भारत में बढ़ती बेरोजगारी: समस्या और समाधान पर निबंध | Essay On Unemployment Problem And Solution

Dr. Mulla Adam Ali
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इस आलेख में बेरोजगारी की समस्या पर निबंध रूपरेखा सहित दिया गया है, बेरोजगारी पर निबंध 150 शब्दों में, बेरोजगारी पर निबंध 200 शब्दों में, बेरोजगारी पर निबंध 300 शब्दों में, स्कूल छात्रों और बच्चों के लिए निबंध लेखन हिंदी में।

Essay On Unemployment Problem And Solution In Hindi

Berojgari Ki Samasya Par Nibandh

Berojgari Ki Samasya Par Nibandh

बेकारी : समस्या और समाधान

एक प्रसिद्ध कहावत है-'बेकार मन, भूतों का डेरा।' कहावत मनोवैज्ञानिक स्तर पर यह प्रकट करती है कि काम कर पाने में समर्थ और योग्य व्यक्ति के लिए बेकारी सबसे बड़ा अभिशाप हुआ करती है। काम करने योग्य स्वस्थ व्यक्ति बेकार रहने पर अपने-आप में तो एक हीनता और समस्या बन ही जाया करता है, अपनी दिशाहीनता के कारण जीवन और समाज के लिए भी एक समस्यात्मक चुनौती प्रमाणित हुआ करता है। ज्ञान-विज्ञान या अनेक प्रकार की योजनाओं की प्रगतियों के गान उस समय अस्वाभाविक प्रतीत होने लगते हैं, जब बेकार नवयुवकों की टोलियाँ निराशा का जीवन व्यतीत करती हुई चारों ओर मँडराती नजर आती हैं। तब लगता है कि राष्ट्र ने किसी भी प्रकार की वास्तविक प्रगति की ही नहीं। इसी कारण जागरूक लोगों की मान्यता है कि बेकारी किसी देश की आर्थिक दुर्गतियों, हीनताओं और दीवालियेपन की प्रतीक हुआ करती है। वह राष्ट्र के लिए कलंक तो है ही सही, सामाजिक हीनताओं की भी परिचायक है, और है अनेक प्रकार की अराजकताओं को जन्म देने वाली, जिसके कारण उच्च सभ्यता-संस्कृति वाले राष्ट्र का मस्तक भी लज्जा और हीनता से नत हो सकता है। आज विश्व के अनेक देश इस रोग से पीड़ित होकर हीनताओं, अव्यवस्थाओं और दुराचारों का शिकार बन रहे हैं।

स्वतन्त्र भारत में बेकारी की समस्या शैतान की आँत की तरह निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। विचारकों ने इसके अनेक कारण माने हैं। सबसे प्रमुख कारण है आबादी का बेतहाशा बढ़ते जाना और उसकी तुलना में रोजगार या काम-धन्धों की उपलब्धि का कम होना। आज भारत की जनसंख्या 80 और 90 करोड़ के बीच आँकी जाती है। इस अनुपात में रोजगार के साधन न बढ़े हैं, न बढ़ने की सम्भावना ही है। अतः पढ़े-लिखे बेकारों की संख्या बढ़ना स्वाभाविक ही है। दूसरा प्रमुख कारण है परम्परागत या घरेलू काम-धन्धों को छोड़कर नवयुवकों में बाबूगिरी की भावना। इस भावना के दो दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं, एक तो यह कि इस कारण परम्परागत और घरेलू-धन्धे समाप्त होते जा रहे हैं। परिश्रम से मुँह मोड़ने के कारण नौकरी पाने के इच्छुक बेकार लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। नौकरी को प्रश्रय देने का मूल कारण अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही गलत शिक्षा नीति और नियोजन भी है। शिक्षा व्यक्ति के मन में स्वावलम्बन या अपने धन्धे चलाने की प्रेरणा न देकर मात्र नौकर या बाबू बनकर सुविधा-भोग की प्रेरणा देती है। गलत औद्योगिक नीतियों और योजनाओं को भी बेकारी बढ़ाने वाला एक प्रमुख कारण माना जाता है। यहाँ बड़े-बड़े उद्योग-धन्धे तो खोले गए, छोटे या कुटीर उद्योगों की तरफ ध्यान नहीं दिया गया। फिर मशीनीकरण भी अन्धाधुन्ध हुआ, अतः छोटे धन्धों से जुड़े लोग, सामान्य शिक्षा-प्राप्त अनेक नवयुवक, घरेलू कारीगर आदि अपने-आप बेकारों की पंक्ति में आ खड़े हुए। इन प्रमुख कारणों के अतिरिक्त श्रम से पलायन की मनोवृत्ति, शहरों में ही विकास कार्यों तथा औद्योगीकरण आदि पर ही अधिक ध्यान देना आदि को भी ग्रामीण बेकारी का कारण माना जाता है। आज गाँव का किसान भी अपनी खेती या अन्य धन्धे न करके नौकरी ही करना चाहता है। परिणामस्वरूप यह समस्या विकट-से-विकटतम होती जा रही है। कामदिलाऊ दफ्तरों के बाहर लगी बेकारों की लम्बी पंक्तियाँ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

बेकारी की इस समस्या ने आज अनेक सामाजिक समस्याओं को भी जन्म दिया है। बेकार नवयुवक स्वभावतः चिड़चिड़ा होकर उद्दण्ड हो जाता है। इच्छाओं और जरूरी आवश्यकताओं पर तो उसका बस नहीं होता। उन्हें पूरी करने और पाने के लिए वह जल्दी ही अनैतिक मार्ग पर भटक जाता है। इस भटकाव से जन्म होता है अनेक प्रकार की अराजकता का, जिससे आज हमारे देश को कदम-कदम पर दो-चार होना पड़ रहा है। गम्भीरता से विचार करने पर हम पाते हैं कि आज जो अनेक अनचाहे बन्द और आन्दोलन चलाए जा रहे हैं, उनका मूल कारण भी यही समस्या है। हत्या, लूटपाट आदि का बहुत कुछ कारण बेकारी ही है।

अब प्रश्न यह उठता है कि इस भीषण समस्या का आखिर समाधान क्या हो सकता है? इसके लिए सबसे पहले अबाध गति से बढ़ रही जनसंख्या पर नियन्त्रण पाना बहुत आवश्यक है। दूसरे, विकेन्द्रीकृत ऐसे छोटे-छोटे उद्योग धन्थों का विकास करना होगा कि जहाँ अधिक से अधिक लोगों को काम पर लगाया जा सके। तीसरे, परम्परागत धन्धों को उचित संरक्षण और सम्मान देकर उनके प्रति लोगों के मन में विश्वास जाग्रत करना भी बहुत आवश्यक है। चौथे शहरों के समान ग्रामों में विकास और वहाँ छोटे-मोटे कुटीर उद्योग-धन्धों को लगाकर भी ग्रामीण बेकारों को काम में लगाया जा सकता है। साथ ही उनकी शहरों की ओर भागने की प्रवृत्ति को भी रोका जा सकता है। इसी के साथ-साथ बाबूगिरी के महत्त्व को घटाकर शारीरिक श्रम को महत्ता को भी स्थापित करना होगा। यह कार्य शिक्षा के साथ-साथ होना चाहिए। एक यह सुझाव भी है कि उन्हीं नारियों को नौकरी दी जाए, जिनके यहाँ कोई युवक या पुरुष कमाने वाला न हो। या फिर विशेष परिस्थिति में नारी के लिए नौकरी अपरिहार्य बन जाए। उनके स्थान पर युवकों और पुरुषों को ही नौकरी दी जाए, जिससे उनके साथ पूरे परिवार का भी भरण-पोषण सम्भव हो सके। शिक्षा को व्यावहारिक और व्यवसायोन्मुख बनाकर भी इस समस्या का बहुत कुछ समाधान किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज भ्रष्टता और अराजकता की सीमा को छू रही व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाए। लोगों के मन में यह विश्वास उत्पन्न किया जाए कि परिश्रम से महत्त्व बढ़ता है, कम नहीं होता। बाकी बेकारों को बेकारी-भत्ता देने जैसी बातें राजनीतिक स्टण्ट तो हैं ही, भारत जैसे घाटे की विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देश में हास्यप्रद भी लगती हैं। ऐसा करना देश की शक्ति और निष्ठा पर कुठाराघात करने के समान ही है।

जो हो, आज आवश्यकता है अत्यधिक दूरदर्शिता की। आवश्यकता है लाल-फीताशाही से देश को बचाकर रोजगार के इच्छुक नवयुवकों के सही दिशा-निर्देश की। सही नियोजन और विकास की। तभी ऊपर बताए उपायों को काम में लाकर बेकारी की इस विकट समस्या का समाधान सम्भव हो सकता है। अन्य कोई उपाय आज की स्थितियों में सम्भव नहीं लगता।

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