चंद्रधर शर्मा गुलेरी की रचनाएं

Dr. Mulla Adam Ali
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हिंदी, संस्कृत, पाली और प्राकृत भाषा में विशेष योगदान देने वाले हिन्दी लेखक चंद्रधर शर्मा गुलेरी की रचनाएं, Chandradhar Sharma Guleri and his literary works, Hindi Author Chandradhar Sharma Guleri Biography in Hindi.

Chandradhar Sharma Guleri Ki Rachanayen

Chandradhar Sharma Guleri Ki Rachanayen

Chandradhar Sharma Guleri Biography

पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की रचनाएं

 चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी, जितने बाहर से सीधे - सादे व्यक्ति थे, उससे भी अधिक कहीं उनका अन्तस् सरल था। वेश-भूषा साधारण-जयपुरी पगडी, लम्बा अंगरखा, दुपट्टा और धोती, साथ ही चश्मा। उनके स्वस्थ शरीर से भारतीयता के दर्शन होते थे। गुलेरीजी पुरातत्व, भाषातत्व, वैदिक साहित्य, संस्कृत तथा प्राकृत के प्रखांड पंडित थे। वे काव्य-मर्माज्ञ थे। उनका अध्ययन भारत की प्राचीन संस्कृति को लेकर बड़ा गम्भीर था, जिसकी छाप हमें उनके निबंधों में सर्वत्र मिलती है। आप विनोद-प्रिय व्यक्ति भी थे। हास्य एवं व्यंग्य उनका बड़ा मर्यादित रहा है। व्याकरण जैसे कठिन विषय को भी आपने अपनी विनोद-प्रियता का पुट देकर मीठा बना दिया है।

पण्डित जी की भाषा प्रांजल और सारगर्भित होती थी। संस्कृत के शब्द अवश्य हैं, किन्तु सहज- बोध्य । सुभाषितों का चयन बड़ा ही सुन्दर मिलता है। वातावरण के अनुकूल कहीं-कहीं देशी शब्दों का व्यवहार भी पाया जाता है। गुलेरी जी को अपनी साहित्य - सेवा करने का सुदीर्घ समय नहीं मिला, लेकिन उन्होंने जो कृतियाँ हमें दी हैं, उनका महत्व भी कम नहीं है।

गुलेरी जी ने अपना साहित्यिक जीवन कविता से आरम्भ किया था और समय-समय पर अच्छी कविताएँ लिखते रहे। इसलिए वे पहले कवि हैं, बाद में निबन्धकार, कथाकार या अनिसंधित्सु कुछ भी। उन्होंने ब्रज, खड़ी बोली, राजस्थानी तथा संस्कृत में कविताएँ लिखी हैं। अंग्रेजी तथा संस्कृत काव्य का ब्रज और खड़ी बोली में अनुवाद भी किया है। उनकी प्रथम ब्रज कविता - "स्वागतशी : कुसुमांजिल" (रचनाकाल : 1 जनवरी, 1920 ई) है। शेष हैं "एशिया की विजयादशमी", "भारत की जय", "बेनाक बर्न", "प्राहितागिन्का", "झुकी कमान", "स्वागत", "रवि", "भारत का बारहमासा", "सोडहम्", तथा "प्राकृत के कुछ सुभाषित"। ये कविताएँ "समालोचक", "सरस्वती" तथा "मर्यादा" में छपी थीं। राष्ट्रीय-संग्राम की पीठिका को लेकर लिखी इनमें से अधिकांश कविताओं में राष्ट्रीय जागरण तथा उद्बोधन का आदर्श स्वर मुखर है। स्वदेश तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम, ब्रिटिश साम्राज्य की निन्दा, आक्रोश, ग्लानि तथा व्यंग के साथ-साथ भारत के गौरवमय अतीत का मार्मिक वर्णन है।

गुलेरी जी की "प्रजा परिषद स्थापना" के अरिक्ति "शिवार्चनम्”, "ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति", "राजराजेश्वर का स्वागत", "राजराजेश्वर को आशीर्वाद", "महिमा आशी : प्राय" तथा "आशिष" : संस्कृत कविताएँ हैं। उनके काव्य में भारतेन्दु तथा द्विवेदी युग के सन्दि-काल की प्रवृत्तियों का सहज ही संधान किया जा सकता है।

इस कालजयी कथाकार ने मात्र तीन कहानियाँ "सुखमय जीवन" (1911) "बुद्ध का कांटा" (1913) तथा "उसने कहा था" (1915) लिखकर हिन्दी के प्रथम श्रेणी के कथाकार होने का गौरव पाया है। इनमें भी "उसने कहा था" ने उन्हें कालजयी कथाकार बना दिया। शिल्प तथा विषय वस्तु की दृष्टि से इसे "मील का पत्थर" कहा गया है। इनके अतिरिक्त गुलेरी जी की एक कहानी "पनघट" भी बताई जाती है। तथ्य यह है कि यह तथाकथित चौथी कहानि "बुद्ध का कांटा" का खण्ड-3 ही है। गुलेरी जी की कहानियाँ सामाजिक हैं। इनमें उनका निजी जीवन तथा व्यक्तित्व व्याप्त है। इनकी केन्द्रीय संवेदना प्रेम तथा कर्तव्यभावना है। "सुखमय जीवन" की विवरणात्मकता में नारी के रूप के प्रति लिप्सा, आकर्षण तथा मांसल रोमांस है। इनमें लेखक का छात्र-जीवन अनुस्यूत है। इसमें वर्णित प्रेम उतना अंतर्मुखी नहीं है जितना "उसने कहा था" में। "बुद्ध का कांटा" का सारा वातावरण उनकी आत्माभिव्यक्ति, आत्मचरित तथा पैतृक गाँव-गुलेरी की लोक - संस्कृति का जीवंत दस्तावेज है। इस कहानी की आंचलिकता उल्लेखनीय है। सारा वातावरण भाषा को भी आंचलिक परिवेश में ढ़ालता है। इसमें नायक का अव्यक्त प्रेम नारीत्व के परिप्रेक्ष्य में नायक की हीन भावना को उजागर करता है। नायिका इतनी नाचाल है कि सेक्स को लेकर भी साहसभरी पहल करने से नहीं चूकती। "उसने कहा था" कहानी प्रेम और कर्तव्य की अद्वितीय संवेदना की धनी है। किशोरावस्था का सहज आकर्षण पवित्र प्रेम में परिणत होकर भावों के संसार में डूबता- उतरता विशुद्ध कर्तव्यभावना का रूप धारण करके जिस चरमस्थिति पर जा टिकता है उसकी परिणति मात्र आत्मत्याग, उत्सर्ग, देशप्रेम, निःस्वार्थता, निष्कपटता में बड़े स्वाभाविक ढंग से दिखाई गई है। यही कारण है कि लहनासिंह का उज्जवल चरित्र पाठक के अंतरतम को छू जाता है। कहानी महज घटनाओं, संयोगों तथा इतवृित्तात्मक प्रसंगों की गठजोड़ नहीं, बल्कि सूक्ष्म रूप से प्रवाहिता प्रेम और कर्तव्य भावना की अन्तःसलिला के सुष्टु संगुम्फन का बेजोड़ उदाहरण है। इस कहानी में यथार्थवाद है, मर्यादा है, भावुकता है, प्रेम का स्वर्गीय रूप है।

गुलेरी जी की कहानियों की वर्णनात्मकता, भाषा काव्य, संवाद, नाटकीयता तथा प्रतिपादन शैली में अनूठा हास्य-व्यंग रह-रहकर गुद गुदाता है, विनोद की फुलझड़ियाँ छोड़ता है। हास्य साध्य नहीं, साधन बन जाता है। "बुद्ध का कांटा" का वाक्र-चातुर्य तथा वाक्रचापल्य भाषा की शक्ति को बड़ा प्रभावोत्पादक बनाता है। गुलेरी जी की सारी रचनाओं में कांगड़ी- पहाड़ी की शब्द-वानगी शब्द-सम्पदा को बढ़ाने वाली है। भाषा की इस आंचलिक विशिष्टता को मात्र "पंजाबी-परिवेश" कहकर नहीं टाला जाना चाहिए।

गुलेरी जी की गणना द्विवेदी युग के सशक्त निबंधकारों में की जाती है। उनकी निबंध की कोटि में आनेवाली शताधिक रचनाएँ "समालोचक", "सरस्वती", "मर्यादा", "इन्द्र", "प्रतिभा" तथा "नागरी प्रचारिणी पत्रिका" में छपी हैं। इनके विषयः पौराणिक वैदिक, इतिहास संस्कृति, विज्ञान, भाषा, पुरातत्व, कला, दर्शन, भाषा-विज्ञान तथा भाषाशास्त्र हैं। उनका पहला निबंध "सुदर्शन की सुदृष्टि" सबसे पहले "समालोचक" (अक्टूबर- नवम्बर 1903) में छपा था। कविताओं की तरह इनके निबंध भी सारगर्भित प्रसंगोद्भावना तथा खोजपूर्ण नई मान्यताओं की स्थापना करने वाले हैं। इतने विशद् कृतित्व में शुद्ध निबंध कही जाने वाली कृतियाँ मात्र दर्जन भर हैं, शेष शोध लेख तथा टिप्पणियाँ हैं।

"वेद में पृथ्वी की गति", "जयसिंह प्रकाश", "पृथ्वीराज विजय महाकाव्य", "संस्कृत की टिपरारी", "पुरानी हिन्दी", हिन्दी", "आँख", "सिंहल द्वीप में महाकवि कालिदास का समाधि स्थल", "पंचमहाशब्द", "अवंति सुन्दरी" तथा न "पाणिनी की कविता" उनके शोधपूर्ण आलोचनात्मक निबंध हैं। "मार्यादा" (सन् 1911- 12) में गुलेरी जी के "पुराने राजाओं की गाथाएँ, पृछुवैन्य का अभिषेक", "मनुवैवस्त", "राजसूय", वं "वाजपेय", "शुनःशेष की कहानी", "सुकन्या की वैदिक कहानी" तथा "सौत्रामणी का अभिषेक" शीर्षक ऐतिहासिक, वैदिक शोध लेख छपे। गुलेरी जी के निबंधों को समझने के लिए परिपक्व बुद्धि होनी चाहिए। उनके निबंधों में जो अनेक संकेत गर्भित रहते हैं उन्हें वही समझ सकता है जिसने संकेतित ग्रंथ स्थल देखे हों।

गुलेरी जी की गद्यशैली में सहजता, भावभंगिमा का चटपटापन, संस्कृत की छाया, मुहावरेदारी, व्यंग्य-विनोद के साथ-साथ अरबी, फारसी, अंग्रेजी तथा हिमाचली पहाड़ी का सटीक प्रयोग है। इतिवृत्त की स्थिति में वैदिक तथा पौराणिक पद सहज ही उद्धरण बनकर उनकी विशिष्ट शैली बन जाते हैं। अर्थगर्भितता, गम्भीरता तथा पांडित्यपूर्ण हास्य इनके निबंधों की विशेषता है। भाषा में वेग, स्फूर्ति, चलतापन, नाटकीयता, संवादात्मकता तथा विचारतत्व की गरिमा है। उनके विचार मौलिक तथा स्वाधीनचिंतक एवं दार्शनिक होने के सूचक हैं।

"गद्य की कसौटी निबंध है।" यह बात गुलेरी जी के निबंधों की अपेक्षा उनकी पचासों टिप्पणियों पर भी खरी उतरती है। इस क्षेत्र में भी उन्होंने "गागर में सागर भरने" तथा नये-नये खोजपूर्ण तथ्य जुटाए हैं। इन टिप्पणियों के शीर्षक कुतूहल जगाने वाले तथा रोचक हैं। इन टिप्पणियों में अन्यान्य पत्र- पत्रिकाओं में छपे लेखों पर प्रतिक्रियाएँ भी हैं। विशेषकर "मनोरमा" प्रतिभा तथा "सरस्वती" की सामग्री पर उन्होने अधिक तीखी टिप्पणियाँ की है। इन निबंधों और टिप्पणियों के अतिरिक्त गुलेरी जी के सन् 1913 ई. में "आन शिव भागवत इन पातंजलि" "ए पोयम बाई चास" "काकातिका मानक्रस", "दि रियल ग्रायर आफ जय-मंगल" तथा "ए कमेन्टरी आन वात्स्यायन कामसूत्रा", "दी इंटिक्वरी" में और "ए साइन्ड मौलायम" " रूप म" में छपे थे। गुलेरी जी को हिन्दी में इयन्टख्यू" विधा का सूत्रपात करने का श्रेय भी जाता है। गुलेरी जी "समालोचक" के अतिरिक्त "नागरी प्रचारिणी पत्रिका" के सम्पादक मण्डल में रहे। एक सुधी सम्पादक के नाते वे समय पर लेखकों से लेख लिखवाने के लिए उनके पीछे पड़े रहते थे। उन्होंने "समालोचक" में सर्वश्री श्यामसुन्दरदास, मिश्रबंधु, रामचन्द्र शुक्ल, गौरी शंकर, हीराचंद ओझा, रामकृष्णदास बालकृष्ण भट्ट राधाचरण गोस्वामी तथा महेन्द्र जाज प्रभृत्ति विद्वानों के लेख छापे थे। गुलेरी जी जब 1920 में "नगरी प्रचारिणी पत्रिका" के सम्पादक मण्डल में आए तो उन्होंने अपनी "पुरानी हिन्दी" पुस्तक लेखों के रूप में छापी और "पत्रिका" के लिए शोभा जी तथा श्यामसुन्दरदास के साथ "अशोक की धर्मलिपियाँ" का सम्पादन जो धारा प्रवाह छपता रहा। गुलेरी द्वारा पत्रिका का अन्तम सम्पादित अंक 22 अक्टूबर 1922 वाला था।

गुलेरी जी ने चन्द्रधर, चन्द्रधर शर्मा तथा चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के अतिरिक्त कुछ धद्मनामों से भी लिखा है। उनके नाम के साथ "गुलेरी" पहली बार उनके निबंध "आँख" की आठवीं किश्त अगस्त 1905 की सरस्वती" के साथ जुडा था। गुलेरी जी सधे हुए पत्र लेखक भी थे। उनके पात्रों में सहजता, स्पष्टवादिता तथा विविधता है। उनके पत्र यत्र-तत्र विद्वानों के संग्रहों उनके वंशजों आदि के पास हैं। ये पत्र नितांत व्यक्तिगत होते हुए पारिवारिक, सामाजिक तथा साहित्यिक परिवेश की भी अच्छी झाँकी प्रस्तुत करते हैं।

- डॉ. एस. ए. सूर्यनारायण वर्मा

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