Relevance of journalist Premchand
प्रेमचंद जयंती विशेष : प्रेमचंद की पत्रकारिता निष्पक्षता और साहसिकता के साथ-साथ जनमत निर्माण का दस्तावेज है। कथा सम्राट प्रेमचंद एक अच्छे साहित्यकार ही नहीं बल्कि अध्यापक और पत्रकार भी है, 'जागरण' नामक समाचार पत्र तथा 'हंस' पत्रिकाओं का संपादन भी किया है, जागरण और हंस मासिक साहित्यिक पत्रिकाएं है। ऊर्दू पत्रिका जमाना में प्रेमचंद ने नवाबराय नाम से लिखते थे और सरस्वती प्रेस भी प्रेमचंद ने चलाया है। तो आज प्रेमचंद के जन्मदिन पर विशेष पत्रकार के रूप में प्रेमचंद का योगदान क्या है इसके बारे में आज जानकारी प्राप्त करेंगे।
पत्रकारिता के आधारस्तंभ : मुंशी प्रेमचंद
प्रेमचन्द हिन्दी के सत्यवादी युगद्रष्टा पत्रकार थे। खेद की बात है कि बहुत कम लोग प्रेमचन्द को पत्रकार के रूप में जानते हैं। पत्रकार प्रेमचन्द समाज की नौका के खेवैया थे। प्रेमचन्द के संपूर्ण जीवन-वृत्त का अवलोकन किया जाएगा, तो यह बात सामने आएगी कि कहानी, उपन्यास विधा के साथ-साथ 'मर्यादा', 'माधुरी' 'जागरण' और 'हंस' में प्रेमचन्द ने पत्रकार के रूप में अपनी सफल भूमिका का निर्वाह किया। पत्रकार और साहित्यकार के लिए मनुष्यता और करूणा अनिवार्य है। इसके बगैर न वह सफल साहित्यकार हो सकता है और न सफल पत्रकार। पत्रकार और साहित्यकार दोनों अपने समय के साथ जीते हैं और समय के बाद की भी बात सोचते हैं। कहना आवश्यक नहीं कि प्रेमचन्द ने एक साहित्यकार और एक पत्रकार दोनों ही रूपों से हिन्दी की जलती मशाल को नयी रोशनी दी। पत्रकार के रूप में प्रेमचन्द ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दी। 10 मार्च, 1930 को प्रेमचन्द ने 'हंस' का प्रकाशन कर राष्ट्रीय आंदोलन में स्वातंत्र्य सेनानी की भूमिका निभाई। स्वतंत्रता आंदोलन के लिए युवकों को प्रेरित किया। प्रेमचन्द ने 10 मार्च 1930 के अपने पहले संपादकीय में लिखा है-"युवक नई दशाओं का प्रवर्तक हुआ करता है। संसार का इतिहास युवकों के साहस और शौर्य का इतिहास है। जिसके हृदय में जवानी का जोश है, यौवन की उमंग है, जो अभी दुनिया के धक्के खा-खाकर हतोत्साह नहीं हुआ, जो अभी बाल बच्चों की फिक्र से आजाद है, अगर वही हिम्मत छोड़कर बैठे रहेंगे, तो मैदान में आएगा कौन ? क्या उसका उदासीन होना इंसाफ की बात है? आखिर यह संग्राम किस लिये छिड़ा है ? कौन इससे ज्यादा फायदा उठालेगा? कौन इस पौधे के फल खावेगा? बूढ़े चन्द दिनों के मेहमान हैं। जब युवक ही स्वराज्य का सुख भोगेंगे, तो क्या यह इंसाफ की बात होगी, कि वह दबके बैठे रहें। हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि वह गुलामी में खुश हैं और अपनी दशा को सुधारने की लगन उन्हें नहीं है। यौवन कहीं भी इतना बेजान नहीं हुआ करता। तुम्हारी दशा देखकर ही नेताओं को स्वराज्य की फिक्र हुई है। वह देख रहे हैं, कि तुम जी तोड़कर डिग्रियाँ लेते हो, पर तुम्हें कोई पूछता नहीं, जहाँ तुम्हें होना चाहिए वहाँ विदेशी लोग डटे हुए हैं। स्वराज्य वास्तव में तुम्हारे लिये है और तुम्हें उसके आंदोलन में प्रमुख भाग लेना चाहिए।" इस कथन से स्पष्ट होता है कि प्रेमचन्द ने युवकों को स्वार्थमय दुनिया छोड़ने का आग्रह किया है। वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में पत्रकार प्रेमचन्द के इन विचारों को देखा जाए तो यह विचार आज भी प्रासंगिक लगते हैं। वर्तमान युवक आज भारत की हरी-भरी वाटिका में पुरानी रूढ़ियों और ढकोसलों का पुराना, सड़ा-गला ठूंठ जड़मूल से उखड़कर फेंक देना चाहता है। कहना आवश्यक नहीं कि पत्रकार प्रेमचन्द द्वारा युवकों के संदर्भ में लिखे विचार वर्तमान भारतवर्ष के युवकों के लिए आज भी मार्गदर्शक के रूप में परिलक्षित होते हैं।
प्रेमचन्द ने 'हंस' के माध्यम से भारतीय मध्यवर्गीय ग्रामीण जीवन की विषम स्थितियों को पाठकों के सामने रखा। तत्कालीन यथार्थ तथ्यों का विश्लेषण कर भारतीय जनता को सामाजिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का मौलिक मार्गदर्शन किया। पत्रकार के रूप में प्रेमचन्द का प्रभाव समाज के सभी स्तरों में परिलक्षित होता है। प्रेमचन्द ने 'हंस' के माध्यम से समाज की विकल आकांक्षा और अतृप्त कामनाओं का संसार बसाने के लिए अधिक प्रयत्न किए। डॉ. रत्नाकर पाण्डेय कहते हैं- "वस्तुतः प्रेमचन्द ने अपने साहित्य की थोड़ी-सी पूंजी से 'हंस' का प्रकाशन मानवता की वकालत करने के लिए प्रारंभ किया था। 'हंस' के प्रकाशन के साथ हिन्दी की मासिक पत्रिकाओं के क्षेत्र में संपादन कला के नवयुग का सूत्रपात हुआ। प्रेमचन्द ने 'हंस' में राष्ट्रीय संपादन की परंपरा का गौरवशाली पत्रकारिता की पृष्ठभूमि पर विकास करते हुए देशवासियों की आत्मा की आवाज गुंजरित करने का प्रयत्न किया। दमन के दांत तोड़ देने की तमन्ना से प्रेमचन्द ने 'हंस' का संपादन किया। हिन्दी की राष्ट्रीय पत्रकारिता में नये अध्यायों का सूत्र सृजित कर सोये हुए राष्ट्रप्राणों में प्रगति की आकांक्षा का मोह जागृत कर दिया।" परंपरागत दैवी विश्वास के प्रति उनकी आस्था टूट चुकी थी। मानवीय आदर्श ईश्वर-प्रेरित हो सकता है परंतु मानव के नैतिक मूल्यों के निर्माण में ईश्वर का विशेष हाथ नहीं रहता। नैतिकता समाज की मनोदशा से बनती-बिगड़ती है। ऐसे निर्भीक विचारवान समाजचेता पत्रकार प्रेमचन्द अपनी लेखनी की सहज राष्ट्रीय सात्विकता की देन के कारण साहित्यकार से अधिक पत्रकार के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं। पत्रकार प्रेमचन्द की वैचारिक दृष्टि का खुला दस्तावेज उनके द्वारा संपादित 'हंस' में दृष्टिगोचर होता है। 'हंस' द्वारा सामाजिक चेतना की जागरूक सामग्री प्रदान करने के लिए प्रेमचन्द को भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्होंने सिद्ध किया कि पत्रिका की मानवीय चेतना विश्वजनीन होती है। 'हंस' में प्रकाशित विविध रचनाओं में जन-जन की आकांक्षा का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। प्रेमचन्द ने 'हंस' में अधिकांश ऐसी रचनाएँ प्रकाशित की जिनके पात्र जनता के प्रतिनिधि महसूस होते हैं। 'हंस' के संपादक प्रेमचन्द तत्कालीन जन-चेतना के ही नहीं बल्कि वर्तमान जन-चेतना के भी वैचारिक नेता प्रतीत होते हैं। प्रेमचन्द ने प्रचलित रूढ़ियों के विरोध में 'हंस' के माध्यम से अपने विचार प्रस्तुत किए जो आज भी प्रासंगिक है। इसे मानना होगा।
उर्दू, हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी, अरबी, रशियन, मराठी, कन्नड़ और बंगला आदि भाषा पूरे अधिकार के साथ प्रेमचन्द बोलते और लिखते भी थे। मराठी के साहित्यकार पं. आनंदराव जोशी जी के साथ उनका पत्राचार मराठी में रहा। मार्च 1930 में 'मुक्त-मंजूषा' नामक 'हंस' में स्तंभ छपा है। इस स्तंभ के लिए सामग्री मंगवाने के लिए प्रेमचन्द भारतीय भाषाओं में सीधा पत्राचार करते थे। गुजरात के छन्नूलाल द्विवेदी, बंगला के चण्डीका प्रसाद अवस्थी, उर्दू के सुशील, अंग्रेजी के मि. सोमण से हुआ पत्राचार प्रेमचन्द की भाषाप्रभुत्व का परिचय कराता है। 'हंस' में भारतीय भाषाओं का साहित्य नागरी लिपि के माध्यम से प्रकाशित होने के कारण उसी समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य का प्रतिनिधित्व करने का 'हंस' को ऐतिहासिक अवसर मिला। उदाहरण के रूप में देखा जाय तो जनवरी, 1931 के अंक में जयशंकर प्रसाद जी की कविता 'प्रलय की छाया' के साथ श्रीयुत वैषम्य मिटा देना चाहते हैं। उनकी यह आर्थिक संचेतना भारतीय वातावरण प्रस्तुत पूर्णतः व्यावहारिक है, क्योंकि आर्थिक समस्याओं के चित्रण में उन्होंने युग और समाज को सतत दृष्टि में रखकर 'हंस' का संपादन किया है। पत्रकार प्रेमचन्द की विचारधारा में नवयुग का स्पष्ट परिवर्तन दिखाई पड़ता है। जो आज भी प्रासंगिक है।
हिन्दी पत्रकारिता की संघर्ष यात्रा के एक समर्थ सेनानी प्रेमचन्द हैं। हिन्दी पत्रकारिता का जो परिवेशगत स्वरूप आज परिलक्षित होता है, उसमें उनका योगदान आधारभूत रूप में महत्त्व रखता है। धार्मिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों के खंडन-मंडन की प्रवृत्ति को आधार बनाकर प्रेमचन्द ने समय-समय पर धार्मिक पाखंडियों के खिलाफ लड़े जा रहे विभिन्न आंदोलनों को बल देने के लिए सामग्री का संपादन कर धार्मिक परिवेश में उठे बवंडर पर तीखा प्रहार किया हुआ परिलक्षित होता है। पत्रकार प्रेमचन्द शुरू से ही जागरूकता, प्रबुद्धता और चेतना के पक्षधर रहे हैं। पत्रकार प्रेमचन्द ने भारतीय गाँवों की गरीबी और दुर्दशा, ग्रामीणों के अन्धविश्वास और कुरीतियों, कर्ज के बोझ से दबे हुए किसानों, उनके तीज-त्योहारों और गाँव के सरल तथा निश्छल जीवन का वर्णन कर पाठकों के सामने सामाजिक चेतना के तत्त्व प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कहना आवश्यक नहीं कि पत्रकार प्रेमचन्द आज भी प्रासंगिक हैं।
- डॉ. साताप्पा ल. चव्हाण
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