Hazari Prasad Dwivedi Ke Upanyas Mein Dharmik Parivesh, Hindi Upanyas Sahitya, Religious environment in the novels of Hazari Prasad Dwivedi
Religious environment in the novels of Hazari Prasad Dwivedi
Hazari Prasad Dwivedi Ke Upanyas Mein Dharmik Parivesh
हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में धार्मिक परिवेश
मानव जीवन का कर्मविधान अधिकांशतः धार्मिक न होते हुए भी धार्मिकता से परिचालित होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मानव जीवन के अध्ययन में धार्मिक परिवेश का एक महत्वपूर्ण स्थान है। हजारी प्रसाद के उपन्यासों में भी धार्मिक परिवेश को उन्होंने जीवन की सच्चाई को जताने के लिए उपयोग किया है। उनके उपन्यास अतीत के विभिन्न कालखंडों पर आधारित होते हुए भी यदि आकर्षक, प्रभावी सिद्ध हुए हैं तो उस का अधिकांश श्रेय उन में प्राप्त विभिन्न परिवेशों के चित्रण को ही दिया जाता है।
अगर धर्म के सही अर्थ को पहचानने का प्रयास किया जाए तो यही कहा जा सकता है कि व्यक्ति को सही दिशा में ले जाने का श्रेय धर्म को ही दिया जा सकता है। आचार-विचार का समन्वय धर्म के अंतर्गत आता है। 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में उपन्यासकार ने हर्षकालीन परिवेश को प्रस्तुत करने के लिए ऐसे स्थलों एवं प्रसंगों की रचना की है जो सहज ही तत्कालीन समाज में प्रचलित विभिन्न संप्रदायों, धार्मिक वृत्तियों को उद्घाटित कर जाते हैं। इस उपन्यास में वैष्णव धर्म, शैवमत, बौद्ध धर्म के तीन रूप उभर कर आते हैं। इस उपन्यास में हर्ष युगीन बौद्ध साधना एवं वैष्णव साधना आदि के विविध साधना मार्गों के स्वरूप का परिचय देते हुए धार्मिक मिथ्याचार का विरोध किया गया है। अलौकिक सिद्धियों के लोभ में अंध विश्वासी पूर्ण जड़ तांत्रिक क्रियाओं में लिप्त रहने वाले द्रविड साधु को दिखा कर, उस प्रकार की धार्मिक आचार-विचारों का खंडन किया गया है। यह बात सच है कि उन दिनों में धार्मिक मिथ्याचार, बाह्याडंबरता की बहुलता थी। धर्म के नाम पर तमाम लोग अपनी-अपनी रोटियाँ सेकने में लगे थे जैसे मंदिर के पुजारी बाबा है। पुजारी बाबा धर्म के नाम पर लोभ, पाखंड एवं व्यभिचार में लीन रहा करता था। इस का खुलकर विरोध उपन्याकार ने किया है। धार्मिक संकीर्णता, उस के मिथ्याचारों के प्रति उन्होंने खुलकर व्याख्या की है। उपन्यासकार धर्म के व्यापक रूप को देखना चाहते है। इसका उदाहरण सामनेर एवं बाणभट्ट के संवाद में यों मिलता है- "कान्यकुब्ज विचित्र देश है भद्र यहाँ ऊपरी आचार को बहुत महत्व दिया जाता है और भीतर के तत्व को समझने का कम प्रयास किया जाता है। क्या ब्राह्मण ओर क्या श्रमण सभी बाह्य आचारों को ही बहुमान देते है। स्वयं महाराजाधीश श्री हर्ष देव भी इस बात से अछूते नहीं कहे जा सकते।" इसी प्रकार 'चारु चंद्रलख' उपन्यास में भी उपन्यासकार दिखाते है कि समाज जैसे मत-मतांतरों और विकृत साधनाओं के जाल में उलझ गया था। धर्म, लोगों को प्रगति के मार्ग को न दिखा कर विकृतियों की ओर ले जा रहा था। इसी बात को संकेत देते हुए तापस महाराज, सातवाहन से यों कहते हैं- "सब को अपने किए का फल भोगना पडता है- व्यक्ति को भी, जाति को भी और देश को भी .... भारतवर्ष की धर्म-व्यवस्था में बहुत विद्वप हो गए है।" और फिर वे ही मार्ग दिखाते हुए कहते हैं- 'अपने ही रक्त, माँस और चर्म से जितना दब सको दबो, अपनी आँतडियों के तागे से जितना सी सको, सीओ, जाओ वज्र की तरह दृढ बनकर इतिहास विधाता के क्रूर प्रहारों को सहो।'
धर्म के व्यापक अर्थ को उपन्यासकार दिखाना चाहते है। वह किसी संप्रदाय विक्षेप की सीमा में बँधा नहीं है। वैसे झूठ बोलना त्याज्य है लेकिन कभी झूठ बोलने से निरीह प्राणी की रक्षा हो सके तो झूठ बोलना त्याज्य नहीं है। यहीं बातें 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में वाभ्रव्य पात्र यों कहता है- "जितने बँध - बधाए नियम है और आचार हैं उन में धर्म अॅटता नहीं। वह नियमों से बडा है, आचारों से बडा है। मैं जिन को धर्म समझता रहा, वे सब समय और सभी अवस्था में धर्म ही नहीं थे, जिन्हें अधर्म समझता रहा वे सभी समय और सभी अवस्थाओं में अधर्म ही नहीं कहे जा सकते।" वे दिखाना चाहते है कि धर्म में लोक कल्याण की भावना निहित है। सत्य उस का प्रमुख अंग है। द्वंद्व, अपूर्ण विश्वास, झूठ को जन्म देता है। इसी कारण इस उपन्यास में अघोर भैरव, बाण से कहते हैं- "डरना नहीं चाहिए, जिस पर विश्वास करना चाहिए उस पर पूरा विश्वास करना चाहिए, चाहे परिणाम जो भी हो।" इस प्रकार उपन्यासकार धर्म के आधार पर व्यक्ति के भीतर के विश्वास को उजागर करना चाहते है। वे कहते है "सत्य और विश्वास पर आधारित धर्म व्यक्ति के जीवन की निर्भिकता के मार्ग को दिखाता है। इसी तथ्य को अघोर भैरव, बाण को यों समझाते हैं- किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।" यह मंत्र व्यक्ति के जीवन की गति विधियों में लोक-कल्याण की भावना को उत्प्रेरित करता है। इसी धर्म के सामाजिक पक्ष को दिखाते हुए चारु चंद्रलेखा उपन्यास में रानी चंद्रलेखा, जनता को यों संबोधित करती हैं 'वीरों अपनी मातृभूमि की रक्षा किसी जातिविशेष का पेशा नहीं हैं, वह सब का जन्मसिद्ध अधिकार और विधि विहित धर्म है.... प्रजा समझती है लडाई करना राजा और राजपुत्रों का धर्म है। शेष प्रजा निश्चेष्ट चुपचाप हो कर बैठी रहती है। लडाई जिनका धर्म माना जाता है वे सब हार जाते हैं, तो प्रजा भी हार मान लेती है। सारा समाज धर्म की झूठी कल्पना के कारण जर्जर हो गया है। आत्म-गौरव की भावना से हीन हो गया है। वीरों, प्रतापी सातवाहन और उस की रानी चंद्रलेखा तुम्हारा नेत्रत्व इसलिए नहीं कर रही है कि वे युद्ध धर्म माननेवाले कुछ विशिष्ट राजपुत्रों के प्रतिनिधि हैं। वे सारी प्रजा के प्रतीक हैं। उक्त कथन से उपन्यासकार कहता चाहते है कि तत्कालीन समाज में धर्म के नाम पर जिन बातों का प्रभुत्व था, उन में सच्ची धर्म चेतना का अभाव था। केवल धर्म का दिखावा था।'
धर्म प्राण जनता में अंधविश्वासों की प्रबलता थी। ज्योतिष मंत्र-तंत्र ओर अंधविश्वासों से परिपूर्ण बातों को जीवन में उतार लेना जनता की आदत बन चुकी थी। 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में पहले बाण अपनी वाक्-चतुरता के कारण पुराण-पाठ करते हुए जनता के मन को उद्वेलित किया करता था। हृदय में भक्ति की भावना तो थी नहीं लेकिन अलौकिक एवं आश्चर्यपूर्ण कथनों से लोगों को प्रभावित किया करता था। तभी एक वृद्ध अत्यंत विश्वास जताते हुए 'तुम ब्राह्मण हो आर्य, पृथ्वी के देवता हो आर्य, तुम्हारे आशीर्वाद से मेरा कल्याण होगा। मेरा एक मात्र पुत्र घर-द्वार छोडकर न जाने कहाँ चला गया है कोई विधि बताओं कि मैं अपनी खोई हुई निधि पा सकूँ।' यहाँ बाणभट्ट सोचने लगता है, 'चलो मेरी कोई माता नहीं है, जो बिलख-बिलख कर धार्मिकता का ढोंग रचने वालों से अनुष्ठानों की विधि पूछती फिरेगी।' तत्कालीन समाज के ढोंगी साधुओं पर खुलकर व्यंग्य यहाँ दिखता है।
मानवतावादी दृष्टिकोण पर लेखक ने बहुत जोर दिया है। वे सोचते हैं जहाँ शोषितों एवं पीडितों का उद्धार करना धर्म नहीं माना जाता, वह सच्चा धर्म नहीं है। चारुचंद्रलेखा उपन्यास में मिसिलपाद यों सोचते हैं, 'सिद्धियाँ मनुश्य को कुछ विशेष बल नहीं देती। एक साधारण किसान, जिस में दया-माया है, सच झूठ का विद्वेष है और बाहर भीतर एकाकार है, वह भी बडे से बडे सिद्ध से ऊँचा है। चरित-बल समस्त शक्तियों का अक्षय भंडार है। इस प्रकार उपन्यासकार, ने मानवीय उदात्तता के सामने सिद्धियों की निरर्थकता को व्याख्यायित करने का प्रयास किया है।'
नकारने का उपदेश देते है। बाणभट्ट की आत्मकथा में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का कथन है 'इस ब्रह्मांड का प्रत्येक अणु देवता है। देवता ने जिस रूप में तुझे सब से अधिक मोहित किया है, उसी की पूजा कर ।' इसी कारण वे बलिप्रथा का खंडन करते हुए 'चारुचंद्रलेखा' में कहते हैं- देवी किसी बाहरी देवता का नाम नहीं है। वह हमारी अंतरतम की सत्ता का ही नाम है। देवी उतनी ही दूर तक प्रसन्न होती है जितनी दूर तक उन के निखिल बंह्मांड में व्याप्त रूप के साथ हमारे अंतरतम में विद्यमान सत्ता का सामंजस्य होता है।'
महानाश की ओर बढ़ रहे भारत के संदर्भ में 'चारुचंद्रलेखा' उपन्यासकार कहते हैं - 'इस देश को वह बचाएगा जिस के पास सहज जीवन का कवच होगा, सत्य की तलवार होगी, धैर्य का रथ होगा, साहस की ढाल होगी, मैत्री का पाश होगा, धर्म का नेतृत्व होगा।'
सामाजिक मंगल की ओर प्रवृत्त करने वाले गुणों का ही नाम धर्म है। इसी कथन को उपन्यासकार चारु चंद्रलेखा उपन्यास में यों कहते है- "सामाजिक मंगल के लिए जो सहज प्रवृत्ति है उसी का नाम धर्म है। इस के विरुद्ध जाने वाला अधर्मी है।... अधर्म से जूझना मनुष्य का सहज धर्म है।"
इस प्रकार उपन्यासकार ने अपने उपन्यासों में तेरहवीं शती के समाज को रेखांकित करते हुए वर्तमान युग में तत्कालीन समस्याओं के साथ जोडने का प्रयास करते हुए धर्म के सच्चे अर्थ को सुस्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होंने अंत में यही निष्कर्ष निकाला है कि "मानव धर्म ही सच्चा धर्म है। धर्म मुक्तिदाता है, धार्मिक संघटन बंधन है। धर्म प्रेरणा है, धार्मिक संघटन गतिरोध है। धर्म कोई संस्था नहीं है, वह मानवात्मा की पुकार है।"
- के. लीलावती
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