भाषा - साहित्य और विज्ञान

Dr. Mulla Adam Ali
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This Article Discuss about Language, Literature and Science., Vishwa Mohan Tiwari Hindi Articles. भाषा, साहित्य और विज्ञान पर इस आलेख में बताया गया है।

Bhasha, Sahitya aur Vigyan

Language, Literature and Science

Language, Literature and Science

भाषा, साहित्य और विज्ञान

        हम सब जानते हैं कि भाषा केवल विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने का माध्यम नहीं है, वरन दूसरा कार्य जो वह चुपचाप करती है, अधिक महत्वपूर्ण है - संस्कृति का संस्कार जिस कार्य में साहित्य उसकी सहायता करता है। यदि आप भारतीय भाषाओं में जिएंगे तब आपकी संस्कृति अपने आप भारतीय होगी। क्या संस्कृति की शिक्षा कोई योजना के तहत दी जाती है, नहीं न। वह तो जीवन जीते-जीते आ जाती है, जैसी भाषा होगी वैसी ही संस्कृति होगी। भाषा भ्रष्ट तो संस्कृति भ्रष्ट होगी। गौर करिये, एक समय था कि बस रामलीला और कृष्णलीला देख ली, राम कथा और श्रीमद्भागवत की कथा सुन ली, या पढ़ ली, गणेश उत्सव या दुर्गापूजा आदि त्योहार उमंग और उत्साह से मना लिये और बिना जाने हम पर भारतीय संस्कार पड़ गए। हममें उदारता, सहिष्णुता, एकत्व की भावना, माता-पिता का, गुरु का, अतिथि का, विद्वान का, नारी का सम्मान, मानव का सम्मान, न्याय प्रियता, अन्याय का प्रतिकार, नर सेवा, नारायण सेवा, सादा जीवन उच्च विचार आदि हमारे व्यवहार में सहज ही आ जाते थे। स्वतंत्रता पूर्व का भारत इसका प्रमाण है। यदि हममें यह गुण पर्याप्त मात्रा में नहीं आए हैं तब या तो हम अपनी भाषा में जीवन नहीं जी रहे हैं, या उस वातावरण में जी रहे हैं जहां भारतीय भाषाओं का सम्मान नहीं है! जिस भाषा का सम्मान नहीं, उस भाषा की संस्कृति हम नहीं सीख सकते।

यदि भारतीय साहित्य का भारतीय भाषाओं में अध्ययन करें तब तो उपरोक्त गुणों को न केवल दृढ़ आधार मिल जाता है वरन हमें चार पुरुषाथों का रहस्य, त्यागपूर्वक भोग का महत्व और जीवन का अर्थ समझ में आने लगता है। संक्षेप में कहें तो सुमानव बनने की प्रेरणा और ऊर्जा मिलने लगती है। यदि ऐसा नहीं हो रहा है, और स्वार्थपरता, भोग ही भोग की इच्छा और स्वकेंद्रिता बढ़ रही है तब या तो गलत साहित्य या पाश्चात्य साहित्य का प्रभाव अधिक पड़ रहा है। महात्मा गांधी के प्रभाव से पिछली शती के पूर्वार्ध में भारत में भारतीय संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता था, जो प्रभाव क्रमशः कम होता गया है। इसके अनेक कारण हैं, पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण और उससे अपनी रक्षा करने में हमारी असमर्थता उनमें प्रमुख हैं। विदेशी संस्कृति को आत्मसात करने की ताकत हमारी संस्कृति ने हजारों वर्ष दर्शाई है। अर्थात हमारी संस्कृति में शक्ति तो है किंतु आज हम उसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। वह इसलिये कि हम स्वयं ही उसे भूल रहे हैं क्योंकि उसकी वाहिनी भाषा को हम उचित सम्मान नहीं दे रहे हैं। अंग्रेजी हम अवश्य सीखें किंतु जीवन हम अपनी ही भाषा में जियें अन्यथा हममें न तो भारतीय संस्कृति रहेगी और न पाश्चात्य संस्कृति के अच्छे गुण आएंगे। और ऐसा हो रहा है। अपनी संस्कृति में स्थित होकर ही हम विश्व में अन्य संस्कृतियों से उनके गुण सीख सकते हैं और प्रगति कर सकते हैं, अन्यथा नहीं।

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सत्रहवीं शती में विज्ञान एक वरदान होने का स्वप्न बनकर आया, उस युग को 'एज ऑफ एनलाइटेन्मेंट' कहा गया। उसने रोगों का निदान किया, विद्युत ऊर्जा, तरह- तरह के एंजिन और मशीनें देकर हमारे शारीरिक श्रम को कम कर हमारी उत्पादकता सैकड़ों गुना बढ़ा दी। किंतु उस सब ऊर्जा और उत्पादकता का परिणाम यह कैसे हुआ कि एक तरफ विज्ञान समृद्ध देशों ने शेष विश्व को गुलाम बना लिया और उनका शोषण किया। तथा दूसरी तरफ उनके आपसी वैमनस्य और विश्वविजयी बनने की महत्वाकांक्षाओं ने विश्व को दो बार भयंकर युद्धों की विभीषिका में झोंक दिया, जिसमें लाखों निर्दोष नष्ट भ्रष्ट हुए और लाखों परमाण्विक भट्टी में भून दिये गए। यह कैसा विज्ञान है जो अपने सदुपयोग की शिक्षा नहीं दे सकता! यह कैसा 'एनलाइटेन्मेंट' था कि कुछ लोग अपने देशों में तो व्यक्तिस्वातंत्र्य का मूल्य रखते हैं और अन्य देशों को परतंत्र बनाते हैं! क्या हमने सीखा कि विज्ञान बिना धर्म या नैतिक शिक्षा के अंधा है? यदि हम विज्ञान अंग्रेजी में सीखेंगे तब हम भी गलतियाँ ही करेंगे और अधिक शक्ति से करेंगे।

द्वितीय विश्व युद्ध से पश्चिम ने यह अवश्य सीख लिया कि वे सामरिक शक्ति के बल पर उपनिवेश नहीं बरकरार रख सकते। उपनिवेश के लिये उन्हें अन्य तरीके अपनाने पड़ेंगे। वे जानते थे कि युद्ध व्यक्तियों के मनों में शुरू होते हैं अतएव उन्हें मनों को युद्ध के विरोध में तैयार करना होगा। उन्होंने इस सिद्धांत को यूनेस्को के आमुख में घोषित किया। विडंबना देखिये कि इस सिद्धांत का उपयोग कर उन्होंने विकासशील देशों के मनों पर अपनी भोगवादी संस्कृति का जहर घोलना शुरू कर दिया। इसमें विज्ञान ने भोग की वस्तुओं की उत्पादकता और विविधता बढ़ाकर, और उनमें निरंतर नवीनता लाकर उनके आकर्षण को शाश्वत बना दिया है। यह आक्रमण प्रभावी नहीं होता यदि भारतीय संस्कृति अपनी शक्ति या जीवंतता बनाकर रखती जो भोगवाद के विष पर नियंत्रण रखने के लिये उसे त्यागपूर्वक कार्य करने के लिये शिक्षा देती है। अतएव भारतीय संस्कृति पर चतुराई से आक्रमण किये गए।

मार्क्स के सिद्धांत, कि 'धर्म तो जनमानस के लिये अफीम है' का प्रचार कर हमें मार्क्सवाद की अफीम खिलाई गई। यू एस एस आर के विघटन के बाद मनों को जीतने के लिये बहुत ही सुविचारित घोषणाएँ की गई। विचारधाराओ के तथा इतिहास के अंत की घोषणा की गई। विचारधारा के अंत का मतलब यह है कि पूँजीवाद के विरोध में युद्धरत वामपंथ के अंत की घोषणा। अब उनके अनुसार पूँजीवाद का विरोध कोई अन्य विचारधारा कर ही नहीं सकती! और विचारधाराओं के अंत के साथ इतिहास, जो कि विचारधाराओं के युद्ध का ही वर्णन है, का भी अंत हो गया। यह पश्चिम में किसी के भी दिमाग में नहीं आता कि भोगवाद का विरोध कोई अन्य विचारधारा या आदर्श कर सकता है, या कि भोगवाद का कोई विकल्प भी हो सकता है! यदि यह किसी के मन में आता भी है तब वे उस पर चर्चा नहीं करना चाहते, क्योंकि उसकी चर्चा करने से उसका महत्व बढ़ सकता है। और एक देश भारत जो उसकी चर्चा कर सकता है, वे उसके मन पर पहले ही कब्जा कर लेना चाहते हैं।

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उनके सौभाग्य से हमारा प्रथम प्रधान मंत्री अंग्रेजी ही में पला था अतएव, तथाकथित भारत की खोज करने के बाद भी उसकी सोच पाश्चात्य ही रही। उसने भी धर्म को अफीम ही समझा, वह भारतीय भाषाओं की शक्ति से अपरिचित ही रहा और उसने विकास का न केवल एक विदेशी मॉडल अपनाया वरन उसने गुलामी की भाषा अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया और भारतीय भाषाओं को अयोग्य घोषित कर हमारी भाषा तथा संस्कृति का अपमान किया। क्या उन्हें मैकाले की 1835 में घोषित शिक्षानीति नहीं मालूम थी! अंग्रेजी भाषा के राजभाषा बनने के कारण तथा हमारी भाषाओं के अपमान के कारण, हममें हीन भावना और गहरी होती गई, तथा हमारी संस्कृति का क्षरण शुरू हो गया और उसकी जो शक्ति स्वतंत्रतापूर्व थी जिसने अनेक दिग्गज नेता तथा प्रबुद्ध जनमानस पैदा किये, वही आज बौने नेता ही पैदा कर रही है। क्या बात है कि आज यह देश समस्याओं के दलदल में बुरी तरह फँसता ही जा रहा है। जहाँ देखो आग लगी है। समस्या को सुलझाने के लिये विवेकवान तथा देशभक्त नेताओं की आवश्यकता होती है जो कि नहीं आ रहे हैं, वरन यह नेता तो समस्याओं को सुलझाने के स्थान पर और उलझा रहे हैं।

अब यही आरक्षण की समस्या लें। यदि आरक्षण का ध्येय गरीब जातियों का उत्थान है तब उनके लिये विशेष शिक्षा, दोनों व्यावसायिक तथा शास्त्रीय, का प्रबंध कर उन्हें योग्य क्यों नहीं बनाया जाता ! आखिर, विशेष कमजोर वर्ग के लिये विशेष शिक्षा ही तो उन्हें योग्य बना सकती है उनमें से धनी बन गए लोगों के स्थान पर गरीबों को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती! यह मननीय है कि क्या इस तरह द्वेष बढ़ाने से अंततः समाज का भला होगा? निष्कर्ष यही है कि हमारे नेताओं में विवेक की इतनी कमी है कि वे मात्र अपने स्वार्थ के लिये समस्याओं को सुलझाने के स्थान पर उलझा ही सकते हैं। उन्होंने नव्य पूँजीवादी विचारधारा अर्थात उन्मुक्त भोगवाद को बिना विचारे अंगीकार कर लिया है, तभी तो देश की प्रगति जूतों, कपड़ों, कोला, बर्गर, कृत्रिम उर्वरकों, कीटनाशकों, कच्चे माल तथा लोटेक द्वारा निर्मित उत्पादों के निर्यातों आदि से नापी जा रही है, न कि हाईटेक द्वारा निर्मित उत्पादों के द्वारा। चारित्रिक रूप से हम विश्व में बहुत ही नीचे हैं, और हमें शर्म भी नहीं आती। पश्चिम हमें अपना सस्ता बाजार तथा सस्ता मजदूर बनाकर रखना चाहता है और हम उसी में मस्त हैं। 'कौन बनेगा करोड़पति' पश्चिम की चतुर चाल है, जो 'क्विज़' जैसी भेड़ के पहिनावे में हम पर लोभी भेड़िये का आक्रमण है, ताकि हम करोड़पति बनने के लिये कुछ भी करने को तैयार हों! निस्संदेह 'क्विज' युवा के लिये उपयोगी है जो उपयोगी जानकारी के स्मृति बैंक बनाने का कार्य कर सकते हैं किंतु वे सोचने की शिक्षा नहीं देते ! आज सारा माध्यम हमें सोचने के लिये नहीं वरन पकी पकाई खाने के लिए प्रोत्साहित करता है।

पश्चिम से ही प्रेरित मनोरंजन के नाम पर अन्य कार्यक्रम भी हमें स्वकेंद्रित और घोर स्वार्थी बनाकर हमारे परिवार में प्रेम के स्थान पर विघटन डाल रहे हैं। हम बड़े मजे से अमानवीय होते जा रहे हैं। और विडंबना यह कि इस सब में विज्ञान की भी अहम भूमिका है क्योंकि आकर्षक भोग की वस्तुएँ नितनवीन एक ज्वालामुखी की तरह उत्पन्न होकर हमारी मानवता को भस्म कर रही हैं।

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विज्ञान ने हमें चकित और भ्रमित कर दिया है। विज्ञान और उसकी सहेली प्रौद्योगिकी ने आज विश्व को इतना समृद्ध कर दिया है कि आज कोई भी धनी व्यक्ति बिना मरे या बिना 'लास्ट जजमेंट' के यहाँ और सभी स्वर्ग के सुख पा सकता है। आज हम सब स्वर्ग पाने की घुड़दौड़ में लगे हैं। जब कि हमारी संस्कृति ने हजारों वर्ष पहले ही स्वर्ग की अवधारणा का अवमूल्यन और फिर निषेध कर दिया था। उपनिषद और गीता

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्ति अविपश्चितः ।

वेद वादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्म कर्मफल प्रदाम् ।

क्रियाविशेष बहुलां भोगैश्वर्य गतिंप्रति ।

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसां ।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।। 2 अध्याय इसके प्रमाण हैं। स्वर्ग में जो निरंतर तथा अपरिमित भोग का स्वप्न है वह मानव को दानव बना देता है, यह हमारे ऋषियों की समझ में तभी आ गया था। इसीलिए उन्होंने 'त्यागपूर्वक भोग' को जीवन मूल्य बनाया था। किंतु हम विज्ञान द्वारा इतने चकित और भ्रमित हैं कि हम इस भोगवाद का विकल्प ढूँढ़ ही नहीं पा रहे हैं।

विज्ञान आज हमारे जीवित रहने के लिये नितांत आवश्यक है, इसमें भी संदेह नहीं। जो भी देश विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में पिछड़ा रहेगा वह पश्चिम का गुलाम रहेगा, पश्चिम का उपनिवेश ही रहेगा, और इसी ध्येय को लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिम ने हमारी संस्कृति पर आक्रमण किया था और इसमें उन्हें आश्चर्यजनक सफलता मिली है। तब इस कठिन समस्या का हल कहाँ है?

हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी में पश्चिम की बराबरी पर आएँ तथा अपनी संस्कृति में जीवन जियें। कुछ शिक्षित व्यक्ति कह सकते हैं कि यह तो असंभव है क्योंकि विज्ञान के लिये अंग्रेजी का विकल्प नहीं, और अंग्रेजी के रहते भारतीय संस्कृति की रक्षा असंभव है। यह सोच, कि विज्ञान के लिये अंग्रेजी का विकल्प नहीं, गुलामी की सोच है, अंग्रेजी भाषा की गुलामी। शब्दावली आयोग ने हिंदी में विज्ञान विषयों के आठ लाख शब्द गढ़ लिये हैं, यदि हिंदी भाषा में यह शक्ति नहीं होती तब इतनी संख्या में वैज्ञानिक शब्द कैसे गढ़े जाते। जब तक हम अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ेंगे हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हमेशा पश्चिम के पिछलग्गू बने रहेंगे। विज्ञान में आगे बढ़ने के लिये आविष्कार करना नितांत आवश्यक है। आविष्कार की भाषा किताबों से सीखी भाषा नहीं होती, वह जीवन की भाषा अर्थात् संवेदन अर्थात् हृदय की भाषा होती है। तब इसमें क्या आश्चर्य कि हमें दो सौ वर्षों से पिलाई जा रही गुलामी की भाषा में विज्ञान में एक ही नोबेल पुरस्कार मिला है, और इजराएल जैसे छोटे देश को 1948 के बाद हिब्रू में जीते हुए 11 नोबेल पुरस्कार मिल चुके हैं, जब कि हिब्रू 1948 के पहले किसी भी देश की भाषा नहीं थी, और न ही वह इजराएल में आए सभी इजराएलियों की ही भाषा थी! उनमें अनेकानेक यूरोपीय देशों की भाषा बोलने वाले लोग थे। बस देश और अपने धर्म तथा भाषा से अटूट प्रेम था। समस्या का हल इसी में है कि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी में पश्चिम की बराबरी पर आएँ तथा अपनी संस्कृति में जीवन जियें जिसके लिये सारा भारत विज्ञान की शिक्षा सहित अपनी भाषाओं में जिये, बंगाल में बंग्ला. तो तमिलनाडु में तमिल इत्यादि; बस देश के आपसी कामकाज की भाषा हिंदी हो। कुछ लोग अंग्रेजी अवश्य सीखें, जिन्हें विदेश पढ़ने जाना हो वे भी समय आने पर सीखें। सभी लोग अपनी राष्ट्रीय भाषाओं को जो कि ज्ञान प्राप्त करने योग्य व्यक्तित्व के विकास का सही माध्यम है, छोड़कर गुलामों का निर्माण करने वाली अंग्रेजी सीखें, यही तो गुलामी की पक्की निशानी है।

पक्की गुलामी की यही तो विशेषता है कि उसे स्वतंत्रता की प्राप्ति व्यावहारिक नहीं लगती, वरन गुलामी ही व्यावहारिक लगती है, शायद हम लोग गुलामी की चरम अवस्था में पहुँच गए हैं जहाँ गुलामी गुलामी नहीं लगती वरन स्वतंत्रता का आभास देती है। किंतु भारतीय संस्कृति में अपार शक्ति है, इस बची खुची हालत में भी वह हमारी रक्षा कर सकती है। बस जरा हम अपनी हीन भावना को त्यागें, अपनी संस्कृति और भाषाओं पर विश्वास करें, आपसी ईर्ष्या छोड़कर भाईचारे की भावना के लिये त्याग करें, आलस्य छोड़ें और हिंदी वाले भी अन्य भारतीय भाषाएँ सीखें। इस गलतफहमी को छोड़ें कि अंग्रेजी ने इस देश को एक भाषा दी है और एकता दी है। इस देश की जो एकता है वह बहुत गहरे सांस्कृतिक मूल्यों से आती है। हमारे जीवन मूल्य एकसे हैं उन्हें प्राप्त करने के साधन एकसे हैं तब भाषा की विभिन्नता रहते हुए भी एकता हो सकती है। भोगवाद हमारा जीवन मूल्य नहीं है, भोगवाद ही फूट डालता है चाहे भाषा एक हो यहाँ तक कि भाई-भाई हों। अंग्रेजी रहेगी तब भोगवाद भी रहेगा क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति का जीवन मूल्य वही है, और हम लोगों में विघटन बढ़ता जाएगा। इसमें संदेह नहीं होना चाहिये कि यदि अन्य भारतीय भाषाई हिंदी के विरोध में अंग्रेजी में अपना कार्य करते रहे तब उनकी भाषा भी क्षीण होती जाएगी और भारतीय संस्कृति का विलोप और शीघ्र होगा। इस देश की राष्ट्रभाषा हिंग्लिश होगी, संस्कृति 'डिस्को संस्कृति' होगी। कुछ करोड़पतियों तथा करोड़ों गरीबों से लबालब भरा भोगवाद की घुड़दौड़ में लगा यह देश पश्चिमी मैट्रोपॉलिस का ग्लोबल विलेज होगा। सारी मानवता का त्राण भारतीय संस्कृति में है और विडंबना कितनी बड़ी कि हम अंग्रेजी की पूँछ पकड़कर वैतरणी को पार कर स्वर्ग पहुँचना चाहते हैं। कितने विदेशी मनीषियों ने कहा है कि भोगवाद से त्रस्त यह विश्व भारत की ओर बड़ी आशा से देख रहा है कि वह मानवता की रक्षा करें। इसके लिये अनिवार्य है कि हम विज्ञान की शिक्षा भारतीय भाषाओं में ही प्राप्त करें, अपना जीवन भारतीय भाषाओं में जियें, अपनी संस्कृति का अनुसरण करें और इस पृथ्वी को सुख, शांति तथा समृद्धि की ओर बढ़ाएँ।

श्री विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से.नि.)

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