुष्य नित नूतन की खोज में व्यस्त है। वह प्रकृति के रहस्यों को जानने के लिए प्रयत्नशील है। जिज्ञासा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मानव का स्वभाव है। उसने उत्तराधिकार में जो ज्ञान प्राप्त किया है, उससे सन्तुष्ट नहीं है। ऋषियों, मुनियों, गुरुओं, पूर्वजों, वैज्ञानिकों, शोधार्थियों, चिन्तकों से प्राप्त ज्ञानराशि को और आगे बढ़ाने के लिए वह सत्त प्रयत्नशील है। यह जिज्ञासा ही जीवन के विविध क्षेत्रों में उसे आगे बढ़ाती है। पुरातन में उसे जो अपने अनुकूल प्रतीत नहीं होता, उसे छोड़ता हुआ, वह आगे बढ़ रहा है। उपनिषदों के ऋषियों एवं गौतम ने वैदिक कर्मकाण्ड को चुनौती दी, ईसा ने यहूदियों की धर्मान्धता का विरोध किया। जिनको हम सुधारवादी कहते हैं, चाहे वह गुरुगोविन्द सिंह हों, राजा राममोहनराय हों अथवा स्वामी दयानन्द हो, वे पुरातन के विरोधी नहीं हैं, अपितु पुरातन व्यवस्था में जो खामियाँ आ गई हैं, उनके विरोधी हैं। वे पुरातन को नवीन परिवेश के अनुकूल ढालने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। कालिदास बहुत पहले यह कह गए हैं कि कोई भी चीज इसीलिये अच्छी नहीं है कि वह बहुत पुरानी है और कोई वस्तु इसीलिए नगण्य नहीं है कि वह बहुत नूतन है। महापुरुष को चाहिए कि विवेचन-परीक्षण के पश्चात् ही नूतन अथवा पुरातन को ग्रहण करें। मूर्ख दूसरों के विश्वास द्वारा ही पथभ्रष्ट होते हैं :-

पुराणामित्येव न साधुं सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यद्यपम्।

सन्तः परीक्ष्यान्तरद्भजन्ते मूढ़ः परप्रत्यनेय बुद्धिः ।।

आज का संघर्ष विश्वास व अविश्वास का है। दोनों से ऊपर उठकर विवेचन व परीक्षण के स्तर तक पहुँचना चाहिए। पानी पीना है तो ताजा (नूतन) ही होना चाहिए, किन्तु मदिरा तो पुरानी ही अच्छी कहलाती है। इस विश्वास व अविश्वास के द्वन्द्व के पीछे भी कुछ कारण है। प्राचीनकाल का मानव धर्म में विश्वास रखता था, धर्मग्रन्थों की बातों को, ऋषि- मुनियों के कथनों को बिना किसी शंका के स्वीकार कर लेता था। आज वैज्ञानिक उन्नति के कारण वह प्रत्येक बात को तर्क की तुला पर तौलना चाहता है किसी के कहने भर को वह आँख मींचकर स्वीकार नहीं करता, किन्तु विज्ञान पर उसका विश्वास अंधश्रद्धा में बदल गया है। जब भारतीय मान्यता के अनुसार सृष्टि की आयु एक अरब पिचानवें करोड़ कुछ लाख वर्ष बताई जाती है, तब उसे विश्वास नहीं होता किन्तु जब वैज्ञानिक किसी अस्थिपंजर या अवशेष विशेष की आयु करोड़ों वर्षों में बताता है, तो उसे आँख बन्द करके स्वीकार कर लेता है। प्राचीनकाल में जो आस्था धर्म के प्रति थी, वह आज विज्ञान के प्रति है।

विश्वास या अविश्वास का धरातल आज कुछ ऊँचा हो गया है। बौद्धिक क्षेत्र में मानव ने बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की है। संचार माध्यम से आई क्रान्ति के कारण संसार का नवीनतम ज्ञान आज हस्तामलकवत् हो गया है। संसार आज एक ग्राम बनता जा रहा है। विश्व के किसी भी क्षेत्र में घटित घटना से सारा संसार अपने को प्रभावित देखता है जिसके कारण हमारा सामाजिक फलक बहुत विस्तृत हो गया है। अतः 'वसुधैवकुटुम्बकम्' की भावना की ओर संसार अग्रसर हो रहा है। किसी एक नगर में भूकम्प या बाढ़ जैसी दैवी आपदा आने पर समस्त विश्व सहायता को दौड़ता है। एक व्यक्ति का दुस्साहस सारे संसार को प्रभावित कर देता है। बिन लादेन हो या सद्दाम हुसैन, जार्जबुश हो या परवेज मुशर्रफ इनकी हरकतों की ओर संसार गौर से देखता है ऐसी स्थिति में हमारा विश्वास दृढ़ नहीं हो पाता है, जो वैज्ञानिक मानक पर खरा हो, विश्व एक्य को बढ़ावा दे और संसार रूपी समाज के हित में हो।

वैज्ञानिक मस्तिष्क अपने चिन्तन-मनन के आधार पर निर्णय लेता है, किसी धर्मग्रन्थ या धार्मिक गुरु के बन्धन को नहीं मानता। धर्म-सम्प्रदायों की मान्यताएँ क्षेत्रीय अथवा देश विशेष या वर्ग विशेष तक सीमित रहती है किन्तु विज्ञान के निष्कर्ष सार्वदेशिक होते हैं। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त सर्वव्यापी है। धर्म के आधार परम्परा, आस्था या कट्टरता अथवा पौराणिकता है। इसके बिना धर्म का महल लड़खड़ा कर गिर जायेगा। विज्ञान परम्परा, आस्था, विश्वास अथवा मान्यता को स्वीकार नहीं करता। अतः वैज्ञानिक उन्नति एवं धार्मिक विश्वासों में यदाकदा विरोध भी प्रतीत होता है। प्रत्येक नूतन आविष्कार को धर्म-विश्वासी लोगों ने प्रारम्भ में विरोध ही किया है किन्तु कालान्तर में उसे स्वीकृति समाज से भी मिलती रही है। धर्म के प्रति कट्टरता का भाव रखनेवाले अपनी निष्ठा के सामने न सत्य को स्वीकारते हैं और न मानवजात के हित-अहित को देखते हैं। इस्लाम के जिहादी या किसी एक पूजा पद्धति के माननेवालों की हत्या करनेवाले अपने कार्यों को धर्म का जामा पहना देते हैं। इन नर-राक्षसों को बालक, वृद्ध या नारियों की हत्या में भी संकोच नहीं होता और न अपने दुष्कृत्य पर अपराधबोध की अनुभूति होती है। सतीप्रथा में बलपूर्वक जीवित नारी को जलाना या तीन बार तलाक कहकर किसी वृद्धा को घर से निकाल देना-इनको धर्म संगत लगता है। धार्मिक आस्थाएँ आपस में भी सदैव टकराती है। हर धर्म अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को हेय समझता है। संसार के इतिहास में राजनीतिक कारणों से हुए युद्धों में इतना रक्त नहीं बहा है जितना कि धार्मिक मान्यताओं की टकराहट के कारण बहता रहा है। जिन धर्मों में धर्म प्रचार की महत्ता है, वे सभी धर्म-ईसाई, बौद्ध, इस्लाम आदि अपने को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं।

धर्म के इस विनाशकारी रूप को देखकर कुछ लोगों का धर्म से ही विश्वास उठता जा रहा है। साम्यवाद का जन्म और उसका विश्वव्यापी प्रसार इसी भावना के कारण था किन्तु उसका क्षरण भी बहुत तेजी से हुआ क्योंकि उन्होंने भी अपने सिद्धान्तों की श्रेष्ठता उसी प्रकार प्रमाणित की जिस प्रकार दूसरे धर्म अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हैं। साम्यवादियों ने भी वैचारिक विरोधियों का यातना शिविरों में डालना प्रारम्भ कर दिया। मार्क्स या लाल किताब की महत्ता धर्म के प्रतीकों के समान बढ़ गई। मानवमन की लाचारी है कि वह कहीं न कहीं अपनी आस्था या श्रद्धा को व्यक्त करना चाहता है, अतः आज धर्म स्थान पर गुरुओं एवं गुरुमाताओं की बाढ़ आ गई है। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी की शरण में जाना चाहता है। इन तथाकथित गुरुओं के कारनामे यदाकदा मीडिया तक पहुँच जाते हैं। इनमें आस्था रखनेवाले तो अन्ध श्रद्धालु होते हैं। अतः प्रमाण होने पर भी वे इनको बलात्कारी, भू-माफिया, हत्यारे या सूदखोर आदि नहीं मानते। अपितु गुरु की ही वाणी बोलते हैं कि यह सब विरोधियों का षडयन्त्र है। सूर्य के सम्मुख आँख बन्द करके ये कहनेवाले को कि सूरज छिप गया है, इन्हें कौन समझा सकता है।

इस सबके बाद भी एक वर्ग मानवतावादियों का है। ये मानव सेवा को ही सर्वोच्च मानते हैं। 'परहित सरिस धरम नहीं भाई' ही इनका उद्घोष होता है। इनका विश्वास है कि मानव स्वभाव से बुरा नहीं होता, उसमें सामाजिक परिवेश के कारण बुराईयाँ आती हैं। सामाजिक आवश्यकताएँ उसे छल-कपट, झूठ-बेईमानी, आदि दुर्गणों की ओर धकेलती है। धर्म का वह आन्तरिक रूप, जिसमें सत्य, परोपकार, क्षमा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, पवित्रता, इन्द्रीय-निग्रह आदि की बात की जाती है, समस्त मानवजाति को स्वीकार्य है किन्तु दुर्भाग्य से यह स्वीकृति मात्र शाब्दिक है, व्यावहारिक नहीं।

- डॉ. चंद्रपाल शर्मा

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