Father Of Hindi Journalism : Pandit Ambika Prasad Vajpayee
पत्रकारिता के युग निर्माता : अंबिका प्रसाद बाजपेयी
पं. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी : हिन्दी पत्रकारिता के पितामह
वाजपेयी जी उन तपस्वी पत्रकारों में थे जिन्होंने पत्रकारिता को पेशे के रूप में नहीं बल्कि धर्म के रूप में अपनाया था, और बड़ी निष्ठा के साथ निभाया था। कदाचित् यही कारण है कि आर्थिक उपलब्धि की चिन्ता छोड़कर वाजपेयी जी अपने इस धर्म पर दृढ़ रहे, किसी भी प्रकार की कठिनाइयों में विचलित न हो सके। तिलक युग के तेजस्वी हिन्दी पत्रकारों में उनका बहुत ऊँचा स्थान है। वे बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दो दशकों की हिन्दी पत्रकारिता के उन्नायकों में अप्रतिम थे।
पत्रकारिता सम्बन्धी अपने अनुभव बताते हुए उन्होंने सितम्बर 1931 के 'विशालभारत' में लिखा था कि 'बंग-भंग' के आन्दोलन के समय पं. शिवबिहारीलाल वाजपेयी के द्वारा मैं 'हिन्दी बंगवासी' में रहा। भाषा और व्याकारण के प्रश्न को लेकर 'भारतमित्र' के सम्पादक बाबू बालमुकुन्द गुप्त और 'सरस्वती' के सम्पादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी में जो संघर्ष हुआ था उसमें हिन्दी के कई अन्य पत्रों ने भी भाग लिया था। 'हिन्दी बंगवासी' में पं. गोविन्दनारायण मिश्र ने 'आत्माराम की टें टें' शीर्षक लेखमाला प्रकाशित करायी थी और अयाचित रूप से द्विवेदी जी का समर्थन किया था। इस लेखमाला की पहली किस्त 6 जनवरी 1906 को प्रकाशित हुई। वाजपेयी जी भी इस संघर्ष में पूरी रुचि ले रहे थे। वे अप्रकट रूप से गुप्त जी के पक्ष में थे।
'हिन्दी बंगवासी' से हटने के कुछ समय बाद उन्होंने एक अमेरिकन कम्पनी में नौकरी कर ली थी और कुछ रुपया एकत्र करके पुनः पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया था। उनका यह प्रवेश 1907 में मासिक 'नृसिंह' के रूप में हुआ। 'नृसिंह' राजनीतिक पत्रिका थी। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है, "मेरे पास कुछ रुपये एकत्र हो गये थे, इसलिए मुझे पत्र निकालने की सूझी। अनेक मासिक पत्र हिन्दी में निकलते थे परंतु उनमें कोई राजनीतिक पत्र न था, इसलिए इस अभाव की पूर्ति का ठेकेदार मैं बना। पत्र का नाम 'नृसिंह' रखा। 1907 के नवम्बर में पहली संख्या निकली। मैं ही लेखक, सम्पादक, मुद्रक, प्रकाशक, क्लर्क और दफ्तरी सब कुछ था। बड़े आग्रह और प्रार्थना पर पं. गोविन्दनारायण मिश्र ने अवतरणिका और पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र ने उद्देश्य लिखवा दिया था। पं. दुर्गाप्रसाद जी का वीरभद्र देव शर्मा के नाम से एक लेख पण्डितों की चाटुकारिता के सम्बन्ध में बाद को छपा, पर पं. गोविंदनारायण जी ने फिर कुछ लिखा-लिखाया नहीं।" अपनी कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए वाजपेयी जी ने लिखा है, "रुपये का प्रबन्ध करना पत्र के लिए कागज लाना, छपाना, प्रूफ देखना और डिस्पैच करना मेरा ही काम था। इन सब कार्यों से मुझे जितना कष्ट नहीं हुआ, उससे कहीं अधिक आर्थिक चिन्ता से रहा और आफत की मार कि आगे भी इस चिन्ता ने मेरा पिण्ड नहीं छोड़ा।"
आर्थिक कठिनाइयों से हारकर वाजपेयी जी ने 'नृसिंह' का प्रकाशन एक वर्ष के बाद बन्द कर दिया। इसके बाद बाबू रूडमल्ल गोयनका के अनुरोध से उन्होंने 'श्रीसनातन धर्म' का सम्पादन-भार अपने ऊपर लिया। किन्तु आठ अंकों के बाद ही वे उस पत्र से हट गये, क्योंकि कट्टरतावादी संकीर्ण सनातनी नीति उन्हें पसंद न थी। इसके बाद बाबूराव विष्णु पराड़कर के प्रयत्न से नेशनल कॉलेज में वाजपेयी जी हिन्दी अध्यापक हो गये। पराड़कर जी की अनुपस्थिति में उन्हें 'हितवार्ता' का भी सम्पादन करना पड़ता था। 1910 में कॉलेज-अधिकारियों की नीति पसन्द न आने के कारण देउस्कर जी और पराड़कर जी के साथ वाजपेयी जी भी कॉलेज से अलग हो गये।
वाजपेयी जी ने देश की और हिन्दी भाषा की सेवा अनेक कोणों से की है। वे पत्रकार, वैयाकरण, भाषाशास्त्री, साहित्यकार, अध्यापक, सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता और अपने परिवेश को अहर्निश आलोक-प्रेरणा देनेवाले गृहस्थ थे। उन्होंने विविध विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं, जैसे अनेक पत्रों का कुशलतापूर्वक सम्पादन-संचालन किया है। 'भारतीय शासन- पद्धति', 'हिन्दुओं की राजकल्पना', 'हिन्दी पर फ़ारसी का प्रभाव', 'चीन और भारत' 'अमेरिका और अमेरिका', 'हिन्दी कौमुदी', 'शिक्षा' (अनुवाद), 'अभिनव हिन्दी व्याकरण', 'अंग्रेजी की वर्त्तनी और उच्चारण', 'रामायण सार', 'श्राद्ध- = प्रकाश' आदि इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। और एक ऐतिहासिक महत्त्व की पुस्तक है 'हिन्दी समाचार-पत्रों का इतिहास' जो अतीत हिन्दी पत्रकारिता की शक्ति का साक्ष्य प्रस्तुत करती है।
- एस. दत्ता
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