महाकवि रामधारी सिंह दिनकर : समय का सूर्य

Dr. Mulla Adam Ali
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Rastrakavi Dr. Ramdhari Singh Dinkar, Former Member of Rajya Sabha Ramdhari Singh Dinkar, was an Indian Hindi language poet, essayist, freedom fighter, patriot and academic.

Dr. Ramdhari Singh Dinkar

महाकवि रामधारी सिंह दिनकर

Rashtrakavi Ramdhari Singh Dinkar

'दिनकर' समय का सूर्य

हिंदी-उर्दू के जिन चुने हुऐ कवियों के चरणों में बैठने पर अथवा जिनका स्मरण करने पर भारत राष्ट्र, राष्ट्रीयता और अपनी संपूर्ण सांस्कृतिक अस्मिता का गौरव बोध स्मृति पटल को उद्वेलित करने लगता है उनमें कवि दिनकर का स्थान अप्रतिम है। वह वास्तविक अर्थ में 'अपने समय का सूर्य' है परंतु उसकी चमक-दमक, उसका ओज-तेज और उसकी ऊर्जा अपने समय तक ही सीमित नहीं है। उसकी प्रखर शब्दावली में आज भी भारत बोलता है। उसने समसामयिक राष्ट्रीय आकांक्षाओं के साथ जीवन के जिन मूल्यों को अन्वेषित और प्रतिष्ठित किया है, वे शाश्वत हैं। कवि के मानसिक परिवेश को नालंदा, वैशाली, हिमालय, अशोक, चंद्रगुप्त, भीष्म, कर्ण, परशुराम ओर पुरुरवा आदि जिस रूप में अपनी समग्र आस्था के साथ निर्मित करते हैं तथा जिस रूप में उसकी सांस्कृतिक काव्य-भूमि में राष्ट्रीयता का आह्वान, उद्वेलन, हुंकार और स्वाभिमान भरा बिरवा विकसित होकर राष्ट्रव्यापी प्रसार पाता है उसे देखते हुए उसकी कालजयी वाणी का बोध सहज रूप में हो जाता है। मात्र कान और मन को झनझनाने वाली वीर रस की पुरानी रुग्ण चारण परंपरा से सर्वथा पृथक शुद्ध-सात्विक वीर रस की ऐसी परंपरा जिसमें राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय आकांक्षा कवि की आत्मा के स्वर के रूप में झंकृत होती है, दिनकर की अपनी निजी पहचान है। इस पहचान में विद्रोह, विप्लव और विध्वंस है। ललकार, युद्धोत्साह, पौरुष और बलिदानी चेतना है। यह चेतना मनुष्य को मनुष्य बनाने, अपने स्वत्व के लिये लड़ने और समस्त प्रकार की भीरुता, किंकर्तव्यविमूढ़ता और कायरता को हटाकर उसके सात्विक तेज को उभाड़ने के संदर्भ में जितनी प्रासंगिक गांधी और नेहरू-युग में थी उतनी ही प्रासंगिक तब तक रहेगी जब तक इस धरती पर दैन्य, दासता, अन्याय, अत्याचार, शोषण, वैषम्य और अमानवता रहेगी।

मनुष्य की दैन्य-दासता आदि को हटाने के लिए जिस अहिंसक मार्ग का नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया उसका सात्विक विरोध दिनकर के काव्य में दृष्टिगोचर होता है। अपने दुर्द्धर्ष चरण-चाप से भूगोल को दबा देनेवाली 'विपथगा' क्रांति में कवि का अटूट विश्वास है। उसे युधिष्ठिर की सत्यनिष्ठा पर नहीं गांडीव-गदा सहित अर्जुन-भीम वीर पर आस्था है। इसीलिये जब वह देश की सोयी अस्मिता के प्रतीक रूप में हिमालय को जगाता है तो उक्त वीरों को और उनके शस्त्रास्त्रों को लौटा देने की मांग करता है। अत्यंत बेलाग भाषा और दो टूक शब्दावली में वह धर्मराज को नकारते हुए कहता है-

"क्षमा, दया, तप-तेज़, मनोबल की दे वृथा दुहाई,

धर्मराज व्यंजित करते तुम मानव की कदराई।"

इस प्रकार दिनकर में जो क्रांति का सूर्यनाद और शौर्य का उद्घोष है उसकी प्रक्रिया अत्यंत स्पष्ट है। उनकी दृष्टि में उच्च विजित शृंगों पर चढ़कर वहीं झंडा उड़ाते हैं जो अपनी ही उंगली पर खंजर की जंग छुड़ाते हैं। कवि दिनकर ऐसे ही क्रांतिकारी दीवानों का पक्षधर है। इनका उसने निकट से साक्षात्कार किया है। उसने देखा है कि 'जिन्हें देखकर दिलेर मर्दानों की हिम्मत डोल जाती है उन गौजों पर कुछ दीवानों की किश्ती चली जा रही है।' इन लोगों की रस से भरी जवानी नेत्रों पर चढ़कर खेलती है। इनके पैरों में जब छाले पड़ जाते हैं तो इनकी गति की तृषा और बढ़ जाती है। इन्हें भाग्य या नियति का नहीं, अपने पौरुष का, भुजबल का भरोसा होता है-

"ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है।

अपना सुख उसने अपने ही भुजबल से पाया है।।"

ऐसे पौरुष के काव्य का प्रणेता तेजोद्दीप्त कवि दिनकर जिसकी पांच फीट ग्यारह इंच लंबाई में सचमुच ही सूरज की भाँति दमकता एक गोरा चिट्टा, भारी भरकम, बड़ी-बड़ी आँखें, तेजस्वी और गुरुगंभीर वाणी से परिपूर्ण शरीर एक युग तक उसकी उस घोषणा को सत्यापित करता रहा है जिसमें कहा गया है कि 'सुनूं मैं सिंधु क्या गर्जन तुम्हारा, स्वयं युग- धर्म का हुंकार हूँ में!" लोकमानस में कवि का यह हुंकार आज भी गूंजता है और बीतते समय के साथ इसकी प्रखरता और भी बढ़ती जायेगी। कवि दिनकर में यदि अद्वितीय संप्रेषणीयता है तो वह कुल मिलाकर उसकी प्रखरता को ही पाठकीय चित्त में संप्रेषित करती है। जैनेंद्र कुमार ठीक ही कहते हैं कि "प्रखर शब्द दिनकर के व्यक्तित्व को अपने पूरेपन के साथ व्यक्त करता है।" दिनकर की यह प्रखरता उसी समय विद्यमान नहीं रहती है जब वह 'परशुराम की प्रतीक्षा' जैसे क्रोध और रोष के काव्य का सृजन करता है अथवा 'हुंकार', 'कुरुक्षेत्र', 'रश्मिरथी' आदि में गरजता है अपितु उसकी व्याप्ति वहाँ भी होती है जहाँ वह 'उर्वशी' जैसा काम का काव्य शिखर प्रस्तुत करता है। अथवा 'रसवंती' आदि में प्राणों के आग्रह के साथ सहजमन की प्रवृत्तिमूलकता को अभिव्यक्त करता है। सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना के साथ उसकी यह वैयक्तिक चेतना जो 'आदमी' होने की ईमानदारी के साथ देह की पुकार वाले भोग और देश की पुकार वाले त्याग के अंतर्द्वद्व के साथ अभिव्यक्त होती है, बहुत ही प्रभावशाली होने के साथ कवि-व्यक्तित्व की संपूर्णता और संतुलन-चारुता को प्रमाणित करती है। लचीली कोमलता और फौलादी कठोरता का यह समन्वय सर्वत्र पाठकों को विभोर कर देता है। गरजन-तड़पन और ललकार-फुफकार के बीच जब कभी 'बन तुलसी की गंध लिये शीतल पुरवइया आती है' और कवि को उसका ग्रामांचल पुकारता है तो वह अपने को रोक नहीं पाता है। वह तड़प उठता है-

"कवि असाद की इस रिमझिम में, घन-खेतों में जाने दे।

कृषक बघूटी के स्वर में, अटपटे गीत कुछ गाने दे!"

ऐसा लगता है कि गाँव, खेत, धरती, किसान और किसानों का शोषित-पीड़ित देश बीज रूप में दिनकर के काव्य में पड़ा है और इसीलिये उसमें अचूक शक्ति आ गयी है। अपने इस उजड़े ग्रामांचल को देखते वह दिल्ली को फटकारता हुआ दृष्टिगोचर हो रहा है, 'मरघट में तू सज रही दिल्ली ऐसी श्रृंगार?' समय और स्थितियों के बदल जाने पर भी ऐसा लगता है कि दिनकर की वह 'दिल्ली' शीर्षक कविता अभी शतप्रतिशत ताजी है। अपने गाँवों को देखते आज भी लगता है कि स्वराज्य कहीं अटक गया है और कानों में दिनकर के स्वर गूँजते हैं। वह सीधे दिल्ली से पूछ रहे हैं, "बोल दिल्ली तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?" यह राष्ट्रकवि दिनकर ही है जो रानी दिल्ली को सीधे हुक्म दे सकता है, "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"

यह जनता के स्वत्व, न्याय, सुख और स्वाभिमान का प्रबल अधिवक्ता दिनकर क्या है? जो बेनीपुरी जी के शब्दों में "इंद्रधनुष की अठखेलियों से आच्छादित धधकता अंगारा है, जो एक स्कूल के प्रधानाध्यापक से उठकर सब रजिस्ट्रार, युद्ध प्रचार विभाग का सेवक, जनसंपर्क विभाग का डिप्टी डायरेक्टर, हिंदी प्रोफेसर, विश्वविद्यालय-कुलपति, सदस्य राज्य सभा और हिंदी सलाहकार, भारत सरकार तक पहुँचता है, जिसे पद्मभूषण की उपाधि के साथ साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, उत्तर प्रदेश और बिहार की सरकारों के अनेक पुरस्कार और साहित्य चूड़ामणि, विद्यावाचस्पति तथा डी. लिट. की उपाधियाँ उछल कर चूमती हैं, जिसने 'विजयी वारदोली' (1928) से शुरू कर बत्तीस काव्य-ग्रंथ और सत्ताईस गद्य पुस्तकें हिंदी साहित्य को भेंट कीं, जिसकी यूरोप, चीन, रूस, मारीशस, जर्मनी और इंग्लैंड की यात्राओं में भारत के साथ हिंदी भाषा का सिर ऊँचा उठा, सन् 1952 से मनोनीत होकर जिसका राज्य सभा के सदस्यवाला बारहवर्षीय जीवन कुल मिलाकर हिंदी के लिए घनघोर लड़ाई का जीवन रहा और जिसके राज्य सभा में किये गये महत्त्वपूर्ण पंद्रह भाषण हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के न्याय संगत प्रामाणिक पक्ष को विरोधियों के प्रहारों के मुँहतोड़ उत्तर के साथ प्रस्तुत करने वाले मूल्यवान दस्तावेज़ हैं, जिसके जीवनकाल में ही उसके साहित्य का अंग्रेज़ी, रूसी, स्पेनिश, दक्षिणी अमेरिका की भाषा, कन्नड़, तेलुगु और उड़ीया अनुवाद हो गया और सौ से ऊपर शोध और समलोचनात्मक ग्रंथ प्रकाशित हो गये, जो एक साथ उच्चकोटि का कवि, गद्यकार, इतिहासकार, संस्कृति विश्लेषक, निबंधकार, भाषणकर्ता और कवि सम्मेलन का आकर्षक श्रृंगार है, जो नरवीरों और तलवार वालों की धरती को जीत कर अंत में हरिनाम की ओटवाली अपनी हार को भी ईमानदारी से प्रकाशित कर देता है, जिसकी शब्दावली में सामर्थ्य, शक्ति, उत्साह, समृद्धि, जीवंतता, गूँज, ध्वनि, रस, बिंब, प्रवाह, वक्रता विदग्धता, द्वंद्व, आवेग, उत्तेजना, और अकुलाहट आदि विलक्षण सहजता के साथ विद्यमान हैं, वह सिमरियाघाट का जनमा कवि रामधारी सिंह दिनकर वास्तव में क्या है? इस प्रश्न का उत्तर अच्छा हो कवि के शब्दों में ही प्रस्तुत किया जाय। वह पुरुरवा से तादात्म्य स्थापित कर उर्वशी से कहता है-

"मर्त्यमानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।

अंधतम के भाल पर पावक जलाता हूँ, बादलों के सीस पर स्पंदन चलाता हूँ।


- डॉ. विवेकी राय

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