Twenty-first century Hindi Dalit poetry: sensibility and form
इक्कीसवीं सदी की हिन्दी दलित कविता : संवेदना एवं स्वरूप
वर्तमान समय में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि ने साहित्य एवं समाज को झकझोर दिया है। हर जगह पर इनकी गूंज सुनाई देती है। साहित्य, समाज के चिंतन में इन्हीं को रखा जाता है। हजारों वर्षों से पीड़ित, शोषित, अपमानित होते रहे यह वर्ग आज अपनी अस्मिता, अपने अस्तित्व, अपनी उपस्थिति को ढूँढ रहे हैं। दलित वर्ग ऐसा ही वर्ग है। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की प्रेरणा से इस वर्ग का संघर्ष काफी पहले शुरू हुआ, पर साहित्य की धारा- प्रवाह में आना उसके लिए सहज नहीं रहा। इसकी शुरूआत का श्रेय मराठी दलित साहित्य को दिया जाता है जो बीसवी सदी के छठे दशक से आरंभ हुआ, तो इसी की प्रेरणास्वरूप बीसवीं सदी के अंत में हिंदी दलित साहित्य का सूत्रपात हुआ।
अन्य साहित्य की तरह दलित साहित्य ने भी अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न विधाओं को संस्पर्श किया, पर इसमें कविता का अपना अलग महत्व है, क्योंकि इसकी शुरूआत कविता से ही हुई है। कबीर, रैदास से शुरू हुई यह यात्रा हीरा डोम, स्वामी अछूतानंद से होते हुए अपने तीव्र वेग से आज गतिमान है। ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, सूरजपाल चौहान, जयप्रकाश कर्दम, सुशीला टाकभौरे, शेखर, मंसाराम विद्रोही, जहीर कुरेशी, उमेश मेश्राम, जगदीश गुप्त, मनोज सोनकर, दामोदर मोरे जैसे अनेक कवि इस सफर में रहबर बनकर राह को सुखकर और सुदृढ़ बना रहे हैं।
दलित कविता में नकार, विद्रोह, वेदना आदि मुलभूत लक्षण पहले से ही मौजूद है। यह कहना गलत नहीं होगा कि दलित साहित्य की बुनियाद ही यही है।
पर इक्कीसवी सदी में इसके स्वर अधिक तीव्र हुए दिखाई देते हैं, क्योंकि दलित और सवर्ण भेद आज भी बरकरार है। दलित की तरह दलित साहित्यकार और उसका साहित्य भी अछूत समझा जाता है। सूरजपाल चौहान अपनी 'हरदम तेरी बारी क्यों' कविता में अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति में कहते हैं-
"कदम-कदम मक्कारी क्यों
दलितों से गद्दारी क्यों
आत्मकथा लेखन पर चर्चा
कवित्त है तुम पे भारी क्यों
सच्चा कहने या लिखने में
तेरी है लाचारी क्यों
सारा लेखन एक समान
हरदम तेरी बारी क्यों
खरी-खरी मैं लिखता हूँ
इस पर पहरेदारी क्यों
दलितों की बस्ती में अब तक वर्ण-भेद जारी क्यों"¹
दलितों के साथ दलित होने के नाते ही अमानवीयता का व्यवहार कवि को खटकता है। क्या दलित मनुष्य नहीं है ? क्या दलित होना गुनाह है ? कवि दामोदर मोरे 'दवा की तलाश' कविता में इसका उत्तर ढूँढना चाहते हैं-
"हमारा गुनाह इतना ही है
कि हम आदिवासी हैं
हमारे बंधु दलित, घुमंतू हैं
क्या हम मनुष्य नहीं है?
हमारा और उनका रक्त
लाल ही नहीं है?
भूख हमको भी लगती है
भूख उनको भी लगती है
भावना और बुद्धि उनके पास है
हमारे पास भी है
तो फिर हमारे साथ
पशु जैसा बर्ताव क्यों ?"²
आधुनिक कहे जानेवाले समाज में दलित उपेक्षा का भागी बनना बंद नहीं हुआ है। वह भी अन्य मनुष्यों की तरह जीना चाहता है। अपने जीवन का अंधेरा दूर करने के प्रयास के साथ सुनहरे भोर की कल्पना करता है। कवि सूरजपाल चौहान की 'कब होगी वह भोर' कविता की यह पंक्तियाँ इस संदर्भ में द्रष्टव्य हैं-
"कब होगी वह भोर
मेरे मोहल्ले में
कब सुनाई पड़ेगा
चहचहाना चिड़ियों का
और
पक्षियों का कलरव गान
कब होगी वह भोर
जब मेरी बहन या बेटी की शादी पर
चढ़कर दूल्हा आएगा घोड़ी
घूमेगा वह
पूरे गाँव की गली-गली
कब? न जाने कब?
कब होगी वह भोर ???"³
21वी सदी का दलित कवि इस भोर की उम्मीद लिए हुए है। उसके लिए हरसंभव प्रयास भी वह करता है, पर आज भी जातिवाद के कारण उसे अन्याय, अत्याचार का सामना करना पड़ता है। यह जातिवाद ही सभी परेशानियों का मूल है। ओमप्रकाश वाल्मीकि का 'अब और नहीं' कविता संग्रह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जिसमें कवि कहता है-
"जाति आदिम सभ्यता का
नुकीला औज़ार है
जो सड़क चलते आदमी को
कर देता है छलनी
एक तुम हो
जो अभी तक चिपके हो जाति से
न जाने किस... ने
तुम्हारे गले में
डाल दिया है जाति का फंदा
जे न तुम्हें जीने देता है
न हमें।"⁴
सवर्ण और दलित दोनों समाज को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करना कविता का उद्देश्य है। - स्वाधीनता के छः दशकों के बाद भी, लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी दलितों की स्थिति में सुधार कहाँ हुआ है? अन्यथा कवि 'अब और नहीं' न कहता। कवि शेखर का 'मायावती के गाँव में' काव्य संग्रह इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। दलितों की दयनीय, लाचार स्थिति को वे इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
"मायावती के गाँव में
बामन-बनियों की, दारोगा अफसरों की
रोज दिवाली हो रही है
और ढिबरी तक को तरसती दलित की दुनिया में
कबीर चदरीया चिथड़े हो रही है।
***
गरीब की लुगाई गाँव की भौजाई हो रही है
और दरिंदों की शिकार हो रही है
दुनिया की आधी आबादी बिलख-बिलख
रो रही है।"⁵
इन सब स्थितियों को कवि उच्च वर्ग को ही जिम्मेदार ठहराता है, क्योंकि समाज के मूल प्रवाह में दलितों को कभी आने ही नहीं दिया गया। उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया, जिससे उनकी उन्नति का दौर ही कट गया। मेहनत, मजदूरी करके उन्हें अपना पेट भरना पड़ा। पर विडंबना यह है कि उनके द्वारा निर्मित चीजें तो अछूत नहीं मानी गई, फिर बनानेवाले अछूत केसे हो गए? ओमप्रकाश वाल्मीकि 'विरासत' कविता में भारतीय समाज से प्रश्न करते हैं कि-
"लोहा, लंगड़,
गारा-सीमेंट
इंट-पत्थर
सभी पर है
स्पर्श हमारा।
लगे हैं जो घरों में आपके
फिर भी बना दिया आपने
हमें अछूत और अंत्यज
भंगी-डोम-चमार
माँग-पास और महान
छूना भी जिन्हें पाप
हिस्से में जिनके सिर्फ
उपेक्षा और उत्पीड़न
'जाति' कही जाए जिनकी नीच
आप बता सकते हैं
यह किस सभ्यता और संस्कृति की देन है?"⁶
कवि दामोदर मोरे की 'वे मलमुखी हैं' कविता की यह पंक्तियाँ भी इसी भाव को व्यक्त करती है कि-
"सवर्ण हो या असवर्ण महिला
बनती है जब माता
उठाती है बच्चों का मैला
वेद हो या मनुस्मृति
शास्त्र हो या पुराण
किसी ने भी उसे
छूने से नहीं किया मना
हमें ही क्यों 'अछूत' कहा?
किसकी दिमागी चड्डी से निकला
अस्पृश्यता का यह मैला"⁷
'अछूत' बनकर जीना कितना खतरनाक, कितना दयनीय होता है यह तो केवल वही समझ सकता है जो उसे झेलता है, और सदियों से दलितों ने इसे झेला है, सहा है। पर जब आज भी वही शारीरिक, मानसिक, सामाजिक प्रताड़ना से उसे गुजरना पड़ता है तो कवि सवर्ण समाज को इसके एहसास के संदर्भ में करता है कि-
"यदि तुम्हें
धकेलकर गाँव से बाहर कर दिया जाए
पानी तक न लेने दिया जाए कुएँ से
दुतकारा, फटकारा जाए
चिलचिलाती दोहपरी में
कहा जाए तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाए खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें
मेरे जानवर को खींचकर
ले जाने के लिए कहा जाए
और कहा जाए ढोने को
पूरे परिवार का मैला
पहनने को दी जाए उतरन
तब तुम क्या करोगे?"⁸
अपने इस भोगे हुए यथार्थ की भयानकता से कवि दूसरों को परिचित कराना चाहता है। उसकी अपेक्षा यह नहीं है कि दूसरे भी यह काम करे, लेकिन कम-से-कम अपने साथ मनुष्यता के व्यवहार की कामना वह करता है। नारी का उदाहरण देकर कवि कहता है-
"नारी को
छूते नहीं हो तुम
केवल चार दिन
उसके मासिक धर्म में।
मैला ढोते वक्त
मत छुओ हमें लेकिन
इंसानियत से पेश तो आओ
बाकी समय में"⁹
दलित कवि आज समाज के हर क्षेत्र में विद्वेष की जगह सामंजस्य चाहता है। समाज के सभी वर्गों के बीच बंधु-भाव की कामना करता है। मसलन जयप्रकाश कर्दम की यह पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
"मैं विद्वेष नहीं
सामंजस्य चाहता हूँ
बर्बरता और दमन का
प्रतिकार चाहता हूँ
मैं जेठ की लू नहीं
सावन की बयार चाहता हूँ
भेदभाव का पतझड़ नहीं
बंधुता की बहार चाहता हूँ
मैं पशुता का जंगल नहीं
मनुष्यता का संसार चाहता हूँ
****
बहुत भटका हूँ, असमानता और अन्याय की गलियों में
समता के राजपथ पर चलना चाहता हूँ"¹⁰
दलित कवि की समानता की यह चाह अनुचित नहीं है, क्योंकि चाहे सवर्ण हो या दलित, है तो पहले मनुष्य ही और मनुष्य का खून, पीड़ा, वेदना, आशा- आकांक्षा, भूख-प्यास सभी एक सी है, यथा-
"भूख एक है
प्यास एक है
रूदन एक है
आस एक है।
पीड़ाओं की चुभन एक सी
सुख-दुख का संसार एक है।
खून खून का रंग एक है
और खून की धार एक है।
बाँट रहा कोई क्यों हमको
जीने का अधिकार एक है।
मानव का परिवार एक है
मानव का अधिकार एक है"¹¹
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि 21 वी शताब्दी की दलित कविता जिस तेवर को लेकर चल " रही है वह स्वाभाविक ही है, चूंकि सदियों के जख्म अब भी भरे नहीं है। विद्रोह, नकार, वर्ण संघर्ष, ऊँच- नीचता के विभिन्न आयामों के आधार पर दलित कवि अपने दुख-दर्द को प्रस्तुत कर, संघर्ष की ज्योति को बनाए रखकर असमानता को मिटाना चाहता है। अस्तु, आज की दलित कविता दलित जीवन का दर्पण तो है ही, साथ ही भारतीय समाज को आत्म-परीक्षण करने के साथ-साथ समतामूलक समाज निर्माण के लिए आवाहन भी करती है।
संदर्भ सूची :
1. कब होगी वह भोर- सूरजपाल चौहान, पृष्ठ 71
2. दवा की तलाश, नीले शब्दों की छाया में- प्रा. दामोदर मोरे, पृष्ठ 41
3. कब होगी वह भोर- सूरजपाल चौहान, पृष्ठ 32, 33
4. जाति, अब और नहीं- ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 20, 21
5. मायावती के गाँव में- शेखर, पृष्ठ 26, 27
6. विरासत, अब और नहीं- ओम प्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 92, 93
7. वे मलमुखी हैं, नीले शब्दों की छाया में- प्रा. दामोदर मोरे, पृष्ठ 46
8. तब तुम क्या करोगे, सदियों का संताप- ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 26, 27
9. वे मलमुखी हैं, नीले शब्दों की छाया में- प्रा. दामोदर मोरे, पृष्ठ 47
10. उधृत, दलित साहित्य : अनुसंधान के आयाम - डॉ. भरत सगरे, पृष्ठ 82
11. वही, पृष्ठ 84
- प्रा. डॉ. प्रमोद पड़वाल
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