Aadiwasi Asmita Aur Hindi Kavita
आदिवासी अस्मिता और हिन्दी कविता
साहित्य समाज-कल्याण का माध्यम है। इसमें इतिहास और वर्तमान में घटित या निहित कुछ ऐसे सामाजिक यथार्थों का वर्णन होता है, जिसका गहरा सम्बन्ध प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य और मनुष्य के साथ जुड़े हुए अन्य मानवेतर प्राणियों, पशु-पक्षियों, प्रकृति और जीव-निर्जिव पदार्थों आदि से है। इसलिए साहित्य पूर्ण रूप से संवेदना पर आधारित है। यह संवेदना साहित्यकार को नई दृष्टि प्रदान करने में तथा सामाजिक जीवन यथार्थों को रचना के द्वारा वाणी देते हुए उसमें सकारात्मक परिवर्तन लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक भाषा में लिखित साहित्यिक कृतियाँ तत्कालीन समाज और मानव जाति की जीवंत दस्तावेज़ होती हैं।
अन्य भाषा साहित्यों के समान समाजोपयोगी साहित्य के निर्माण में हिन्दी भाषा भी समृद्ध है। विषय की विविधता, साहित्यकारों के रचना वैशिष्ट्य , प्रत्येक साहित्यिक कृति में अभिव्यक्त मानव संवेदना, सामाजिक जीवन यथार्थ आदि विशेषताओं से युक्त इस क्षेत्र में उपन्यास, कहानी, नाटक और कविता जैसी गद्य-पद्य विधाओं की कोई कमी नहीं है।
समसामयिक साहित्य मूलत: नवलेखन प्रणाली पर आधारित है। ऐसे एक दौर में हाशिएकृत जनता के जीवन यथार्थों, संघर्षों और प्रतिरोधों को खुलकर प्रस्तुत करते हुए अपने समय के साथ संवाद स्थापित करने में हिन्दी के प्रत्येक साहित्यकार सफल हैं। समकालीन साहित्य के क्षेत्र में विकसित ‘स्त्री विमर्श’ और ‘आदिवासी विमर्श’ जैसे अस्मितामूलक साहित्यिक -विमर्शों के अर्न्तगत लिखित ज्यादातर रचनाएँ इसी रचनात्मकता का उत्तम उदाहरण हैं।
आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं, किन्तु आर्यों के आक्रमण से परास्त होकर जंगलों में जीवन बिताने के लिए अभिशप्त यह समाज आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। मुख्यधारा समाज के द्वारा ‘अशिक्षित, ‘असभ्य’ और ‘वनवासी’ के रूप में घोषित किया गया यह समाज सभी मानवाधिकारों से भी वंचित है। इसी शोषणस्थिति को आधार बनाकर आदिवासी साहित्य का सृजन हुआ है, हो रहा है।
आदिवासी साहित्य एक ओर खुद आदिवासी समाज की तीव्र अनुभूतियों का साहित्य है तो दूसरी ओर यह गैर आदिवासी लेखकों की संवेदना की उपज भी है। इन दोनों साहित्यों का मूल लक्ष्य मानवाधिकारों की प्राप्ति ही है।
आदिवासियों की अस्मिता और अस्तित्व आज कई समस्याओं से घिरे हुए हैं। विस्थापन, प्रदूषण, गरीबी, धर्मान्तरण, जातिगत भेदभाव, आर्थिक समस्या, स्त्री शोषण जैसी कई समस्याओं से बंधा हुआ यह समाज अपनी पीड़ा और वेदना को निजी भाषा में अभिव्यक्त करने में लगा हुआ है। इसलिए हिन्दी में लिखित या अन्य भाषाओं से अनूदित आदिवासी जीवन पर आधारित कविताएँ मात्र उनकी वेदना का माध्यम न होकर समाज और सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का हथियार भी है।
आदिवासी की अस्मिता को बनाए रखने में प्रकृति और प्राकृतिक सुषमाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि जंगल से अलग उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, जहाँ वह अपने सपनों को नई राह दे सकें। किन्तु वैश्वीकरण की स्वार्थ दृष्टि प्रकृति और प्रकृति के साथ जुड़े हुए अन्य जीव-जंतुओं को अपने शोषण व्यवस्था का शिकार बना दिया। इस स्थिति से आगे चलकर प्रकृति के खोये हुए अस्तित्व के साथ आदिवासी भी अपनी पहचान खोते चले जा रहे हैं। तथाकथित सभ्य समाज के इस अमानवीय व्यवहार में आदिवासी भी अपना एक अलग इतिहास रचा और समाज के सम्मुख अपने आपको मानव घोषित करके अपने पहचान स्थापित की शिशिर टुडू की कविता ‘मेरा इतिहास’ इसी यथार्थ पर आधारित है :
“मेरा इतिहास नहीं है / तुम कहते हो / बार-बार माँगते हो मुझसे / मेरे होने का लिखित प्रमाण / जबकि तुम जानते हो / मैं भी आदमी हूँ तुम्हारे ही समान ।”¹
इस धरती के मूल निवासी के लिए प्रकृति उनकी अनुचर है। इसलिए शहरीय जीवन परिवेशों से भिन्न ग्रामीण परिवेशों में जीवन बिताने वाले यह समाज प्रकृति के कण - कण में निहित तत्त्वों के ज्ञाता हैं। महादेव टोप्पो ने अपनी कविता ‘आप क्यों हँसते हैं?’ के द्वारा जंगली कहकर आदिवासियों के हंसी उड़ाने वाले सभ्य समाज के समक्ष जंगल के निवासी होने का सही अर्थ इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं :
“आप क्यों हँसते हैं? / आइये, यहाँ आइये / जंगल का यह कौन-सा पत्ता है? / कौन-सा पेड़ है? बताइये... / जानिये, फुटकल भी दवाई है, ब्राह्मी बूटी भी / और भी ऐसी अनेक औषधियाँ हैं जंगल में / क्या आप बता सकते है यह / इनके पत्ते देखकर / या इनकी जड़े -सूघँकर।”²
इस कविता में कवि ने प्रकृति के साथ आदिवासियों का घनिष्ठ सम्बन्ध को बताते हुए ‘जंगल के निवासी’ शब्द को नवीन व्याख्या देने की कोशिश की है।
आदिवासी अपने पूर्वजों के परम्परा का विवेक-सम्मत अनुयायी है। इसलिए इतिहास पुरुषों, देवी-देवताओं या इतिहास-गत आन्दोलनों को अपने रचना के केंद्र में रखकर उसकी गुणगान करने की प्रवृत्ति भी आदिवासी कविताओं में देखा जा सकता है। यह उनकी अस्मिता का द्योतक है | शिशिर टुडू की कविता ‘फिर होगा उलगुलान’ में बिरसा मुण्डा को ‘युग-पुरुष’ घोषित करके कवि लिखते हैं-
“उलगुलान की कथा /जब-जब सुनाई जायेगी /उनके बलिदान- की बहुत याद आयेगी / बिरसा सामान्य नहीं / युग-पुरुष थे / अपनी हस्ती मिटा कर जिन ने / फूँके थे प्राण / ऐसे युग-पुरुष को तुम्हें देना होगा / सम्मान / नहीं तो सच कहता हूँ / झूठ नहीं / एक बार फिर होगा उलगुलान।”³
शिक्षा का क्षेत्र भी आज राजनीतिक शक्तियों के हाथों का खिलौना बन गया है। इसलिए हार और जीत का निर्णय जाति, पैसे, पद आदि के द्वारा होता है। संविधान में दिए गए आरक्षण के नाम पर भी सवर्ण वर्ग आदिवासियों का मज़ाक उड़ाता है। यह उनकी पहचान के लिए कभी -कभी एक चुनौती बन जाती है। ग्लैडसन डुंगडुंग की कविता ‘कसम-खाई है हमने’ में कवि इसी सच्चाई के ओर संकेत करता है :
“प्रतियोगिता में प्रथम आने की / कभी कोशिश भी मत करना / अंतिम पायदान पर ही रखेंगे हम तुम्हें / डॉक्टर, इंजीनियर और ऑफिसर बनोगे / तो बता देंगे दुनिया को हम / मेरिट तुम में है कहाँ ..... आरक्षण ही तो है तुम्हारा सहारा ....”⁴
लोकगीत, लोककथा आदि के समान आदिवासी साहित्य में लोकभाषा का भी अपना महत्व है। किन्तु आजकल इन भाषाओं का अस्तित्व धीरे-धीरे मिटने लगा है। ऐसे एक समय में आदिवासी साहित्यकारों ने अपने साहित्यिक सृजन के लिए स्थानीय भाषाओं तथा बोलियों का प्रयोग करने लगा है। मुख्यधारा शोषक वर्ग आदिवासियों से अपनी पहचान, जमीन और परिवार सबकुछ छीन लिया है। अब उनकी शोषक दृष्टि आदिवासी भाषा, संस्कृति और परम्परा की ओर मुड़ रही है। ग्लैडसन डुंगडुंग ने ‘इतना मजबूर क्यों हो मंगरा? ’ नामक कविता में आदिवासी समाज को सजग बनाने की कोशिश करते हुए लिखती है :
“क्या तुम यह जानते हो मंगरा / वे तुम्हारी पहचान मिटाने आये हैं / उन्होंने लूटी है तुम्हारी जमीन / तुम्हारी बेटियों को भी छोड़ा नहीं है उन्होंने / अब वे तुम्हारी भाषा / संस्कृति और परम्परा मिटा रहे हैं ”⁵
आदिवासी अस्मिता के सन्दर्भ में स्त्री की अस्मिता भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। आदिवासी महिला साहित्यकारों ने अपनी ज्यादतर रचनाओं में स्त्री की समस्या और अस्मिता के लिए उनका संघर्ष को प्रस्तुत किया है। निर्मला पुतुल ने अपनी कविता ‘अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्री’ में नारी की इसी दुर्दशा का चित्रण किया है। इस सन्दर्भ में वह लिखती हैं :
“यह कैसी विडम्बना है / कि हम सहज अभ्यस्त है / एक मानक पुरुष-दृष्टि से देखने / स्वयं की दुनिया / मैं स्वयं को स्वयं की दृष्टि से देखते / मुक्त होना चाहती हूँ अपनी जाति से / क्या है मात्र एक स्वप्न के / स्त्री के लिए घर सन्तान और प्रेम ?/ क्या है ?” ⁶
अब आदिवासी अपने अधिकारों के प्रति सजग और शोषण के विरुद्ध सचेत हैं। आदिवासियों के बीच इस नवचेतना को पैदा करने में प्रत्येक भाषा में लिखित साहित्यों का अपना महत्त्व है। इन साहित्यिक कृतियों के मूल स्वर आत्म-पहचान होकर भी कभी-कभी इन शोषण सत्ताधारियों के लिए चेतावनी देने का प्रयास भी आदिवासी कवियों ने किया है। ज्योति लकड़ा ने अपनी कविता ‘तुम्हारा डर’ में मुख्यधारा समाज को इस प्रकार चेतावनी देते है कि :
“अब भी वक्त है सम्भल जाओ तुम / कि तुम्हारी तरह क्रूर न हो जाऊँ मैं / अगर अब भी नहीं चेते तुम / तो भूल जाऊँगी मैं / तुम कौन हो, कौन थे?”⁷
आज आदिवासी अपनी अस्मिता के साथ - साथ जीवन की संकटपूर्ण स्थिति से ही गुजर रहा है। सामाजिक व्यवस्था के साथ राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में भी इन जन-समुदायों का शोषण हो रहा है। आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी जीवन के इसी दू:ख-दर्दपूर्ण स्थिति को अपनी कविताओं के केंद्र में रखा। यहीं नहीं लोककथा, लोकगीत और लोकभाषा तक सीमित इस साहित्यिक चिंतन को वैश्विक स्तर पर ले जाने में भी हिन्दी भाषा और हिंदी तथा अन्य भाषाओं के साहित्यकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसलिए आदिवासी अस्मिता और हिन्दी कविता प्रत्येक युग विशेष में प्रासंगिक है।
सन्दर्भ संकेत :
- सं. रमणिका गुप्ता, कलम को तीर होने दो, वाणी प्रकाशन, पृ - 231
- वहीं , पृ -121
- वहीं , पृ-235
- वहीं , पृ -275
- वहीं , पृ -265
- निर्मला पुतुल - अपने घर की तलाशा में, रमणिका फाउंडेशन, पृ - 110
- सं. रमणिका गुप्ता, कलम को तीर होने दो,पृ -171
- श्रीलेखा के.एन.
कोच्चिन विश्वविद्यालय, केरल
ये भी पढ़ें;
• आदिवासी समाज : लोकगीत परम्परा
• आदिवासी : भारत की जनजाति के लोग
Keywords; Tribal identity and Hindi poetry, Sreelekha K. N., हिन्दी कविता और आदिवासी विमर्श, आदिवासी कविताओं में चित्रित आदिवासी समाज, आदिवासी कविता का विकास, समकालीन कविता में आदिवासी, हिन्दी साहित्य में आदिवासी-विमर्श, हिन्दी कविता, आदिवासी कविता, आदिवासी साहित्य, आदिवासी समाज।