Kruti Ki Raah Se Book by B. L. Achha Ji
कृति की राह से : 34 कृतियों की विस्तृत समीक्षाएं
अपनी बात : बी. एल. आच्छा
शिक्षा काल से ही समीक्षा- कर्म में कृति ही मेरा लक्ष्य रही है। उसकी भाषा के स्थापत्य के साथ उसकी चेतना का सहयात्री बनना मेरी प्रकृति में रहा है। ऐसा भी नहीं कि विचारधाराएँ मुझसे टकराती नहीं है। प्रतिबद्धताएँ खींचती नहीं हैं। शास्त्र नयी व्याख्याओं के साथ मेरी राह नहीं बनाते। पश्चिम की आलोचना पद्धतियाँ आकर्षित नहीं करतीं। सृजन के नये पैटर्न लुभाते नहीं हैं।
याकि मूल्यांकन के प्रतिमानों की भिन्नता के कोण ध्यानाकर्षण नहीं करते। अभिव्यक्ति के नये-पुराने रूपों की तुलनात्मक दृष्टि से परहेज भी नहीं है। न कथ्य और रूप की प्राथमिकता में प्रतिबद्ध दृष्टियों से बेखबरी है। पर इन सबके बावजूद मेरे केन्द्र में कृति और उसकी भाषा ही आधार बने रहते हैं। इन्हीं की परतों में रचे-बसे वैचारिक सत्व, यथार्थ के बहुआयामी कोण, वैयक्तिक विशिष्टता,संप्रेषणीयता के स्थापत्य और कथ्य के स्तर पर नवीनता को तलाशने की कोशिश रहती है।
यह सही है कि रचना का भी अपना भूगोल होता है और उसकी रग-रग में संवेदित लेखकीय आत्मा का प्रसार। यह भी कि अकसर प्रतिबद्धताओं के बावजूद लेखक का अतिक्रमण नये संवेदन और अभिव्यक्ति शिल्प में कुछ हटकर आता है। इस बात से भी इन्कार नहीं कि रचना जब किसी सर्जक की है ,तो उसका व्यक्ति भी उसमें समाया होगा। यह भी कि विचारधाराओं के स्थिरांकन को तोड़ती संवेदना उस विचारधारा को अधिक चेतस बनाती होगी। यह भी कि समयांकन के साथ यथार्थ और आदर्श, मान और मूल्य भी रूपान्तरित होते ही होंगे। यदि मुक्तिबोध के नजरिये से कहूँ तो भाव-संवेदना के शब्द संवेदना में रूपांतरण के क्षणों में विचार और शिल्प भी द्वन्द्वात्मक हो जाते हैं। यह भी कि रचना के अर्थग्रहण में आलोचक अपने नजरिये को बहुमान देता हुआ कृति का मूल्यांकन करता होगा। कुछ की नजरें कृति की आभ्यंतर संरचना के अर्थोन्मेष तक होती होगी। कुछ की नजरें इतिहास दृष्टि की सामाजिकता से टोह लेती हुई होंगी। मेरी नजर में ये बाड़े और खेमे बहुत बाद के हैं। बिना अनदेखी के ये भी मेरे पठन-पाठन का हिस्सा बनते रहे हैं।
मैं रचना मे लेखक के आभ्यंतर . व्यक्तित्व को भी देखता हूँ, जो अपने संवेदन को सबका बना लेता है। मनोविज्ञान की परतों को भी खोलने की कोशिश करता हूँ। इतिहास और समाजशास्त्र जैसे साहित्येतर प्रतिमान भी नेपथ्य में चेतस बने रहते हैं। शास्त्रीयता के ऐतिहासिक रूपों को तोड़ती नयी संरचनाओं को भी पैटर्न या बदलाव. के रूप मे चिह्नित करता हूँ। परम्परा पहली हो, दूसरी हो या समकालीनता में नये को ध्वनित करती हुई हो: ये सोच को अवरुद्ध नहीं करते। हर बार लगता है कि जब विज्ञान, प्रौद्योगिकी, लोकतंत्र,सामाजिक परिदृश्य, जीवन का अर्थशास्त्र और विश्वबाजार, आत्म- संवेदन की कुरेदन और जीवन की विवशताएँ हर दशक-पंचक में नये रूप में आ रही है, तो क्या शास्त्र और क्या विचारधारा कोई स्थिरांक ला सकते हैं? जमाना विवशता का आए या स्वीकार्यता का;ये टकराहटें संवेदन और अभिव्यक्ति को नया बनाती रहेंगी।
इन सारे मुद्दों और नजरियों के बीच मेरा समीक्षक, मध्यम- मान वाला ही रहा है, जो दो कृति को लक्ष्य बनाता है और भाषा को सहयात्री। जो नया उगा है ,उसे कृति के चेतस और संरचना से ही व्यंजित करता है। पहले ही कहा जा चुका है कि सारे कोण नेपथ्य में सचेतन रहते हैं, पर रचना और उसकी भाषा के केन्द्र की अनदेखी नहीं करते। और इसी में इस नजरिये की भी अनदेखी नहीं होती कि रचनाकार की पहली प्रतिबद्धता रचनाकर्म के प्रति होती है।समीक्षक भी उस रचना से केन्द्रित होकर उसकी भाषा और संरचना से उन प्रतिमानों तक जा सकता है, जो परतों में सजग वैचारिकता से मेल खाती है। इस मायने में अपने गुरु मनोवैज्ञानिक आलोचक डॉ. देवराज उपाध्याय की अनदेखी नहीं कर पाता, जो कहते हैं कि कविता ही पहला प्रेम (फर्स्ट लव) है।
इससे पहले प्रकाशित 'सृजन का अंतर्पाठ' पुस्तक में भी इसी वस्तुपरकता के आधार पर समीक्षाएँ संकलित हुईं। विधाएँ भी अधिक है, इसलिए पुस्तक का समूचा विज़न विधागत नहीं है। पर इन सभी विधाओं की समीक्षा में जिन उपकरणों भी जरूरत थी, वे मौजूद रहे। इसलिए इन कृतियों के वैचारिक संवेदन और शिल्प के नये रूपों की चर्चा भी सहजात है। मुझे लगता है कि इस तरह पुराने शास्त्र का युगानुकूल अभिमुखीकरण भी हो सकता है। जैसे महावीरप्रसाद द्विवेदी ने साहित्य की दिशा को किसान-मजदूर की ओर लक्षित करते हुए भाषा को अनुशासन दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लोगमंगल और हृदय की मुक्तावस्था के साथ पश्चिमी मनोविज्ञान और विश्लेषण पद्धति को जोड़कर रसवाद के शास्त्रीय कवच को नये द्वार दिये। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सहृदयता को मान दिया।डॉ. नामवर सिंह ने अवधानतापूर्वक काव्यपाठ पर जोर देकर मूल्यांकन का नजरिया दिया।उसी तरह इन रचनाओं के विश्लेषण से वैचारिकता के नये संवेदन, प्रतिबद्धताओं के नये सोच, यथार्थ और आदर्श की टकराहटों में बनती नयी मर्यादाओं' अभिव्यक्ति के नये पैटर्न, भाषिक बहुलता की अर्थ व्यंजकता,व्यक्तित्व का सर्जनात्मक प्रस्फुटन, समकाल की हलचल की प्रतिच्छवियों का मूल्यांकन जैसी कई बातों को उजागर किया जा सकता है। पारिभाषिकताओं को तोड़ती हुई नयी पारिभाषिकता का निरंतर तात्त्विक निवेश किया जा सकता है।
बहरहाल ये सभी समीक्षाएँ समकालीन भारतीय साहित्य, साक्षात्कार, वीणा, वाङ्मय, समावर्तन, विभोम स्वर, आजकल, मधुमती आदि पत्रिकाओं या पुस्तकों में प्रकाशित हुई हैं, इसलिए उनके संपादकों- संस्थाओं के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। गुरुवर डॉ. कृष्णकुमार शर्मा से शैलीविज्ञान की राह मिली।डॉ. नवलकिशोर से मानवीय अर्थवत्ता का अक्स मिला। डॉ.रामगोपाल शर्मा 'दिनेश' से सांस्कृतिक सोच मिला। डा. नेमनाथ जोशी से चिन्तन की दिशा। डॉ. आलमशाह खान से बेबाक अभिव्यक्ति मिली।मेरे शालेय गुरुवर हरकलाल जी चपलोत का का प्रोत्साहन आज भी। इन सभी का ऋणी हूं।डॉ. हरीश नवल की प्रोत्साहक टिप्पणियां मेरे लेखन को अग्रगामी बनाती हैं। डॉ.दुर्गाप्रसाद अग्रवाल,श्री उपेंद्रनाथ रैणा, डॉ. विकास दवे सोशल या प्रिंट मीडिया में संवादी सहकार बने हैं।
इस पुस्तक के शीर्षक के लिए स्व.इंद्रनाथ मदान को सश्रद्ध नमन करता हूं। यद्यपि यह उनकी किसी पुस्तक का शीर्षक नहीं है, पर पुस्तक पर प्रकाशित उप-शीर्षक सा है। मैं पुस्तक के प्रकाशक के प्रति आभार व्यक्त करता हूं। पाठकीय संवाद में वे ही निमित्त बने हैं।
कृति की राह से : अनुक्रमणिका
- 'सागलकोट' : विभाजन के तमस पर संस्कृति की प्राण-ज्योति
- हिन्दी उपन्यास को नया धरातल देता-'कुबेर'
- संवेदना की लय पर जिंदगी का गद्यः 'खिड़कियों से झाँकती आँखें'
- समकालीन समाजशास्त्र की कथात्मक संवेदना 'स्टेपल्ड पर्चियाँ'
- जीवन संघर्षों में राह तलाशती कहानियाँ 'जो रंग दे वो रंगरेज'
- हिंदी की संपदा बना 'गुजराती कथा वैभव'
- शोषण के पार्श्व और विवशता के दंश 'जिस्मों का तिलिस्म'
- अँधेरे में आँख विषमता में भाव संवेदन की उजास
- प्रतिकार की शक्ति 'अँधेरा उबालना है'
- जीवन का गद्य और कविताई सहृदयता 'वक्त कहाँ लौट पाता है'
- सामाजिक परिदृश्यों का कोलाज : 'समाज जिसमें मैं रहता हूँ'
- कोरोना के बहाने का सांस्कृतिक प्रतिबोध : 'सन्नाटे का शोर'
- आत्मवृत्त में साहित्य के समकाल का कोलाज : 'माफ़ करना यार'
- आलोचना की आँख में सृजन बिम्ब: 'कथा कहे बलराम'
- भारत के धार्मिक स्थलों में पर्यटन 'नगरी नगरी द्वारे-द्वारे'
- लोकहृदय के प्रतिष्ठापक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- किशनगढ़ चित्रशैली और ऐतिहासिक प्रेमकथा-'बनीठनी'
- समय सचेतन वैचारिकी का स्पंद 'समकाल के नेपथ्य में'
- 'महादेवी का मानवेतर परिवार' मानव और मानवेतर की रागात्मकता
- युगान्तर की अन्तर्ध्वनि-प्रतिध्वनि : 'देखो यह पुरुष'
- अटलबिहारी वाजपेयी कविता की कोख से जन्मे राजनीति के शिखर-पुरुष
- भक्तामर के अन्तस्तल का स्पर्श आचार्य महाप्रज्ञ
- 'झील में चाँद' अंतर्विरोधों की आसान अदायगी
- विद्रूप का प्रतिकार और सृजन की आस्था : 'कठपुतलियाँ जाग रही हैं'
- आस्था की दुनिया रचती कविताएँ : 'इस समय तक'
- हिन्दी को समृद्ध करती 'गुजराती की काव्य-संपदा'
- कोणार्क : प्रस्तर शिल्प में उत्कीर्ण प्रेम संवेदन
- प्रभुजी, तुम डॉलर हम पानी : डॉ. सूर्यबाला के व्यंग्य का अंतर्पाठ
- 'कन्यारत्न का दर्द' : प्रेम जनमेजय के व्यंग्य का अंतर्पाठ
- व्यंग्य के धुआँधार में सृजन का प्रतिबोध : कवि की मनोहर कहानियाँ
- आँगन और पार-द्वार का व्यंग्य : 'डॉलर का नोट'
- व्यंग्य की लयात्मक मार : 'सठियाने की दहलीज़ पर'
- एक स्ट्रेट फॉर्वर्ड व्यंग्य-पंचायत : साक्षात् व्यंग्यकार
- व्यंग्य-मुद्रा में लोक : लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन
बी. एल. आच्छा : परिचय
शिक्षा : एम.ए. हिन्दी मोहनलाल सुखाड़िया वि. वि., उदयपुर
संप्रति : सेवानिवृत्त प्राध्यापक हिन्दी उच्च शिक्षा विभाग, म.प्र.शासन
प्रकाशन :
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास
- सर्जनात्मक भाषा और आलोचना
- "जल टूटता हुआ" की पहचान आस्था के बैंगन (व्यंग्य)
- पिताजी का डैडी संस्करण (व्यंग्य)
- सृजन का अंतर्पाठः रचनात्मक समीक्षा
- मेघदूत का टी. ए. विल (व्यंग्य)
- हिंदी की कालजयी लघुकथाएं (विस्तृत समीक्षात्मक भूमिका)
- लघुकथा इक्कीसवीं शताब्दी के दो दशक (विस्तृत समीक्षात्मक भूमिका)
- मधुदीप द्वारा संपादित पड़ाव और पड़ताल के अनेक खंडों में समीक्षाएँ
- संपादन : सृजन संवाद लघुकथा विशेषांक (242 पृष्ठ), प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन (संस्कृति विभाग, म.प्र. शासन)
पुरस्कार/सम्मान
- डॉ. देवराज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार
- राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
- पं. नंददुलारे वाजपेयी आलोचना पुरस्कार
- मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी, भोपाल
- डॉ. संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान
- मध्यप्रदेश लेखक संघ, भोपाल
- लघुकथा समालोचना सम्मान क्षितिज (साहित्य संस्था) इंदौर
- शताब्दी सम्मान
- श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर
- आचार्य जगदीशचंद्र मिश्र लघुकथा समालोचना सम्मान, लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल