हिंदी के मूर्धन्य आलोचक : प्रो. नामवर सिंह

Dr. Mulla Adam Ali
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This Article Discuss about Indian literary critic, linguist, academician and theoretician Prof. Namvar Singh.

Eminent Hindi Critic: Prof. Namvar Singh

Eminent Hindi Critic: Prof. Namvar Singh

Hindi Ke Prasiddh Alochak Namvar Singh

हिंदी के मूर्धन्य आलोचक : प्रो. नामवर सिंह

महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रो. नामवर सिंह हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष हैं। लेखक और वक्ता के रूप में इन्हें जितनी ख्याति प्राप्त हुई है उतनी किसी अन्य को नहीं हुई है। प्रो. नामवर सिंह जी की रचना यात्रा का केंद्रीय लक्षण वाद-विवाद और संवाद है। प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. नामवर सिंह जी अपनी 80 वर्ष की आयु में भी एक श्रेष्ठ रचनाकार तथा अध्यापक के रूप में जितने लोकप्रिय और प्रासंगिक हैं वह दूसरों के लिए आश्चर्य की बात है। नामवर सिंह जी से सत्संग सुख प्राप्त करने वाला व्यक्ति धन्य हो जाता है।

बाबा नागार्जुन के अनुसार-- "प्रो. नामवर सिंह जी वाचिक परंपरा के आचार्य हैं।" पूर्व प्रधान मंत्री श्री चंद्रशेखर के वे मित्र हैं। 80 वर्ष में भी लक-दक कुर्ता, धोती, चप्पल, चश्मा धारण किये हुए वे दूसरों के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं। भूधर की तरह ध्यान मग्न वे ऊपर से जितने गुप्त गंभीर लगते हैं भीतर से उतने ही सरल एवं हृदयवान भी हैं। इनके बारे में अधिकांश लोगों की धारणा है कि "प्रो. नामवर सिंह जी जिसे चाहें आसमान में उठा दें, जिसे चाहें रसातल में पहुँचा दें।" कुछ लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि पत्रकारिता के तंत्र की बारीकियों से भलि-भाँति परिचित वे हिंदी के प्रखर और विवादास्पद आलोचक हैं। जलती मशाल से लगनेवाले वे अरूण आदित्य के अनुसार "हिंदी आलोचना के प्रक्षेपास्त्र पुरुष हैं।"

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उनके मित्रों का कहना है कि प्रो. नामवर सिंह को या तो पान और खैनी का नशा है या फिर पुस्तकों का। नहीं पढ़ें तो वे रह नहीं सकते। साहित्य व साहित्येतर ग्रंथों के अतिरिक्त वे देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाएँ भी पढ़ते हैं।

'आलोचना' त्रैमासिक पत्रिका के प्रधान संपादक के रूप में, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के आचार्य के रूप में देश भर में विख्यात प्रो. सिंह का जन्म 28 जुलाई सन् 1927 ई. में बनारस जिले के जीयनपुर नामक गाँव के एक कृषक परिवार में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में और माध्यमिक शिक्षा कमालपुर में हुई। हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा इन्होंने बनारस से उत्तीर्ण की। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक, स्नातकोत्तर तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त की। बचपन से ही ये बड़े मेधावी छात्र थे।

अब तक प्रो. सिंह जी की निम्न कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं--

(1) बकुलम खुद (निबंध संग्रह) 1951, (2) हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान (लघु शोध प्रबंध) 1952, (3) आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ (आलोचना- त्मक ग्रंथ) 1954, (4) छायावाद (आलोचनात्मक ग्रंथ) 1955, (5) पृथ्वीराज रासो की भाषा (शोध ग्रंथ) 1956, (6) इतिहास और आलोचना (आलोचनात्मक ग्रंथ) 1957, (7) कहानी : नई कहानी (आलोचनात्मक ग्रंथ) 1966, (8) कविता के नये प्रतिमान 1968, (9) दूसरी परंपरा की खोज 1982, (10) वाद-विवाद-संवाद 1989, (11) कहना न होगा (साक्षात्कारों का संग्रह) 1965, (12) आलोचक के मुख से (प्रो. सिंह के व्याख्यानों का संकलन) 2005, (13) काशी के नाम 2006 आदि।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य नामवर सिंह जी एक कवि के रूप में भी जाने जाते हैं। उनकी स्वयं की अनुभूतियाँ ही, उनकी कविताओं में अनुगुंजित हुई हैं। 'दूसरी परंपरा की खोज' में नामवर सिंह जी ने अपने गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के चिंतन और सृजन की मौलिकता को रेखांकित किया है। आलोचकों की दृष्टि में प्रो. सिंह की रचनाओं में यह सबसे अधिक सर्जनात्मक है।

नामवर सिंह जी कृत 'कहानी: नई कहानी' समीक्षा की वह पहली कृति है जिसने कहानी समीक्षा को एक स्तर प्रदान किया है। 'इतिहास और आलोचना' विचारात्मक लेखों का संग्रह है। 'छायावाद' प्रो. सिंह की आलोचकीय संवेदना का श्रेष्ठतम उदाहरण है। यह हिंदी आलोचना की महत्वपूर्ण कृति है। 'कविता के नए प्रतिमान' में उन्होंने मुक्तिबोध की कविताओं के बहाने स्वातंत्र्योत्तर मध्यवर्ग की सामाजिक सांस्कृतिक उपस्थिति, अंतर्विरोधों एवं अभिप्रायों को साहित्य विमर्श के दायरे में लाया है।

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नामवर सिंह जी के संदर्भ में श्री भगवान सिंह जी की निम्न बातें विचारणीय हैं-- "नामवर सिंह से सहमत होना कठिन है, असहमत होना खतरनाक और उनपर लिखने की कोशिश एक ऐसे तिलस्म में प्रवेश की चेष्टा है जो इतना खुला हो कि उसकी दीवारें भी दरवाजे का भ्रम पैदा कर और निकट पहुँचने पर दरवाजे दीवारों में बदल जाए।"¹

पहले काशी विश्वविद्यालय में उसके बाद सागर विश्वविद्यालय (म.प्र.) में इन्होंने अध्यापन कार्य किया। तत्पश्चात 1970 ई. में जोधपुर विश्वविद्यालय राजस्थान में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए। उसके बाद वे जवाहर लाल विश्वविद्यालय (नई दिल्ली) के आचार्य बने।

प्रो. सिंह प्रगतिवादी साहित्यकार हैं। उनका संबंध भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से रहा है। सन् 1959 ई. में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से उम्मीदवार होकर चकिया- चंदौली लोक सभा के चुनाव में उन्होंने भाग लिया। किंतु उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। इस चुनाव में भाग लेने के कारण ही उन्हें काशी विश्वविद्यालय की अध्यापकीय नौकरी से अलविदा करना पड़ा। मार्क्सवादी आलोचना के पक्षधर आप समकालीन साम्यवादी विचारधारा के बुद्धिजीवियों के अगुआ माने जाते हैं। प्रो. सिंह जी सन् 1965 ई. में 'जनयुग' के संपादक थे, कुछ वर्ष बाद राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली के साहित्यिक सलाहकार थे। सन् 1974 ई. में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिंदी विद्यापीठ आगरा के निदेशक थे। सन् 1993 - 1996 ई. तक राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष रहे।

80 वर्षीय प्रो. सिंह लगातार चर्चा में रहते हैं। देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देने के लिए सदा हँसते हुए उपस्थित होने वाले प्रो. सिंह जी एक मूर्धन्य साहित्यकार हैं। भारत के प्रमुख बुद्धिजीवी के रूप में आपको उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना सर्वोच्च सम्मान 'भारत भारती' से नवाजा है। इससे पहले ही सन् 1971 ई. में 'कविता के नये प्रतिमान' पर आपको केंद्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। इस बीच केंद्र सरकार द्वारा इन्हें महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति मनोनीत किया गया है जो हिंदी प्रेमियों के लिए गर्व का कारण है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रो. नामवर सिंह जी हिंदी के मूर्धन्य समीक्षक हैं और हिंदी के अत्यंत सुपठित आलोचक हैं। प्रगतिशील हिंदी आलोचना में उनकी विशिष्ट पहचान उनकी आलोचकीय संवेदना के कारण है।

संदर्भ;

1. नामवर सिंह - आलोचना की दूसरी परंपरा, संपादक कमला प्रसाद, सुधीर रंजन सिंह, राजेंद्र शर्मा, पृ.सं. 190.

श्री गोरख नाथ तिवारी

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