स्मृति शेष : जयकुमार जलज
"नया भी लिखो, पर समेटते भी रहो"
- बी .एल. आच्छा
जयकुमार जलज स्मृति शेष हैं, पर अनेक पहलुओं के साथ वे भीतर से प्रेरक बने रहते हैं। वे न आभासी रहे, न आकाशी। वे हमेशा व्यवहार और समाधान की युक्तियुक्त राहों के अन्वेषी रहे। कल्पनाएँ किस साहित्यकार की निधि नहीं होती हैं? पर वे उन सूत्रों और बिम्बों को उगाते रहे, जो जीवन की राह को व्यावहारिक आसानियां दे जाते हैं। मैं सेवानिवृत्त होकर उज्जैन से चेन्नई आ गया तो उनकी मेरे प्रति एक व्यावहारिक सोच था। दूरभाष पर लंबी बात में उन्होंने कहा- "मैं जीवन के आठ दशक पूरे कर रहा हूँ। अब सोचता हूं कि जितना लिखा, जितना छपा, उसे एकत्र कर किताब में सुरक्षित कर लूं। वरना पत्र- पत्रिकाओं के इतने पन्नों को कोई देखेगा कहाँ? इसलिए कुछ नया भी लिख लेता हूं, पर समेटने पर ध्यान ज्यादा है।"
थोड़ा नया लिखते रहना तो उनकी जिन्दगी की धड़कन रही, जो नई दुनिया में व्यावहारिक बातें कह जाती थीं। पर शेष एकत्र हुआ- "सेवा निवृत्त हैं:भजन में आइए" पुस्तक में। इसमें वे अपनी अनेक रचनाओं के वैविध्य के साथ जीवन्त समाहित हैं। पर वे लेखक भी शामिल हैं, जिन्होंने रचनाओं की समीक्षा और संस्मरणों से उन्हें सहेजा है। यह अभिनंदन नहीं, लेखक -पाठक रिश्तों के दस्तावेज हैं। लेखक का सारभूत जीवन है और उससे जुड़े सहृदयों द्वारा आत्मीय समीक्षा। वही संवेदन, जो आत्मा के उर्ध्वगमन के बाद भी लोक के प्राणों में धड़कती रहता है।
मैं जब चेन्नई आ गया, तब उनकी चिंता थी कि हिन्दीतर प्रदेश में क्या सक्रियता बनी रहेगी? उन्होंने फोन पर कहा- 'आच्छा जी, मुझे श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति से इक्यावन हजार का जो शताब्दी सम्मान मिला है, मैंने उस राशि की व्यवस्था कर दी है। रोटरी क्लब रतलाम पाँच रुपए में बेसहारा लोगों के लिए थाली की व्यवस्था करता है, तो पंद्रह हजार क्लब को दे दिए। ऐसी ही एक अन्य संस्था को पंद्रह हजार ।पन्द्रह मैंने रख लिए हैं। शेष राशि से मेरी पुस्तिका "भगवान महावीर का बुनियादी चिन्तन' की जितनी प्रतियां खरीदी जा सकती थीं, उतनी मैंने रजिस्टर्ड पार्सल से आपको भिजवा दी हैं। जो भी गुणी पाठक मिले, उसे आप अपने हस्ताक्षर से भेंट कर दीजिए। इससे चेन्नई में व्यक्तिगत परिचय बढ़ेगा।" यह संदेश भी पार्सल करने के बाद दिया।
जलज जी ने 85 की आयु में एक पुस्तक का अनुवाद किया -'तत्त्वार्थ सूत्र'। उमापति स्वामी की यह पुस्तक जैनधर्म का सूत्रबद्ध रूप है। पर उन्होंने कहा कि मुझे इसका अनुवाद बहुत मजबूरी में करना पड़ा। असल में जैन आर्यिका माताजी ने कहा कि हम ' भगवान महावीर का बुनियादी चिंतन'पुस्तिका तब तक मंदिर से लेकर लौटाती रहेंगी, जब तक आप 'तत्त्वार्थ सूत्र' का सरल अनुवाद न कर दें। जलज जी ने कुछ विद्वानों के अनुवाद बता दिए।पर आर्यिका जी का कहना था कि उन्हें सरल अनुवाद चाहिए। जलज जी ऐसी साध्वियों को कैसे मना करते? लगता है कि सरलतम व्यक्तित्व ही सरल मार्ग पर दौड़ पाता है। यह उनके काव्य और संभाषणों की विशेषता रही।
शास्त्रीयता से उन्हें परहेज रहा ही नहीं। प्राचीन युग में कागज और स्याही का नितांत अभाव रहा।तब सूत्र शैली परंपरा में कंठस्थ सूत्र ही धरोहर थे। आज कमल-दल सरीखी पंखुड़ियों को खिलाने के लिए मशीनों के मुंह खुले हैं और व्याख्यानों के लिए आधारभूत किताबें भी। पर शास्त्र को कंठस्थ कर लेना धर्म और मुक्ति की शर्त नहीं है। इसीलिए वे उन लोगों की उपेक्षा नहीं करते थे,जो शास्त्र कंठस्थ नहीं पाते। पर वे निर्मल भाव के चितेरे रहे और आस्था में जीवन की व्यावहारिक संगति पाते थे।
ऐसे ही एक प्रसंग में जब व्याख्यान में लोग किसी शास्त्रीय निर्वचन में भेद-प्रभेद को नहीं गिना पाए । उन्होंने मंदिर में आयोजित कार्यक्रम में अध्यक्षीय संबोधन में सहज ही पूछ लिया- "आप क्या मंदिर से बैठे हैं?" लोगों की आश्चर्य हुआ। पूछ लिया-"तो बताइए ,
कितनी सीढ़ियाँ चढ़ कर प्रभु के विग्रह के दर्शन किये?" बरसों से मंदिर आनेवाले सकते में थे। सही उत्तर क्या दे पाते ? जलज जी ने कहा- "शास्त्र जानना चाहिए, पर इसका अर्थ यह नहीं कि जिसने कंठस्थ कर लिया, वही धार्मिक व्यक्ति मुक्ति पाएगा। असल उद्देश्य प्रभुदर्शन के लिए निर्मल भावना है। आस्तिकता का उज्ज्वल भाव है।" यह वो विद्वान कह रहा था, जिसने पालि-प्राकृत-अपभ्रंश में जैनधर्म को पढ़ा हो ।संस्कृत से अनुवाद किया हो। जैन धर्म की आधारभूत पुस्तकों का अनुवाद किया हो। और महावीर के दर्शन को "भगवान महावीर का बुनियादी चिंतन"' में सरलतम अभिव्यक्ति दी हो। वरना यह पुस्तिका सवा सौ से अधिक संस्करणों और सवा लाख प्रतियों के प्रकाशन का रिकॉर्ड स्थापित कर पाती? और उसे भी एक पंक्ति में कितना सहज बना दिया- "महावीर, चाहते हैं, दूसरों के लिए हाशिया छोड़ा जाए।" अब यह कोई जैन धर्म तक सीमित उक्ति है?
"मैं प्राचार्य बना" यह उनकी अंतिम पुस्तक थी। इस पुस्तक में प्राचार्यत्व काल की समस्याओं का घटनाक्रम पाठक को जितना खींचता है, निदान की युक्तियाँ जलज के व्यक्तित्व की छाप छोड़ती हैं। एक अहिंसक मन दायिव के लिए समर्पित आस्था ,शब्दों की मर्यादा, प्रतिकार और द्वेषरहित मनोभाव बलवती काया और रौबदाब के बिना कैसे समाधान की राह निकाल लेती है, यह तो रतलाम का जनमानस जानता है। बरसों तक रतलाम से हिले-डुले बिना प्रशासनिक दायित्व संभालना कितना कठिन है, यह तो जिला प्रशासन और स्थानीय राजनीति जानती है। पर जिला प्रशासन भी इन युक्तियों का कायल था। इसीलिए पाँच बार के स्थानांतर के बावजूद वे कहीं गये ही नहीं।न भोपाल के चक्कर लगाए। बल्कि उनकी युक्तियों, उनके प्रशासनिक सोच, उनके प्रशासनिक दस्तावेजों की सधी भाषा और समाधानकारक प्रस्तावों से तो विभाग भी प्रभावित रहा। और राजनेता भी। सत्ता में दल कोई भी रहा हो, पर राजनीति ने उनके स्थायित्व को संपोषित ही किया।अब तो रतलाम के कला और विज्ञान महाविद्यालय के परिसर में उनके प्रयत्न से उगाई गयी हरे-भरे वृक्षों की वानिकी ही पर्यावरण- प्रियता और विकास की संकल्पना को पल्लवित छायाओं में व्यक्त करती है।
केवल शिक्षा की बात नहीं। जीवन, परिवार, प्रशासन, बाजार, शिक्षा और लोकवृत्तियों से वे कभी दूर नहीं हुए। नईदुनिया के आलेख इसके दस्तावेज हैं ।केवल यथार्थ और समस्या के उलझे ताने- बाने नहीं, बल्कि जीवन और प्रशासन को सरलतर बनाने के उपाय ।और इसी यथार्थ चित्रण के साथ वे सूत्रबद्ध निष्कर्ष और परामर्श भी -" उपभोक्तावाद की उपेक्षा नहीं की जा सकती पर उसकी सीमाएँ है। वह बेहतरीन बिस्तर दे सकता है, बेहतर, नींद नहीं।" त्याग के अनासक्त मार्ग का धर्मानुयायी भोग की अनदेखी नहीं कर रहा। पर चरम भोग की परिणति का सूत्रबद्ध निष्कर्ष दे रहा है। आश्चर्य होता है, जब वे लिखते हैं -"रैगिंग व्यक्तित्व को गढ़ती है, बशर्ते वह विकृत न हो।"असल में वे विद्यार्थी की खुलती हुई हिम्मत , सवालों से जूझने की क्षमता, त्वरित बुद्धि, पुराने साथियों से अनुभव का सहकार, प्रोजेक्ट्स और नोट्स की सहायता को विधायक मानते हैं। पर हिंसक उतापों को दण्डनीय मानते हैं।
जलज जी के व्यंग्यों और लघुकथाओं में भी गहरी मार है,पर सूझबूझ की राहें भी दिखाते हैं।वे चोट भी करते हैं और प्रतिकार भी। विसंगत को सरेआम करते हैं,पर संगतियों से दरारें भी भरते हैं। हिंदी की नियति को लेकर यह बयान कितना मारक है-"अब पुरुषोत्तमदास टंडन और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे सेवक रहे कहां?अब तो ज्यादातर सेवकों की रुचि पुरस्कार ,पदवी, पाठ्यक्रम और पुस्तकालय खरीदी में है।ये चार "प " मेरी कुंडली के खोटे ग्रह हैं।"यह बयान स्वयं हिन्दी का है इस व्यंग्य रचना में। और गुरु गोरखनाथ की यह सीख देने में वे चूकते नहीं-" हबकि न बोलिबा / ठबकि न चालबा/ धीरे धीरे धरिबा पांव /गरब न करिबा/ सहज रहिबा /भनत गोरखराव।"जीवन का यथार्थ और उलझी हुई गुत्थियों के तार।पर इन्हीं के बीच सहज मार्ग की तलाश जलज जी के जीवन और साहित्य का स्पन्दन है।
पर बात उनके सृजन की न की जाए तो यह आलेख भी अधूरा सा होगा। उनकी कविताओं और गीतों में उनका लोकतांत्रिक मानस गहराई से व्यक्त हुआ है। प्रकृति से वे बहुलवादी हैं, वैविध्य के आराधक। संसार के बहुरंगों को वे जीवन और अभिव्यक्ति का विधायक मानते हैं।'ऐसा नियम न बाँधो' गीत की पंक्तियां कितनी आसानी से कालजयी संदेश दे जाती हैं-
"हर गायक का अपना स्वर है
हर स्वर की अपनी मादकता
ऐसा नियम न बाँधो
सारे गायक एकतरह से गाएँ।"
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हर बादल का अपना जल है
हर जल की अपनी चंचलता
ऐसा नियम न बांधो
सारे बादल एकतरह चुक जाएँ।
यह कविता की स्वच्छन्द काव्य धारा नहीं है।प्रगति और प्रयोग के तेवर नहीं हैं। काव्य के धरातल पर अलग आस्वाद से रची हुई हैं। समय को पहचानती हुई और लोकतंत्र के छिद्रों की पहचान से भरीपूरी। इनमें न तो शिल्प का मंडन है, न आंदोलन की हिलोर। पर ये जीवन की व्यावहारिक लय और मानवी- राग को तलाशती हैं।
"किनारे से धार तक "संग्रह की कविताओं के लिए पहले भी लिखा था-" जलज जी की कविताएं सड़क किनारे उगाये गये अशोक, गुलमोहर या बोगनवेलिया की कतार नहीं हैं।बगीचे के फलदार पेड़ भी हैं। छायाओं के सघन वृक्ष भी हैं।और जंगली पौधों पर लरजती देशी फूल- पत्तियां भी। उनके बीज देशी हैं, कलमों के सहारे इठलाए- इतराए हुए नहीं हैं।" उनमें भावों की अंतरंगता है और स्वानुभूति का नजरिया भी-
मखमल सी रेखाओं में चींटी सा चलना
अपने पौरुष की भारी लाचारी ही है
मिले हुए निश्चित संकेतों पर मुड़ जाना
चेतनता में घर करती बीमारी ही है
अपने हाथों राह बनाते जो मिलती है
ठोकर भी बेलाग बहुत प्यारी लगती है
शोधकार्य और भाषाविज्ञान में उनकी गहरी दक्षता रही है। "संस्कृत और हिन्दी नाटक: रचना और रंग कर्म" बड़े फलक का शोधकार्य है। न केवल संस्कृत नाट्यशास्त्र के आधार पर विश्लेषण हुआ है। बल्कि हिंदी नाटक में बदलते नाट्यरूपों को गहराई से रेखांकित किया है। दो भाषाओं के श्रेष्ठतम नाटकों का विवेचन न केवल काल के फलक को समेटता है, बल्कि आलोचना के शास्त्रीय आधारों की प्रासंगिकता और बदलाव का विश्लेषण करता है। आजकल ऐसे शोधकार्य दुर्लभ- से हैं। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और आधुनिक भाषा वैज्ञानिक चिन्तन पर उनकी पुस्तक "भाषा विज्ञान " विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों की संदर्भ ग्रंथ रही है।
जलज जी ने नौ दशकों के जीवनकाल को अनाकुल भाव से जीया। अनासक्त- सा जीवन,पर सामाजिक उत्तरदायित्व से संपृक्त। युक्तिसंगत प्रशासनिक क्षमता,पर उत्तरदायी सहृदयता।अपनी आध्यात्मिक निष्ठा में साधनों को जुटाते हुए अपरिग्रही जीवन। बिना भागदौड़ के प्राप्त आर्थिक साधनों में जीने की आत्मतुष्टि। शास्त्रीयता को समकालीन धरातल पर कसने की विवेक दृष्टि। अधिकार के अहंता भाव से दूर प्रशासनिक क्षमता ।और सबसे बड़ी बात जीवन -मूल्यों को व्यावहारिक धरातल पर साधने की अनवरत कोशिश। इसीलिए जलज जी चिरस्मरणीय बने रहेंगे।
- बी. एल. आच्छा
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