राष्ट्र की संकल्पना और राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप

Dr. Mulla Adam Ali
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The concept of nation and the nature of national consciousness

The concept of nation and the nature of national consciousness

राष्ट्र की संकल्पना और राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप

राष्ट्र की संकल्पना : स्वरूप और परिभाषा

राष्ट्र सर्वथा आधुनिक संकल्पना नहीं है। विश्व के अत्यन्त प्राचीन आदि ग्रन्थ 'ऋग्वेद' में 'राष्ट्र' शब्द बार- बार आता है। दसवां मण्डल इसका प्रमाण है जिसमें राष्ट्र का मुख्य पुरोहित राजा को अभिषक्त करने के परान्त उसको उपदेश और आदेश देता है- "इह राष्ट्रमु धारय।"¹ अथर्व वेद में भी राष्ट्र के सन्दर्भ में "सानो भूमि स्त्विषि बलं राष्ट्र दधात्तृत्त"² में कहा गया है। याज्ञवल्क के शुक्लयजुर्वेद में भी-"आ राष्ट्र राजन्यः शूर इषाव्योतिव्याधो महारथो जायताम्"³ अर्थात् हमारे राष्ट्र में शूर, धनुर्धरि, युद्धकला निपुण क्षत्रियों का जन्म हो इस तरह का उल्लेख मिलता है। 'शतपथ ब्राह्मण' ग्रन्थ में भी कहा गया है- "राजानो वै राष्ट्रभृतस्ते हि राष्ट्राणि बिभ्रति।"⁴

इस तरह 'राष्ट्र' की संकल्पना प्राचीन है जिसके अन्तर्गत भूमि, उसकी सुरक्षा, सम्पन्नता के लिये आवश्यक राजा एवं प्रजा की जिम्मेदारियों का विस्तृत विवेचन मिलता है।

'राष्ट्र' शब्द का अर्थ : 'राष्ट्र' शब्द का अर्थ है देश, राज्य, जाति' इत्यादि। 'राष्ट्र' का अर्थ है राज्य में बसने वाला जन- समुदाय जिसमें जिला, प्रदेश, देश, अधिवासी, जनता, प्रजा का समन्वित स्वरूप निहित होता है।

'राष्ट्र' शब्द की व्युत्पत्ति : 'राष्ट्र' शब्द 'सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन' उणादिन प्रत्यय के संयोग से 'रासु शब्दे' अथवा 'राजू शोभते' धातु से बनता है। संस्कृत का 'राष्ट्रम्' शब्द राज+ष्ट्रन शब्दों के मेल से बनता है जिसका अर्थ है राज्य, देश, साम्राज्य अर्थात्- राष्ट्रदुर्गबलानि च इत्यादि। यह एक पुरुषवाचक संज्ञा है जिसमें राज (दीप्ति) + ष्ट्रन शब्द आते है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से इस तरह राष्ट्र एक संयुक्त शब्द है।

राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप : राष्ट्र का स्वरूप 'स्व' से प्रारम्भ होता है। 'स्व' राष्ट्र का मूल बिन्दु है और व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र आदि सब 'स्व' के विस्तार का परिणाम है। राष्ट्र में ही 'स्व' परिवार और समाज आदि सब समाविष्ट हो जाते हैं। अतः 'अहं' से 'आवाम्' और आवाम् से 'वयम्' तक क्रमशः बढ़ते-बढ़ते 'राष्ट्र' तक पहुँचा जा सकता है। अर्थात् 'स्व' का विस्तृत, विशाल 'अहं' से हम तक का भाव जिसमें परिवार, समाज और उसके आवश्यक पादानों का समावेश हो, उसे राष्ट्र के रूप में पाया जा सकता है। राष्ट्र सिर्फ निर्जीव पहाड़ों पत्थरों से घिरा हुआ भू-भाग नहीं होता। उसमें स्व की विस्तृत मानसिकता का संगठित स्वरूप भी समाविष्ट रहता है। यह मानसिकता किसी भू-भाग में समूह स्वरूप में बसे जन-जन की मनोभूमि की होती है जिसका केन्द्र बिन्दु 'राष्ट्र' होता है। इस सन्दर्भ में डॉ. चन्द्रप्रकाश आर्य का यह कहना उचित लगता है कि "किसी विशिष्ट भू-भाग के प्रति अविचल मानसिक निष्ठा के उदय से ही राष्ट्र का उदय होता है।"⁵ "चारित्र्य, कर्तृत्व तथा राष्ट्राभिमान इस गुण त्रयी पर राष्ट्र का निर्माण निर्भर करता है।"⁶ अथर्वेद के पृथिवी सूक्त में मातृभूमि के बारे में जो कुछ कहा गया है वह राष्ट्र के सन्दर्भ में भी लागू होता है। "मातृभूमि के गुण ही राष्ट्र के गुण हो सकते हैं।"⁷ भूमि को माता कहा गया है जिससे राष्ट्र के लिए भूमि की आवश्यकता एवं महत्व स्पष्ट होता है। परन्तु राष्ट्र केवल भूमि नहीं है। "भूमि और इस पर बसने वाले जन अर्थात् भूमिपुत्रों के सहयोग से 'राष्ट्र' बनता है।"⁸

'शुक्रनीति' में राज्य के जो सात अंग माने गये हैं- राजा मन्त्री, मित्र, कोण, राष्ट्र, दुर्ग तथा बल इनमें राष्ट्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग अर्थात् राज्य के पैर' के रूप में मान गया है। 'राष्ट्र' की यही कल्पना पृथ्वी और पृथ्वी- पुत्र के पारस्परिक सम्बन्ध पर निर्भर है। परन्तु इन दोनों के साथ जन-संस्कृति' भी महत्वपूर्ण है। पृथ्वी अर्थात् भूमि, वहाँ के निवासी और जनसंस्कृति इन तीनों के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है। "भूमि अर्थात् भौगोलिक एकता, जन अर्थात् जन-गण की राजनैतिक एकता और जन-संस्कृति अर्थात् सांस्कृतिक एकता इन तीनों के समुच्चय का नाम 'राष्ट्र' है।"⁹ भूमि राष्ट्र का शरीर है, जन उसका प्राण है और जनसंस्कृति राष्ट्र का मन है। इन तीनों के सुन्दर सम्मिलन से और उन्नति से राष्ट्र की आत्मा का निर्माण होता है। इन तीनों के सम्मिलन का ही नाम है सच्चा, सम्पूर्ण तथा जीवन्त 'राष्ट्र'।

'राष्ट्रीयता' अथवा 'राष्ट्रीय भावना' जब तक 'राष्ट्रीयचेतना' नहीं बनती तब तक उसमें सम्पूर्णता परिलक्षित नहीं होती। "भावना में श्रद्धा, निष्ठा तथा भक्ति तो होती है।"¹⁰ परन्तु कभी-कभी ज्ञान, विवेक तथा जगृति का अभाव-सा रहता है। 'चेतना जिसका अर्थ होता है, चैतन्य, ज्ञान, होश,' बुद्धि मनोवृत्ति, ज्ञानात्मक मनोवृत्ति इत्यादि । अतः भावना का एक और अगला पड़ाव सामने आता है 'चेतना' के रूप में जिस में श्रद्धा, निष्ठा और भक्ति के साथ ज्ञान, विवेक और जागृति का समन्वय स्थापित हो जाता है।

"राष्ट्रीयता चेतना का विषय है जो मानव जाति की मूलभूत अनुभूतियों में से एक है।"¹¹ राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय भावना की गामी चैन्य-यात्रा का नाम ही 'राष्ट्रीय चेतना है'। क्योंकि, 'चिति' (अर्थात् चैतन्य) चैतन्य- यात्रा का नाम ही राष्ट्रीयत्व की द्योतक है। किसी भी राष्ट्र का अस्तित्व उस राष्ट्र की 'चिति' के उत्थान और पतन के साथ राष्ट्र का उत्थान और पतन होता है। जिस तरह व्यक्ति की आत्मा होती है उसी तरह राष्ट्र की भी आत्मा होती है जिसको शास्त्रविदों ने 'चिति' कहा है जिसको अन्य शब्द में 'राष्ट्रीय चेतना' कहा जाता है। यह "मानव की एक मूलभूत आन्तरिक चेतना है, एक प्रकार की साहचर्य भावना है जिसका विकास एकानुभूति रखने वाले जनसमुदाय में होता रहता है।"¹² राष्ट्र के सम्बन्ध में साहचर्य भावों के साथ प्रस्फुटित का सही, सम्पूर्ण और सुयोग्य स्वरूप है। परन्तु सतही तौर पर भाषा में इसके लिए राष्ट्रीयता, राष्ट्रीयत्व, राष्ट्रीय भावना और आधुनिक युग में विशेषतः पश्चिम के सन्दर्भ में तो इसके लिए 'राष्ट्रवाद' शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। लेकिन 'राष्ट्रीय चेतना' शब्द में सही और सम्पूर्ण भावार्थ छिपा हुआ है।

जब से राष्ट्र का निर्माण हुआ है, राष्ट्रीय चेतना भी उत्पन्न हुई है, अपितु राष्ट्र से भी पहले राष्ट्रीय चेतना जागृत होती है जिसके सहारे बाद में राष्ट्र निर्माण का कार्य किया जाता है। पहले राष्ट्रीयत्व-अर्थात् 'राष्ट्रीय चेतना + राज्य = राष्ट्र बनता है' राष्ट्रीय चेतना राष्ट्र की जननी है, उसकी धारण शक्ति है। वह मानव मन में प्रदुर्भूत एक अत्यंत प्रबल भावना है। जो उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करती है, जिनमें हर मोर्चे पर आगे और आगे हो बढ़ने का भाव बलवत्तर बना रहता है, पीछे मुड़ना या ठहराव राष्ट्रीय चेतना की नियि कभी रही ही नहीं है।

अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में मातृभूमि की वंदना में जो कहा गया है-मनो मात्रै पृथिव्यै, नमो मात्रे पृथिव्यै माताभूमि की वंदन करने का यह भाव 'राष्ट्रीय चेतना' है। "माताभूमि पुत्रोग्हं पृथिव्याः" की दृढ़ प्रतीति राष्ट्रीयता की नींव है।"¹³ भूमि को माता और अपने आप को उसका पुत्र मानने की सामूहिक चेतना इसमें स्पष्ट परिलक्षित होती है। वेदों में इस तरह के अनेक वचन हैं जिससे उच्चतर राष्ट्रीय भावना जागृत होती है।

राष्ट्र और राष्ट्रीयता उत्तरोत्तर विकसित होने वाली चेतना है। अतः राष्ट्रीय चेतना का आधुनिक स्वरूप उसके प्राचीन रूप से भिन्न हो सकता है। इन दिनों राष्ट्र पूर्णतः आज के अर्थ में न हों, कुछ विस्तृत या सीमित हो, जो भी हो पर इतना स्पष्ट है कि प्राचीन ग्रंथों में प्रयुक्त 'राष्ट्र' शब्द केवल जनपद, राज्य या देश का पर्याय नहीं है। उसका विशेष अर्थ है, और वह अर्थ आज के 'राष्ट्र' का प्रस्थान बिन्दु है। इसी तरह राष्ट्रीय चेतना से सम्बन्धित जो वचन तत्कालीन ग्रन्थों में मिलते हैं वे भी आज की राष्ट्रीय चेतना का 'प्रस्थान बिन्दु' हैं। वह राष्ट्रीयता कहीं राष्ट्रवाद का रूप धारण कर लेती है जिसमें एक मानव समाज की स्वयं के राजकीय संगठनकी तीव्र कामना निहित रहती है। यह भी राष्ट्रीयता का प्रगतिशील रूप है, पर है यह भी एक प्रकार की राष्ट्रीय चेतना जो व्यक्ति में स्पंदित रहती है, जिसके मूल में देशभक्ति बीज रूप में सुरक्षित रहती है। आधुनिक संदर्भों में नए अर्थ में राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रीय चेतना अथवा राष्ट्रवादी भावना का स्वरूप मुखर होता है। आधुनिक युग में राष्ट्रीयता की भावना पर उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि का गहरा प्रभाव है। राष्ट्रीयता मूलतः एक भावना है जिसमें दो तरह की सत्ताओं के प्रति निष्ठा का समावेश किया गया है- (अ) आंतरिक सत्ता के प्रति निष्ठा और (ब) (बाह्य सत्ता) के प्रति निष्ठा।

(अ) आंतरिक सत्ता के अन्तर्गत राष्ट्र की (1) सांस्कृतिक चेतना, (2) धार्मिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चेतना, (3) ऐतिहासिक परंपराओं के प्रति सजगता, (4) सामाजिक-सामूहिक चेतना, (5) राजनीतिक चेतना, (6) साहित्यिक चेतना, (7) भाषागत चेतना इत्यादि चेतनाओं का समावेश रहता है।

(आ) बाह्यसत्ता के अन्तर्गत (1) भौगोलिक सीमाएँ अथवा भूमि (2) प्राकृतिक सौंदर्य इत्यादि चेतनाओं को महत्वपूर्ण माना गया है।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र के मतानुसार 'राष्ट्रीय चेतना अपने प्रशस्त स्थिति में दोनों निष्ठाओं के साथ होती है।¹⁴ अतः स्पष्ट है कि राष्ट्रीय चेतना के अन्तर्गत भौगोलिक सीमाओं के प्रति सजगता अथवा भूमि-प्रेम, अपनी भूमि के प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति आकर्षण, राष्ट्र की संस्कृति, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, साहित्य, भाषा तथा ऐतिहासिक परम्पराओं के प्रति प्रेम-भावना आदि का तत्वरूप में समावेष रहता है।

इनके अतिरिक्त आधुनिक राष्ट्रीय चेतना की संकल्पना में जिन सहायक तत्वों का समावेश मिलता है उनमें देश की स्वतन्त्रता की अभिलाषा और उसके लिए आवश्यक बलिदान, त्याग एवं समर्पण की भावना, अपने राष्ट्र की सम्पन्नता की कामना, एकता और अखंडता की भावना और अंत में विश्वबंधुता की विशाल मनोकामना आदि महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

सहायक ग्रंथ सूची :

1. ऋग्वेद, मंडल 10 सूक्त 173/2.

2. अथर्ववेद, 12/1/8.

3. शुक्लयजुर्वेद, 22/22

4. शतपथ ब्राह्मण, 9/41/1

5. डॉ. चन्द्रप्रकाश आर्य, राष्ट्रीयता की अवधारणा और पं. श्यामनारायण पाण्डेय का काव्य, पृ. 19.

6. ले.रा.प्र. कानिटकर, कविन्द्र रविन्द्रनाथ टैगोर, पृ.120.

7. वासुदेव शरण अग्रवाल, भारत की मौलिक एकता, पृ.76.

8. सं. शशिशेखर तिवारी, हिन्दी राष्ट्रभाषा भारती, वा.ष. अग्रवाल के 'कल्पवृक्ष' निबन्ध से, पृ.55-59.

9. डॉ. शिवकुमार मिश्र, नया हिन्दी काव्य, पृ. 43

10. संपा, गो. व.नेने, श्रीपाद जोशी, मराठी-हिन्दी शब्दकोण, पृ.551

11. विद्यानाथ गुप्त, हिन्दी कविता में राष्ट्रीय भावना, पृ.7

12. विद्यानाथ गुप्त, हिन्दी कविता में राष्ट्रीय भावना, पृ. 'दो शब्द' से।

13. वासुदेव शरण अग्रवाल, भारत की मौलिक एकता (भूमिका से)।

14. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र, आधुनिक हिन्दी काव्य, पृ. 257

- डॉ. जी. प्रसाद

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