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Dharti ne Kaha Tha Kabhi
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धरती की पीड़ा हिन्दी कविता
धरती ने कहा था कभी
छूना मत मुझे
जगाना मत मेरी संवेदनाओं को
सो रही हूँ मैं चिंतन की निद्रा में
किंतु
बात नहीं मानी,
अपने मन की करके ठानी
चिंतन निद्रा से जागी तो
करवट बदलनी थी
थोड़ी-सी ही हिली मैं
तो तुम
बेचैन हो गए
कभी सोचा नहीं मेरी व्यथाओं को
घाव पर घाव देते रहे तुम
नश्तर चुभो कर मनमानी करते रहे
क्या करूँ...... क्या करूँ ?
मन तो नहीं था, इच्छा भी नहीं थी
फिर भी अनमनी हो जो कुछ किया मैंने
दोष मेरा नहीं है
है तुम्हारा
इच्छाओं को रौंदते हुए निकल जाने वाले
तुम्हारे गतिमान पाँवों को
कहीं तो रोकना था
अपने ही बच्चों के दामन की खुशियाँ
छीनकर कौन सुखी होती है
मैं भी
रोई हूँ बहुत
कई-कई रातों तक
मन को समझाती रही
पड़ी दरारें और कंपन
इसी के परिणाम हैं, इसी के परिणाम हैं।
- डॉ. निर्मला एस. मौर्य