भक्ति की अवधारणा : The concept of devotion

Dr. Mulla Adam Ali
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The concept of devotion

The concept of devotion

भक्ति की अवधारणा

प्राचीन समय से मानव इस सृष्टि की ओर कुतूहल एवं जिज्ञासा की भावना से देखता आ रहा है। इस संपूर्ण सृष्टि का रचयिता कौन होगा? उसका स्वरूप कैसा होगा? इसके बारे में सोचते हुए मानव ने अपनी ईश्वरीय खोज यात्रा की शुरूआत की और इन सवालों को ढूँढते- ढूंढते रहस्यवाद का जन्म हुआ। मानव का इस सृष्टि के सृजनकर्ता के बारे में सोचना ही रहस्यवाद का आरंभ है।

सृष्टि के आदि मानव ने जब अपनी आँखे खोलकर देखा तो उसे अनंत रमणीय प्रकृति का साक्षात्कार हुआ। धरती, आकाश, मेघ, सागर, पवन, वर्षा, नदियाँ, सूर्य, चंद्रमा, सितारे यह सब देखकर उसे निश्चित ही आश्चर्य प्रतीत हुआ होगा। उससे कहीं अधिक आश्चर्य उसे तब हुआ होगा कि यह सब सृष्टि का व्यापार विशिष्ट बंधन से व्याप्त है। किसने यह सारा प्रबंध किया और इसी कारण उसने कुतूहल और जिज्ञासा की भावना से उनके हल ढूँढना उसने आरंभ किया होगा। यहीं से रहस्य और रहस्यवाद की भावना का उदय हुआ होगा।

रहस्यवाद का स्वरूप एवं विवेचन :

'रहस्य' इस शब्द के निम्नलिखित शब्द

शब्दकोश में प्रयुक्त किए जाते हैं- A Secret, Mystery, Secrecy आदि।¹

रहस्यवाद के लिए अंग्रेजी में एक और शब्द है- Mysticism जिसकी परिभाषा इस प्रकार है।

"Teaching & belief that knowledge of God & of real truth may be obtained through meditation or spiritual insight independently of the mind & the sense. It also means a theory postulating the possibility of direct & intuitive acquisition of ineffable knowledge & power. It is only a temper or a mood. It has no doctrine or a systematic philosophy of life."²

अर्थात ईश्वर के बारे में ज्ञान, विश्वास और सीख तथा सत्य की खोज ध्यान साधना के माध्यम से मन और संवेदना में जागृत कराना। यह केवल मन की अनुभूति का विषय है। इसकी कोई निश्चित शास्त्रीय परिभाषा नहीं दी जा सकती।

आगे उसका स्पष्टीकरण इस तरह से दिया गया है-

"A mystic understand a words of divine reality behind & within this world. He thinks that this external universe always speaks through his sense, to his soul. He believes that he supreme soul or God is on & the same & that it animates Man as well as Nature. He thus works out identify of Being between Man, Nature & God. He sees, "one undivided changeless life in all lives, one inseperable in the superate." All things in this visible world are different, manisfestations of the one divine Life.

A mystic is anti-rational & unscientific. He reaches the truth not by reason but by intuition. He also believes that the Human soul is eternal. The body dies & decays but the soul lives on."³

अर्थात गूढवादियों के अनुसार मानव उस ईश्वरी सत्ता के बारे में सदैव सोचता रहता है। यह सोचने की भावना किसी शास्त्रीय सिद्धांत के नियमों के अनुसार नहीं होती बल्कि यह अनुभूति की बात है जहाँ आत्मा उस दिव्य, ईश्वर के प्रति अपना संबंध स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहती है। मानव, प्रकृति और ईश्वर के मध्य स्थापित भाव गूढवाद है। जो केवल प्रतिभा के सहारे हम जान सकते हैं। अंत में आत्मा शाश्वत और अमर होती है केवल शरीर का नाश होता है यह पंक्ति हमें भगवत्गीता के उन पंक्तियों का स्मरण दिलाती है, जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोपराणि

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयांति नवानि देही।"⁴

क्योंकि इसका उत्तर श्रीकृष्ण इन शब्दों में देते हैं-

"नैनं छिदंति शस्त्राणि, नैन दहति पावकः

न चैनं क्लेदयत्यां पो न शोषयति मारूतः"⁵

और एक स्थल पर रहस्यवाद की परिभाषा देखिए रहस्यवाद को अलौकिक प्रेम की संज्ञा से भी जाना जाता है। अंग्रेजी में शब्द प्रयुक्त हुआ है Plutanic Love जिसकी व्याख्या इस प्रकार से दी गई है-

Spiritual Love in which the beyond's beauty is considred a reflection of the beauty of the soul, non physical love.⁶

इन सब का निचोड इन शब्दों में दिया जा सकता है-रहस्यवाद वह प्रवृत्ति है जिसमें जीव अर्थात आत्मा उस दिव्य, अलौकिक शक्ति अर्थात परमात्मा से अपना संबंध जोडना चाहती है और यह संबंध यहाँ तक बढ जाता है कि जहाँ आत्मा और परमात्मा में पूर्णरूपेण विलय होती है जो मोक्ष अथवा मुक्ति कहलाती है।

ईश्वरीय सत्ता के प्रति सोचनेवाले दार्शनिक भी थे और भक्त भी इसलिए इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए बुद्धि का सहारा लिया तो साधकों ने हृदय का अर्थात साधना का सहारा लिया।

रहस्यवाद में हृदय पक्ष का प्राधान्य होता है। वैसे उस रहस्यमयी अव्यक्त सत्ता के प्रति श्रद्धा का होना आवश्यक है और अंतिम परिणति उसकी इस रूप में सामने आती है-

Mysticim indeed implies the abolition of individualities. अर्थात रहस्यवाद में व्यक्तित्व के विलयन की परम आवश्यकता है।'⁷

जैसे कि ऊपर हमने देखा है आधुनिक हिंदी रहस्यवाद पर उपनिषदों के चिंतन, नाथ तथा योग संप्रदाय की साधना पद्धति, सूफी मत के प्रेमतत्व, बौद्धों के क्षणिकवाद एवं दुखवाद और कबीर के रहस्यवाद का प्रभाव भी पर्याप्त मात्रा में पडा है।

इन सारी ऊपरी बातों को मद्देनजर रखते हुए हम अंत में इस निष्कर्ष पर आकर पहुँचते हैं कि रहस्यवाद एक विशिष्ट मनोदशा है जिसका संबंध नाना नामरूपात्मक दृश्यमान जगत् के कारण रूप में स्थित अव्यक्त परब्रह्म के अव्यक्त अथवा व्यक्त रूप से है। रहस्यवादी व्यक्ति उस चरमसत्ता से अपना साक्षात्कार रागात्मक संबंधों की स्थापना द्वारा ही कर सकता है। यह रहस्यवादी मनोदशा भावात्मक है, बुद्धिगम्य नहीं है।

औपनिषदिक रहस्यवाद :

रहस्यवाद का मूल उपनिषदों की भूमिपर प्रस्फुटित हुआ है। प्राचीन काल से सत्य के अन्वेषक ऋषिमुनियों ने विश्व के निर्माता को जानने का प्रयास किया। परंतु जब वे अंत में किसी निश्चिय नतीजें पर नहीं पहुँचे तब उन्होंने परब्रह्म को ही इस सृष्टि का जनक तथा निर्माता मान लिया। और यहाँ जीव, ब्रह्म, जगत और माया की कल्पना की। परब्रह्म इसी जगत में व्याप्त होता है परंतु 'माया' के कारण वह हमें दिखाई नहीं देता। जिस समय माया का परदा हट जाता है हमें परब्रहम की झाँकी दिखाई देती है। इसलिए यह सर्वोच्च विद्या है ऐसा माना गया है।

जब आत्मा (जीव) इस परमात्मा (परब्रह्म) से मिल जाती है तब वह न तो पाप-कर्म में ही लीन होता है और न अविद्या की ग्रंथियों तथा संशय एवं कर्म विपाक से ही पीडित होता है। मुंडकोपनिषद का श्लोक इस संदर्भ में द्रष्टव्य है -

"भिद्यते हृदयग्रंथिश्छियंते सर्वसंशयः

क्षीयंते चास्य कर्माणि तस्मिंदृष्टे परावरे ।।

हिरण्मये परे कोशे विरज ब्रह्म निष्कलम्

तत् शुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदों विदुः ।"⁸

विश्व में जो भी प्रकाशमान पदार्थ है उनकी ज्योति यह ब्रह्म है यह आत्मविद् मनुजों का कथन है क्योंकि यह उनकी आत्मानुभूति है।

आत्मा में भी ब्रह्म का साक्षात कार देना बुद्धि का विषय नहीं है। जैसा कि ऊपर कहा गया है इसे तो स्वानुभूति द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि मुंडकोपनिषद और कठोपनिषद में वहीं बातें एक ही श्लोक के माध्यम से स्पष्ट की गई है-

"नायनात्मा प्रवचनेन लभो न मेधया न बहुना श्रुतेन यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस् तस्यैष आत्मा पिवृणते तनु स्वाम।"⁹

अर्थात प्रवचनों, बुद्धि और वेदाभ्यास के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होता। परंतु जिसने परमात्मा अपना ध्येय माना है उसे ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है क्योंकि स्वयं ईश्वर उसके शरीर में आत्मरूप में वास करता है।

यद्यपि वह चक्षु और वाक् आदि इंद्रियों द्वारा अलभ्य है तथापि उसे मन अथवा रागात्मक वृत्तियों से ही जाना जा सकता है-

"न सदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् हृदा हृदिस्थं मनसा य एन मेव विदुर मृतारते भवंदि।"¹⁰

यद्यपि परब्रह्म अतिंद्रिय है तथापि इंद्रियों की शक्ति का कारण प्रेरक तथा अधिशासक होने से वह विराटरूप वाला है। श्वेताश्वेतरोपनिषद के अनुसार-

"सहस्त्रशीर्षा पुरूषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्स

 भूमि विश्वतो वृत्वात्यति ष्ठद्यशांगुलम।"¹¹

उपनिषद में ब्रह्म की सर्वव्यापकता का भी वर्णन मिलता है। उसका निवास संपूर्ण जगत्, जीव एवं वातावरण में है-

"एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतांतरात्मा

कर्माध्यक्ष सर्वभूताधिवास साक्षीचेताकेवलो निर्गुणश्च।"¹²

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारत में सर्वप्रथम उपनिषदों के माध्यम से रहस्यवाद का बीज फल- फूलकर एक वट वृक्ष की भांति अपना रूप धारण कर चुका है।

भारत में जो भक्ति की लहर उठी तो जिसमें सारा भारत भक्ति के रंग में इस कदर डूब गया है कि जिससे आज भी वह मुक्त नहीं हो सका है।

भक्ति का स्वरूप :

मानव मन विविध भावनाओं का कोश है जिसमें प्रमुख भाव प्रेम है। 'प्रेम' यह शब्द 'प्रिय' का भाववाचक रूप है। लौकिक में जो 'प्रेम' है वह अलौकिक क्षेत्र में 'भक्ति' है।

'प्रेम' यह अनुभवैकगम्य है। वह वाणी का विषय नहीं बल्कि मुकास्वादनवत् अनिर्वचनीय है। पहले तो विषयों से उत्पन्न होता है परंतु गुणात्मक कारणों से निर्मित यह प्रेम वाद में भावात्मक और विषय-निरपेक्ष बन जाता है जिसका दूसरा रूप भक्ति बन जाता है। नारद- भक्तिसूत्र में नारद इसकी परिभाषा इन शब्दों में देते हैं-

"अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूपम। मुकास्वादनवत् । प्रकाशते क्वापि पात्रे ।

गुणरहितं, कामनारहितं, प्रतिक्षण वर्धमानमविच्छिन्न सूक्ष्मतरमनुभवस्वरूपम्।''¹³

इसलिए हम कह सकते हैं कि प्रेम और भक्ति एक ही साधना के दो अंग हैं। लोक में जो प्रेम अपनी पराकाष्ठा में वासना में परिणत होता है, आध्यात्मिक क्षेत्र में वही प्रेम भक्ति का रूप धारण करता है। यही कारण है कि प्रत्येक भक्त कवि ने अपने-अपने ढंग से प्रेम का स्वरूप निर्धारित किया है और उसकी अभिव्यक्ति की है। कबीर के अनुसार प्रेम की उपलब्धि आसान नहीं है उसकी प्राप्ति वही कर सकता है जो स्वयं का बलिदान करते हैं-

"यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहि

सीस उतारे भुई धरें, तब पैठे घर माँहि।'¹⁴

प्रेम की पीडा भक्ति में अभिप्रेम है और सूफी संप्रदाय में तो प्रेम और विरह की पीडा को ही भक्ति कहा गया है। सूफी विचारधारा, प्रेम और पीडा की विचारधारा है। भगवान के बिना भक्त को अपना जीवन तक शून्य प्रतीत होता है। भगवान के दर्शन की आकांक्षा भक्त के अंतकरण में सदैव बहती है उसी आकांक्षा का नाम, पीडा का नाम भक्ति है।

भक्ति की परिभाषा :

भक्ति शब्द की व्यत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है जिसका अर्थ है भजन इसलिए भक्ति का अर्थ है भगवान का भजन अथवा स्मरण।¹⁵

मानव आनंद प्राप्ति के लिए जीवनभर सदैव प्रयास करता है। सुख की प्राप्ति उसका ध्येय होता है परंतु संसार के सारे सुख और आनंद के साधन क्षणभंगुर और विनाशी है इसलिए उसके जीवन में आनंद चिरकाल तक नहीं रहता परंतु भगवान की भक्ति से उसके मन में सुख दुख की भावना खत्म होती है और उसे अक्षय आनंद की प्राप्ति होती है परंतु मनुज इस बात को समझ नहीं पाता इसलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

"ये हि संस्पर्शजाभोगा दुखयोनज एव ते।

आयंतवंतः कौंतेय न तेषु रमते बुधः ।।"¹⁶

महर्षि नारद के अनुसार भक्ति प्रेम स्वरूपा और अमृतस्वरूपा है जिसे प्राप्त करके मनुष्य सिद्ध, अमर तथा तृप्त हो जाता है-

"तस्मिन् परमप्रेमरूपा, अमृतरूपाच। यल्लब्धा पुत्रान् सिद्धोभवति,

अमृतोभवति, तृप्ति भवति ।।"¹⁷

तो भागवतकार के अनुसार सांसारिक विषयों का ज्ञान देनेवाली इंद्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति निष्काम रूप से जब भगवान की ओर मुडती है तो उसे भक्ति कहते

"देवानां गुणलिंगानामनु श्राविक कर्मणाम सत्त्व एवैक मनसों वृत्तिः

स्वाभाविकीतुयाऽनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरीयसी।।'¹⁸

भक्त भगवान को विविध रिश्तेनातों के रूप में स्वयं को जोडता है। क्योंकि भक्त और भगवान का रिश्ता इन शब्दों में अभिव्यक्त हुआ है-

"त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव।।"¹⁹

भक्ति में समर्पण भावना सर्वोच्च होती है जिसके कारण भक्त और भगवान बहुत नजदीक आते हैं-

"कायेनवाचा मनसेंद्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वाऽनुसृतः स्वभावात ।

करोमि यद्यत सकल परस्मैं नारायणायेति समर्पयामि।।"²⁰

भागवत में भक्ति के नौ प्रकार स्पष्ट किए गए हैं-

"श्रवण, कीर्तनं, विष्णो स्मरंण पदसेवनम ।

अर्चन बंदंन दास्य सख्यमात्मानिवेदम् ।।"²¹

वैष्णव भक्ति-पद्धति में 'नवधा भक्ति' को पूर्ण महत्व दिया गया है। नवधा भक्ति के नौ सोपान हैं जो क्रमशः श्रवण, कीर्तन, पदसेवा, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन जिनकी सहायता से भागवत् भक्ति की जाती है।

श्रीहरि के चरणों में हमारा मन अनुरक्त हो वहीं भक्ति मानव का परम धर्म है जिससे मनुज जीवन सार्थक होता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार-

"स वै पुंसां धर्मों यतो भक्तिरधोक्षजे

अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसादति ।

वासुदेव भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः

जनयत्यशु वैराग्य ज्ञानंच यहदैतुकम।।"²²

अर्थात भक्ति ही जीव का परम धर्म है।

भक्ति के मुख्यतः दो प्रमुख मार्ग हैं-

1. निर्गुण भक्ति

2. सगुण भक्ति

उपनिषदों में वर्णित ईश्वर का स्वरूप मूलतः निर्गुण, निराकार इंद्रियों को अगम्य, अरूप और अगोचर है तो सगुण विचारधारा में ईश्वर सगुण, साकार, इंद्रियगम्य, सरूप और दृष्टिगोचर है।

इसलिए अंत में केवल यही कहा जा सकता है कि भक्त को ईश्वर का जो रूप भाता है भक्त उसी प्रकार उसी मार्ग के माध्यम से ईश्वर की आराधना करता है। भक्ति का अंतिम ध्येय ईश्वर की प्राप्ति और उससे मोक्ष अथवा मुक्ति ही है।

जब मानव भगवान की आराधना करता है तो उसके लिए वहाँ तीन सोपानों का होना अनिवार्य है। प्रेम का दूसरा अर्थ श्रद्धा भी है अतः प्रेम से भक्ति की ओर जाने के लिए प्रीति का रास्ता अपनाना पडता है। और तभी मुक्ति संभव है। इसलिए-

प्रेम - प्रीति - भक्ति - मुक्ति (मोक्ष)

इस प्रकार से हमने यह देख लिया की निर्गुण भक्ति इन दोनों की अंतिम मंजिल ईश्वर प्राप्ति और मोक्ष ही है।

अर्थात कुछ भक्त कवि मुक्ति को हेय मानते हुए भक्ति में ही डूबना चाहते हैं यह अलग बात है परंतु रहस्यवाद की अंतिम परिणति यह मुक्ति में ही होती है।

संदर्भ - 1. Oxford Dictionary - Dr. S.P. Sharma P.No. 506

2. A Handbook of Literary terms Jacob Abraham P.No. 82

3. A Handbook of Literary terms Jacob Abraham P.No. 82

4. श्रीमद्भगवत गीता श्लोक 1-22

5. श्रीमद्भगवत गीता श्लोक 1-22

6. Dictionary of Literary term - N.R. Pathak P.No. 212

7. कविवर सुमित्रानंदन पंत और उनका तारापथ - डॉ. कृष्णदेव शर्मा पृ.क्र. 66

8. मुंडकोपनिषद सं. स. कृ देवधर 2-2-8, 9

9. मुंडकोपनिषद सं. स. कृ देवधर 3-2-3

10. श्वेताश्वेतरोपनिषद वल्ली 4-20

11. श्वेताश्वेतरोपनिषद वल्ली 3-3-14

12. श्वेताश्वेतरोपनिषद वल्ली 6-11

13. नारद भक्तिसूत्र - सं. स्वामी चिन्मयानंद श्लोक 51, 52, 53, 54

14. कबीर ग्रंथावली सं. डॉ. श्यामसुंदर दास दोहा 19 पृ. क्र. 54

15. गीर्वाण लघु कोश सं.ज.वि. ओक पृ.क्र. 352

16. श्रीमद्भगवत गीता श्लोक 5-22

17. नारद भक्तिसूत्र - सं. स्वामी चिन्मयानंद श्लोक 2, 3, 4

18. श्रीमद्भागवत श्लोक 3-25, 32, 33

19. प्रपन्नगीता श्लोक 28

20. श्रीमद्भागवत श्लोक 2-36

21. श्रीमद्भागवत श्लोक 7-5-23

22. श्रीमद्भागवत श्लोक 1-2-26

- डॉ. विजय महादेव गाड़े

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