Divik Ramesh Poetry in Hindi
पढ़िए दिविक रमेश की लिखी पांच कविताएं : हिंदी के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि, बाल साहित्यकार, अनुवादक तथा चिंतक दिविक रमेश की चुनी हुई कविताएँ, कविता कोश में दिविक रमेश की पाँच कविताएँ 1. सवाल का अंत 2. यह कौन-सी भूमि है 3. उसके पास 4. राहों के बाहर 5. इस महारव में।
दिविक रमेश की कविताएँ
1. सवाल का अंत
कविता से अब बात नहीं बनती
और ईमान से ?
फायदे की चीज अब नहीं रही कविता
और ईमान ?
मजाक नहीं, यकीन कीजिए
अब कोई नहीं कद्र करता कविता की
और ईमान की ?
ईमान ईमान ईमान
अजीब रट लगा रक्खी है ईमान की
थोड़ा बहुत बचा है तो टिकी है दुनिया
अब मैं केवल हँस सकता था
इसलिए हँसता रहा देर तक
थोड़ी देर बाद
एकान्त में बैठकर
हम दोनों ही को
गम्भीर जो होना था ।
यह कौन-सी भूमि है / दिविक रमेश
2. यह कौन-सी भूमि है
एक अपाहिज
शरीक है मज़ाक उड़ाने में
एक और अपाहिज का
एक झूठा
एक और झूठे का
कर रहा है पर्दाफ़ाश।
एक भ्रष्ट
दूसरे भ्रष्ट की
कर रहा है जाँच।
एक षड्यंत्र
कर रहा है टिप्पणी
दूसरे षड्यंत्र पर।
एक पेड़
खुश है
दूसरे के कटने पर।
उसके पास / दिविक रमेश
3. उसके पास
जिस आदमी के पास कुछ भी नहीं था
उसके पास था एक थैला
थैले में थी एक कलम
थे कुछ कागज
और कागज पर लिखी जाने वाली अनंत संभावनाएं,
आशाएँ,
कुछ मंसूबे
और ठहरे हुए रक्त में
पैदा करने को प्रवाही प्रेरणाएं।
मैं सोचता रह गया
कि जिस आदमी के पास कुछ भी नहीं था
उसके पास आखिर क्या नहीं था?
राहों के बाहर / दिविक रमेश
4. राहों के बाहर
जब तक जुड़े रहते हैं पाँव धरती से
देती है धरती भी उन्हें
एक न एक राह।
धरती गतिाील है तो पाँव भी।
दरअसल शब्द हम देते हैं राहों को
मसलन उलझन, अकेलापन
नहीं तो नहीं होती कोई भी राह अकेली
या उलझान भरी।
अक्सर हमारे दिमागों से होकर गुजरती हैं राहें।
बैठे होते हैं जहाँ मजबूर इच्छाओं और
खूबसूरत अपेक्षाओं के ठग भी
वहीं होता है सबसे ज्यादा बीहड़ भी
और बहुत बार हम नहीं रह पाते चौकस।
कभी-कभी हो यूँ भी जाता है
कि हम चलते-चलते राह उधर की
पहुँच जाते हैं इधर
और हमें एहसास भी नहीं होता जिसका
बल्कि हम भीतर ही भीतर जश्न मनाते हैं।
बहुत मुकिल होता है यूँ अपने को
अपनी ही जंजीरों से
आज़ाद कर
छोड़ देना प्रवाह में
पर मुमकिन ज़रूर होता है
सब कुछ भूलकर
हमारा खिंचा चला जाना उस ओर
जहाँ से पुकार लिया होता है हमें
एक अपनी सी पुकार ने।
बहुत आसान होता है
चलना राहगीरों की राह पर
पर राहें वहाँ भी होती हैं
जहाँ वे नहीं दिखतीं
चलने से पहले।
इस महारव में / दिविक रमेश
5. इस महारव में
इस महारव में,
बचा लेनी है मुझे थोड़ी दूब, याने समझ
हरी-भरी
जिसमें स्वाद ही नहीं
रस भी है जीवन का।
इस महारव में,
और है भी क्या मेरे पास सिवा
थोड़ी समझ के - याने दूब के
जिसे दे जाऊँगा
चिंतित अपेक्षाओं के हाथ में।
इस महारव में,
मैं नहीं चाहता खड़ा होना
पश्चाताप की दहलीज पर।
कम से कम
है तो समझ मेरे पास
जिसे छोड़ जाऊँगा मैं
तिनके की तरह।
तिनके के सिवा
और होती भी क्या हैं
हमारी कविताएँ
औरों के लिए ?
कभी बन जाती हैं घर वे बेघरों के
और कभी होकर जादुई आँखें
बहुत पास खींच लाती हैं
सपने बहुत दूर के।
ये कविताएँ ही हैं
जो कभी पंख देती हैं
तो कभी पाँव
और कभी
दूर तैरा लाती हैं नाव सी
हमारी भावनाओं को।
कितना विभोर हूँ मैं
इस महारव में
मैंने नहीं होने दिया व्यर्थ
याने दूब को।
धरोहर में मिली समझ को।
छोड़ जाऊँगा मैं
निश्चिंत
हरी-भरी दूब को
जिसमें स्वाद ही नहीं
रस भी है जीवन का।
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