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Essay on Women Employment in Hindi
Adhunik Nari Aur Naukri Essay In Hindi
आधुनिक नारी एवं नौकरी
नयी और आधुनिक शिक्षा तथा देश की स्वतन्त्रता ने नारी को घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने का अवसर दिया है। आधुनिक विचारधारा और वैज्ञानिक सोच का भी इस कार्य में विशेष हाथ माना जाता है। आज की नारी का संसार चौके-चूल्हे तक ही सीमित न रहकर, उससे बाहर का संसार भी बन चुका है। वह जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य कर रही है। भाव, विचार और कार्य आदि हर दृष्टि से वह आधुनिक बन चुकी है। पुराना पर्दा या घूँघट, पुराना पहनावा, पुराने रीति-रिवाज और परम्पराएँ आज एक मजाक या हास्य-परिहास का विषय बन चुकी हैं। अगर कुछ परिवारों में परम्पराओं का एक सीमा तक नारियाँ पालन भी करती हुई दिखाई देती हैं, तो उसे उनकी विवशता ही कहा जा सकता है।
स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पहले यदि नारी कहीं नौकरी या काम-धन्धा करती हुई दिखाई भी देती थी, तो केवल दो क्षेत्रों में। वे क्षेत्र थे नर्स और अध्यापिका। परन्तु आज वह जीवन के हर क्षेत्र में काम कर रही है। पुरुषों से भी बढ़कर अपनी प्रतिभा और कार्यक्षमता का परिचय दे रही है। पुलिस के उच्च पदों पर तो वह पहुँच ही चुकी थी, अब सुरक्षा-सेनाओं के द्वार भी उनके लिए खुल गए हैं। यह सब देख-सुनकर स्वाभाविक प्रश्न उठता है, आखिर नारियाँ नौकरी क्यों करती हैं? देश में रोजगारों, नौकरियों की कमी है। नवयुवक बेकार जूते घिसते फिरते हैं नौकरी पाने की तलाश में, पर आधुनिकाएँ मौज-मस्ती और घर-परिवार को भूलकर नौकरी के पीछे भागी फिरती हैं-आखिर क्यों?
इस प्रश्न का उत्तर कई प्रकार से दिया जाता है। नारी स्वतन्त्रता के पक्षपाती कहते हैं कि जब तक नारी धन की दृष्टि से स्वावलम्बी नहीं हो जाती, अपने पाँवों पर खड़ी नहीं हो जाती, तब तक स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं है। सो आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र बनने के और दिखने के लिए वह नौकरी करती हैं। दूसरे, नित्यप्रति बढ़ रही महँगाई की दृष्टि से भी इस प्रश्न पर विचार किया जाता है। कहा जाता है और यह ठीक भी है कि आज का जीवन बड़ा महँगा हो गया है। स्तर और ढंग का जीवन जीने के लिए बहुत धन की आवश्यकता हुआ करती है। जब तक घर के सभी लोग बालिग सदस्य कमाई न करें, तब तक घर-परिवार की आवश्यकताएँ पूरी कर पाना सम्भव नहीं हो सकता। निम्न मध्य और मध्य वर्ग के परिवारों की नारियाँ आर्थिक विवशता, घर-परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए नौकरी किया करती हैं।
कई बार उच्च मध्यवर्गीय परिवार की नारियों को भी नौकरी करते हुए देखा जाता है। बड़े सरकारी अफसरों की कन्याएँ, बीवियाँ क्योंकि अपने सामाजिक सम्बन्धों और पारिवारिक पहुँच के कारण सहज ही नौकरी पा लेती हैं, इस कारण वे नौकरी करने लगती हैं। याद रखने वाली बात यह है कि इस प्रकार की नौकरी करने वाली नारियों का वेतन का सारा पैसा प्रायः अपने बनाव श्रृंगार, मात्र अपनी निजी आवश्यकताएँ पूरी करने पर ही खर्च हुआ करता है। हाँ, घर-परिवार में आने वाले सामाजिक प्रतिष्ठा के अवसरों पर भी ऐसी नारियाँ जी खोलकर खर्च करती हैं। नौकरी-पेशा नारियों का एक ऐसा वर्ग भी दिखाई देता है जिसे अपने या किसी के लिए भी पैसे की कतई कोई जरूरत नहीं। उनके पति आदि सभी रास्तों से मोटी कमाई लाकर उन्हें दिया करते हैं, पर फिर भी उनका समय तो नहीं कट पाता न। सो केवल समय काटने के लिए भी कई नारियाँ हजार-बारह सौ की नहीं, चार-पाँच हजार वेतन तक की नौकरियाँ किया करती हैं। हमारे विचार में नौकरी पेशा आधुनिक नारियों के इन दो वर्गों के नौकरी में आने के कारण बहुत सारी उन नारियों को नौकरी नहीं मिल पाती जो वास्तव में जरूरतमन्द होती ही हैं, योग्य और प्रतिभाशाली भी हुआ करती हैं। अच्छा है, ऐसी नारियाँ अन्य समाज-सेवा आदि के कार्य करके अपना समय गुजार लिया करें, बेकार की शान-शौकत के लिए खर्च न किया करें, अपनी जरूरतमन्द और योग्य बहनों के लिए स्थान खाली रहने दें। इससे बहुतों का भला हो सकता है।
नारियों द्वारा नौकरी करने का एक और महत्त्वपूर्ण कारण भी है। यों जुड़ा हुआ तो वह भी निम्न मध्यवर्गीय नारी की आर्थिक आवश्यकता से ही है, पर उसका उद्देश्य अपनी और अपने घर-परिवार की जरूरतें पूरी करना नहीं है, बल्कि शादी के बाजार में स्थान, महत्त्व और अवसर पाना है। आधुनिक नारियों के नौकरी करने का यह कारण हमारे विचार में निम्न मध्य और मध्यवर्गीय युवकों के बौनेपन या बौद्धिक मानसिक खोखलेपन का भी प्रतीक है। असमर्थ और लोभी-लालची किस्म के युवक कमाऊ पत्नियाँ खोजा करते हैं। कहते हैं कि नौकरी करने वाली लड़की के लिए वर शीघ्र और अच्छा मिल जाता है। एक सीमा तक शीघ्न मिल जाने की बात तो मानी जा सकती है, पर अच्छा भी मिल जाता है, यह पूरी तरह से नहीं माना जा सकता। क्योंकि इस इच्छा से नौकरी, बाद में सुख पाने की इच्छा से विवाह करने वाली नौकरी पेशाओं को कई बार बड़ा कष्ट और यातनापूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए देखा गया है। उस अवस्था में अक्सर ऐसी नारियाँ आधुनिक होकर भी आधुनिक नहीं बन पातीं। कभी माँ-बाप, घर-परिवार की लाज के नाम पर और कभी अपने झूठी शान और मर्यादा के नाम पर वे जीवन-भर कष्ट भोगती रहती हैं, कई बार जलाकर या अन्य तरीकों से मार डाली जाती हैं, पर समय रहते सम्बन्धविच्छेद कर, अपनी मुक्ति का रास्ता तलाश कर वास्तविक अर्थों में अपने-आपको आधुनिक साबित करने का प्रयास कतई नहीं करतीं। सो कहा जा सकता है कि केवल वेश भूषा से ही नहीं, मन-मस्तिष्क से, अपने सक्रिय व्यवहार से भी आधुनिक बनकर नारी पूर्ण स्वावलम्बी, स्वतन्त्र हो सकती है। आधुनिकता का वास्तविक अर्थ भाव, विचार और क्रिया की चेतनागत स्वतन्त्रता है, अन्य कुछ नहीं।
जहाँ तक नौकरी-पेशा नारी की कार्य-क्षमता का प्रश्न है, सूझ-बूझ का सवाल है, उस पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। हाँ, अभी तक वह साहस उसमें नहीं आ पाया कि जो स्वतन्त्र-स्वावलम्बन और पूर्णतया आधुनिक बनने के लिए आवश्यक है। इस अभाव के कारण ही वह अपने पुरुष सह-कर्मियों में अक्सर दबी-घुटी रहती हैं। अक्सर अपने को असहाय-सा अनुभव करने लगती है। ऐसी आधुनिकाएँ भी देखी जा सकती हैं, जिन्होंने इस प्रकार की सारी दुर्बलताएँ निकाल फेंकी हैं। इसी कारण वे कई-कई अधीनस्थ कर्मचारियों पर कुशल शासन चला रही हैं। परन्तु इस प्रकार की नारियों की संख्या बहुत कम है। कई नारियों ने गाड़ी या कार चलाना, क्लबों में जाकर नाचना-गाना, सिगरेट-शराब पीने जैसे कामों को ही आधुनिकता मान लिया है। कम कपड़े पहनकर दफ्तरों में पहुँचना और सबकी दृष्टियों का केन्द्र बन जाना भी कइयों ने आधुनिकता मान लिया है। इनमें से केवल गाड़ी-कार चलाना ही आधुनिकता का लक्षण माना जा सकता है, बाकी सब तो उच्छृंखलता ही है, जबकि उच्छृंखल होना न तो आधुनिकता है और न स्वतन्त्रता ही है।
जो हो, नारी और नौकरी न तो एक-दूसरे के पर्याय हैं, न आधुनिकता के ही। खास ध्यान रखने वाली बात यह है कि हर पुराना बीतकर जो नया आया करता है, वह आधुनिक ही हुआ करता है। सो, आधुनिकता या आधुनिक होने का अर्थ समय के रुख को पहचानकर, सबल और दृढ़ बनकर उचित मानवीय कर्त्तव्यों का पालन करते जाना है-चाहे वह नारी को नौकरी करके करना पड़े और चाहे घर-परिवार में व्यस्त रहकर। जिससे नारी का व्यक्तित्व निखरे, सम्मान बना रहे, यही उसकी आधुनिकता है।
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