Why ideological narrowness towards Hindi?
हिन्दी के प्रति वैचारिक संकीर्णता क्यों?
हिंदी बहुत वाद-विवाद के बाद राजभाषा घोषित हुई थी। देश स्वतंत्र होने के बाद लोगों ने सोचा था कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा होगी जैसे अन्य देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा है। परन्तु कुछ हिंदी विरोधियों ने हिंदी को राजभाषा बनाने का विरोध किया कि हिंदी अभी समृद्ध नही है। इसके माध्यम से शिक्षा नही दी जा सकती तथा सरकारी कार्यालयों में कार्य करना कठिन होगा। परन्तु कुछ महान नेता जो हिंदी के समर्थक थे व साहित्यकारों ने सरकार के ऊपर दबाव डाला, आन्दोलन किये हिंदी को राजभाषा घोषित करने के लिए। उनके प्रयासों से 14 सितंबर 1949 में राजभाषा से जुडे प्रस्ताव को संविधान रूप में स्वीकार किया। इस निर्णय को प्रतिपादित करने और हिंदी को हर क्षेत्र में बढावा देने के इरादे से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर सन् 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितंबर को हिंदी दिवस की परम्परा शुरू हुई।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 के अनुसार हिंदी संघ की राजभाषा है। अनुच्छेद 345 में राज्यों की प्रान्तीय भाषाओं को सम्बन्धित राज्य की राजभाषा का दर्जा दिया गया। इस संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार संघ के और प्रदेशों के कामकाज में हिंदी और भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी का स्थान लेना था और उन्हें सुदृढ किया जाना था। फलस्वरूप आज हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में एक बडे सांस्कृतिक शून्य की स्थिति उत्पन्न हो गई है। राजभाषा विधेयक ने अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए सह भाषा के रूप में मान लिया था। अहिंदी प्रदेश जब तक चाहें तब तक अपना एक केन्द्र से सम्बन्धित कार्य अंग्रेजी में करते रहेगे। अंग्रेजों के शासन काल में अंग्रेजी हमारी राजभाषा थी किन्तु वह विदेशी भाषा थी। उसका प्रचार और प्रसार बहुत सीमित समुदाय के भीतर ही हो सका। इससे वह राष्ट्रभाषा नही बन सकी। परन्तु हिदी के लिए ऐसी बात नहीं है। वह हमारे देश की भाषा है उसका देश में विकास हुआ है। केवल कुछ को छोड़कर उसका देश की प्रायः सभी भाषाओं से कम या अधिक सम्बन्ध रहा है। अब उस पर राजकीय मुहर तो लग चुकी है परन्तु व्यवहार में अभी पूर्ण रूप से नहीं आ पाई है। लोगों को हिंदी को अपनाने में संकोच होता है। वह अभी भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पाये हैं। अभी भी कार्यालयों में अंग्रेजी में ही कार्य होता है। लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से ही शिक्षा दिलवाना चाहते हैं। लोगों का सोचना है कि अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ने से उन्नति हो सकती है। हम अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। विश्व के अधिकतर देशों में शिक्षा व सरकारी कार्य उनकी राष्ट्रभाषा में ही होते है। वे अपनी राष्ट्रभाषा पर गर्व करते हैं।
गांधी जी ने 5 जुलाई 1928 में 'यंग इंडिया' में भारतीय भाषाओं को लेकर टिप्पणी की थी कि विदेशी भाषा के माध्यम से हमें मुक्ति पाना चाहिए। उनका यह विचार चिंतन का विषय था जिसका हमने पालन नहीं किया। बापू ने कहा "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" राष्ट्र का संविधान राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत तथा राष्ट्रभाषा राष्ट्र के गौरव, प्रतिष्ठा आदि के प्रतीक है। इन्हें कदापि विवाद के घेरे में नहीं रखना चाहिए।"
राजभाषा वह है जिसे देश के अधिकांश लोग बोलते हों और यदि न भी बोलते हो तो समझ तो लेते ही हैं। राजभाषा सरल हो जो सब लोग बोल सकें, राजनीतिक व सामाजिक और धार्मिक कार्यों में भी प्रयोग में आये। और यह सब आवश्यकताएं हिंदी ही पूरी करती है। इसलिए ही हम हिंदी को महत्व दें। हमें हिंदी को सरल और उपयोगी बनाने के लिए हमारी बोलचाल की भाषा में जो उर्दू के शब्द प्रचलन में आ चुके हैं जैसे इमारत, गर्दन, तमाशा, डाकखाना, जमीन, गंदा, पुर्जा, आदि उन्हें अपना लेना चाहिए। ऐसे ही अंग्रेजी के बहुत से शब्द प्रचलन में है रेल, प्लेटफोर्म, सिंगनल, पिन, आलपिन, पेन, नीब, टेलीफोन, मोबाईल आदि उनको भी अब हम हिंदी से नहीं निकाल सकते। विज्ञान व गणित आदि में जो टेकनीकल शब्द हैं उनका उपयोग हिंदी में लिखी जाने वाली पुस्तकों में होता रहा है, उनको भी अपनाना होगा। आक्सीजन को हम आक्सीजन ही कहते हैं। हाइड्रोजन को हाईड्रोजन गैस ही कहते हैं। जब हिंदी इतनी सरल और अधिकांश बोली और समझी जाती हैं फिर भी इस के प्रति इतनी संकीर्णता क्यों है।
भारत की एकता के लिए हिंदी का अधिक से अधिक प्रचार और प्रसार होना चाहिए, वह भी अन्य क्षेत्रीय, प्रादेशिक भाषाओं को किसी प्रकार की हानि पहुँचाकर नहीं बल्कि उनकी वृद्धि और समृद्धि की कामना करते हुए। हमारा देश बहुत बड़ा है उसमें अनेक प्रदेश हैं और प्रत्येक प्रदेश की अपनी-अपनी भाषायें हैं। सभी प्रदेशवासी चाहते है कि उनकी भाषा वह चाहे बंगला हो, असमियां हो, उड़िया हो, गुजराती हो, मराठी हो, कन्नड़ हो, मलयालम हो, तेलुगु हो या तमिल सभी अपनी-अपनी भाषा से प्यार करते है। उसकी समृद्धि चाहते है। होना भी चाहिए, परन्तु राष्ट्र की एक भाषा हिंदी को भी अपनाना चाहिए जो भारत की एकता को और अधिक बल देगा। हम देखते है कि विश्व के अधिकतर लोग अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा में बातचीत करना पसन्द करते हैं, पढ़ते है, लिखते हैं और वे अपनी राष्ट्रभाषा पर गर्व करते हैं। उनमें राष्ट्रीय भावना बहुत होती है तभी अपनी राष्ट्रभाषा को महत्व देते हैं।
हिंदी का अद्वेष-भाव :- बाबु गुलाबराव ने लिखा है- "हिंदी का किसी भाषा से द्वेष नहीं है। उसने हृदय खोलकर दूसरी-भाषाओं के विशेषकर भारतीय- भाषाओं के साहित्य को अपनाया है।"
हिंदी में अन्य प्रान्तीय भाषाओं से जितने अनुवाद हुए हैं उतने अन्य किसी प्रान्तीय भाषा में नही हुए हैं। उन्नत साहित्य रखते हुए भी वह अपने ऊपर गर्व नहीं करती और न दूसरी भाषाओं को तिरस्कार की दृष्टि से देखती है। उसकी विनम्रता और कुछ-कुछ अनावश्यक हीनता ही उसकी उदारता का कारण बनी है। उसने सबके साथ मेल - मिलाप रखने का राष्ट्र भाषा का उत्तरदायित्व स्वीकार किया है।
जहाँ तक अंग्रेजी के अध्ययन की बात है वह अन्तरराष्ट्रीय कार्यों के लिए भले ही आवश्यक हो सकती है तथा उच्च वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए भी उसका महत्व है किन्तु सभी भारतीय को न तो कूटनीतिज्ञ बनना है और वे न अनुसंधान कार्य में लगेगें। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अन्य बहुत से विषय पढ़ाये जाते हैं क्या उनके पढने का माध्यम हिंदी नहीं हो सकता? जो चीज हम अपनी मातृभाषा में अच्छी तरह समझ सकते हैं जिसे हम बचपन से बोलते आये है वह पढाई में अधिक सहायक होगी। अंग्रेजी के शब्द उतने सुलभ नहीं जितने समझे जाते हैं। यह कहा जाता है कि हिंदी में गणित, विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि की अच्छी पुस्तकें नही है इसलिए हिंदी उच्च शिक्षा का माध्यम नहीं बन पाई। परन्तु पुस्तकें तो तभी हिंदी में लिखी जायेगी जब हिंदी उच्च शिक्षा का माध्यम हो। इसके लिए प्रयास करना चाहिए। चीन, जापान, रशिया, जर्मनी व फ्रांस में उनकी अपनी भाषा में ही उच्च शिक्षा दी जाती है।
जो लोग हीनता-भाववश यह सोचते हैं कि हिंदी में कुछ नहीं है वे गलती पर हैं और जो लोग यह सोचते है कि हिंदी सर्वसम्पन्न है वे भी भूल करते हैं। वैसे हिंदी आज किसी भी प्रान्तीय भाषा से कम नहीं है। हिंदी में सूर तुलसी, कबीर, बिहारी, भूषण जैसे बड़े-बड़े कवि हुए हैं और उन्होंने उच्चकोटि की रचनाएं की है। गद्यलेखन में भी बड़े-बड़े साहित्यकार हुए है-भारतेन्दु हरिश्चंद्र, बालमुकुन्द गुपत, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्याम सुंदरदास, बाबू गुलाबराय, मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत, निराला, महादेवीवर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, वासुदेव शरण अग्रवाल, जयशंकर प्रसाद आदि जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। आज भी जिन लोगों की मातृभाषा हिंदी है वे अंग्रेजी में वर्तालाप करना पसन्द करते हैं। शादी-विवाह या अन्य मांगलिक कार्यक्रमों के निमंत्रण पत्र अंग्रेजी में छपवाते हैं। दुकानों के नामपट्ट भी अंग्रेजी में लिखवाते हैं। बिल या नगद पर्ची अंग्रेजी में छपवाते है यह छोटी- छोटी बाते हैं क्या हम इन सबके लिए हिंदी का प्रयोग नहीं कर सकते ? सरकारी व अन्य निजी संस्थानों बैंको में अभी भी कार्य अंग्रेजी में हो रहा है यह कब तक होता रहेगा? हम भारतीयों को अपनी वैचारिक मानसिकता बदलनी होगी। अगर हमारी इच्छा शक्ति होगी तो अन्य देशों की तरह हम भी अपनी राष्ट्रभाषा में कार्य कर सकते हैं। हमारी सरकारें इस ओर ध्यान दें। श्री पुरुषोत्तमदास टंडन ने कहा है, "भाषा और संस्कृति से खिलवाड़ करने वाले राजनीतिज्ञ आते हैं चले जाते हैं। यह राजनीतिज्ञ आज हैं कल नहीं रहेंगे, किन्तु भारतीय संस्कृति की प्रतीक हिंदी सदा अमर रहेगी।" सरदार पटेल ने कहा था "राष्ट्रभाषा किसी व्यक्ति या प्रान्त की सम्पति नहीं, इस पर सारे देश का अधिकार है।"
- विनोद शंकर गुप्त
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