वर्तमान में भारत की प्रमुख समस्याएं पर हिन्दी में निबंध, Bharat ki Pramukh Samasya Par Nibandh, Bharat ki Pramukh Samasya essay in Hindi.
Essay on Aadhunik Bharat Ki Samasya
Bharat ki Pramukh Samasya essay in Hindi
भारत की आधुनिक समस्याएँ
भारत हो या कोई अन्य देश, जहाँ भी जीवन है और आदमी रहते हैं, वहाँ समस्याएँ न हों, ऐसा कभी कहा, माना और सोचा भी नहीं जा सकता। भारत जब से अस्तित्व में आया है, तभी से तरह-तरह की समस्याओं से दो-चार हो रहा है। परन्तु जब 'आधुनिक समस्याएँ', जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, तब उन सबका अर्थ और सम्बन्ध परम्परागत समस्याओं से न होकर, कुछ नई किस्म की समस्याएँ एवं प्रश्न ही हो सकते हैं। अतः यहाँ गरीबी, बेकारी, महँगाई जैसी जन्मजात और परम्परागत समस्याओं की चर्चा नहीं की जा सकती। ये तो सभी विकासशील देशों की ही नहीं, विकसित देशों की भी समस्याएँ हैं। हमारे विचार में आधुनिक समस्याओं से अभिप्राय वे नई बातें और परिणाम हैं, जो विश्वास के संकट, मूल्यों-मानों के संकट के कारण सामने उठकर समस्याओं का रूप धारण करती जा रही हैं। जिनकी उपेक्षा पश्चिम की देन या प्रभाव कहकर, दिशाहीन सिनेमा की उपज बताकर नहीं की जा सकती। वास्तव में इनके मूल कारणों में जाकर इनकी तह तक पहुँचने की आवश्यकता है। नहीं तो विघटन और गिरावट का जो दौर शुरू हुआ है, वह कहीं भी न रुक भारतीय सभ्यता-संस्कृति को विनाश के किसी अनजाने अन्धे कुएँ में फेंक देगा।
देश जब स्वतन्त्र हुआ था, तब लोगों के मन-मस्तिष्क तरह-तरह के आशावादों और विश्वासों से भर उठे थे। लोगों ने मानने की गलती कर ली थी कि अब किसी जादू की छड़ी के जोर से हमारी सारी मुसीबतों का अन्त और समस्याओं का समाधान हो जाएगा। स्वतन्त्रता-संघर्ष में मैज-तपकर निकले नेता जब तक रहे, ये आशा और विश्वास एक सीमा तक बने रहे। लेकिन जैसे ही राजनीतिज्ञों की अगली खेप, नए धनपति बन गए, लोगों की पीढ़ी ने जीवन-समाज और प्रशासन में कदम रखा, शोषण और भ्रष्टाचार का अनजाना दौर शुरू हो गया। नए-नए उद्योग-धन्धों की स्थापना और पश्चिम की नकल पर विकास की जो लम्बी-ऊँची उड़ान शुरू हुई, उससे थोड़ा-बहुत होने वाले लाभों को या तो नए राजनेता डकारने लगे, या फिर नए उभर रहे धनी वर्ग और पुराने धनियों की नवीनतावादी सन्तानें। आम आदमी पर तरह-तरह के बोझ और दबाव बढ़ने लगे। विकास की कीमत तो आम आदमी को चुकानी पड़ रही थी, पर फल कहीं और जा रहा था। फलस्वरूप अस्तित्व रक्षा का प्रश्न स्वतन्त्र भारत की पहली बड़ी आधुनिक समस्या बनकर सामने आया। इस समस्या के कारण भी वही नए नेतागण और पूँजीपति वर्ग के नए लोग ही थे जो आम जनता को आश्वासन तो कुछ दे रहे थे, पर व्यवहार के स्तर पर कुछ और ही कर रहे थे। फलस्वरूप पैदा होने वाले अविश्वास के भाव ने अपने अस्तित्व के प्रति भी अविश्वास प्रकट कर अस्तित्व के संकट की समस्या के साथ-साथ विश्वास के संकट की समस्या को भी गहरा दिया।
हमारे विचार में आज हमारी सभ्यता-संस्कृति की नैतिकता, नीति आदि, घर-परिवार के विघटन-टूटन, पारम्परिक आदि से सम्बन्ध रखने वाली जिन्दगी भी आधुनिक समस्याएँ हैं, उनको जन्म देने वाली बुनियादी समस्याएँ ऊपर कही गई दो समस्याएँ ही हैं। नित्यप्रति बढ़ते जा रहे आर्थिक दबावों, पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति के जहरीले प्रभावों ने निरन्तर बढ़कर, भारतीय चेतना पर छाकर उस सबको गहरा ही बनाया है। पश्चिमी भाषा, सभ्यता-संस्कृति, उसकी हिंसक और कामुक, दूसरे शब्दों में, मात्र उपभोक्तावादी दृष्टि ने आज स्वतन्त्र भारत के सामने लगभग तीन-साढ़े तीन दशकों के बाद से अपनी पहचान के संकट की समस्या ने एक भयानक रूप धारण कर लिया है। हमारे लिए अच्छा और उपयोगी, अपनाने योग्य और आनन्ददायक वही है कि जो विदेशी है। या फिर अपना होते हुए भी विदेश से होकर हम तक पहुँचा है। जैसे लुधियाने में बना स्वेटर इंग्लैंड-अमेरिका में पहुँच वहाँ का लेबल लगा दिया जाता है। उसे खरीदकर जब कोई भारतवासी आकर किसी भारतीय को देता है, तो वह उसके वास्तविक स्वरूप को न पहचान, विदेशी माल मान निहाल हो जाता है, कुछ इसी प्रकार की मानसिकता हम सबकी बन गई है। पहचान के संकट की समस्या कुछ इसी प्रकार की है।
नकल भी आधुनिक भारत की एक विकराल हो रही आधुनिक समस्या कही जा सकती है। छात्र परीक्षाओं में नकल करते हैं या छुरे-पिस्तौल के बल पर करना चाहते हैं, नकल भी समस्या का एक रूप है। परन्तु पश्चिमी चकाचौंध, मारधाड़, हिंसा, बलात्कार आदि की नकल पर बनने वाली भारतीय फिल्में हमारी नई पीढ़ियों को क्या बाँट और दे रही हैं? वे ऐसे सपने बाँट रही हैं जो कभी पूरे नहीं हुआ करते। ऐसा हम जानते हैं, फिर भी उनकी नकल करने की हर प्रकार से कोशिश करते हैं। जब कोशिशें पूरी नहीं हो पातीं, तो हमें अपनी वास्तविक शक्तियों पर विश्वास नहीं रह पाता। हम सपने के पूरे करने के लिए हर प्रकार के अनैतिक रास्तों पर चलने लगते हैं; फिर चाहे वह रास्ता हिंसा, मारकाट, बलात्कार, चोरी डकैती आदि के पड़ावों से होकर ही क्यों न जाता हो। इस प्रकार सपने बेचने वाली संस्कृति की नकल की प्रवृत्ति ने विश्वास के संकट की समस्या को और भी गहरा बनाया है। तरह-तरह के भ्रष्टाचार, रिश्वत, काला बाजार, तस्करी आदि बुराइयाँ इसी समस्या के विभिन्न नाम और रूप कहे जा सकते हैं।
ऊपर भारत की जिन आधुनिक समस्याओं के नाम-स्वरूप बताए गए हैं, उनके विषम प्रभाव और मार से भारतीयता और मानवीयता मरती जा रही है। आपस में सत्य, अहिंसा, प्रेम, भाईचारे आदि के आधार पर जो गहरे सम्बन्ध थे. उनमें दरार आकर निरन्तर चौड़ी होती जा रही है। स्वार्थों की ऐसी अबूझ भावनाएँ हमारे बीच में आ गई हैं कि उन्होंने पति-पत्नी के सहज सम्बन्धों को तो क्या, भाई-भाई, बहन-भाई, पिता-पुत्र और माँ-बेटी के सम्बन्धों को भी जड़-मूल से उखाड़कर रख दिया है। इस प्रकार अस्तित्व का संकट, विश्वास का संकट, नकल की प्रवृत्ति, पश्चिमोन्मुख सपने देखने की भावना, सम्बन्धों का संकट आदि स्वतन्त्र भारत की आधुनिक समस्याएँ हैं। इन समस्याओं का सम्बन्ध क्योंकि लोगों की प्रवृत्तियों, मन और आत्मा से है, सो इनके रहते बेकारी, महँगाई तथा भ्रष्टाचारों से सम्बन्ध रखने वाली बाहरी समस्याओं का भी कोई समाधान सम्भव नहीं हो पा रहा। हिंसा, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, चोरी-डकैती और सीनाजोरी की घटनाएँ कोढ़ में खाज की तरह बढ़ती जा रही हैं। रक्षक ही भक्षक बनते जा रहे हैं। बेचारे आम आदमी की सुनवाई कहीं भी नहीं। समाज-सेवा की रट लगाने वाले राजनेता ही वास्तव में भ्रष्ट एवं संकल्पहीन हो गए हैं। जन-हित का कोई उत्साह कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा। परिणाम हमारे सामने है-समस्याओं की समस्या घोर अराजकता।
अब प्रश्न उठता है कि इन आधुनिक मानी जाने वाली समस्याओं का आखिर समाधान क्या है? इनके कारण जो मानवता और देश टूटने की प्रक्रिया में पड़ गए हैं, उन्हें कैसे बचाया जा सकता है? हमारे विचार में इस सबका एक ही उत्तर तथा समाधान हो सकता है। वह यह कि नैतिकता एवं नैतिक शक्तियों पर विश्वास जगाया जाए। दृढ़संकल्प बनकर खोए विश्वासों को लौटाया जाए। शासन-सत्ता और व्यवहार के स्तर पर दृढ़ इच्छा-शक्ति का परिचय देकर उन समस्त बुराइयों, कुण्ठाओं की जड़ पर प्रहार किया जाए, जो इन समस्याओं की जनक हैं। संकल्प और क्रिया मिलकर ही अपनेपन के उस भाव को फिर से जगा सकते हैं कि जिसके जाग जाने पर अपने-आप ही सभी प्रकार की समस्याएँ दम तोड़ दिया करती हैं। चारित्रिक दुर्बलताओं से उबरकर ही इस राह पर बढ़ा जा सकता है, अन्य कोई चारा नहीं।
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