एक बंदी की आत्मकथा पर निबंध Hindi Essay on Ek Bandi Ki Atmakahtha

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Essay on Ek Bandi ki Atmakahtha

Ek Bandi ki Atmakahtha

Essay on Autobiography of a Prisoner

एक बंदी की आत्मकथा

मेरा नाम राजकुमार उर्फ राजू है। मैंने एम० ए० तक शिक्षा पाई। मैं सरकारी विभाग में कार्यरत था। मैं बड़ा ईमानदार और कर्त्तव्य-निष्ठ था। मेरे सभी साथी मुझे हरिश्चंद्र की औलाद कहकर चिढ़ाते थे। रिश्वत लेना पाप समझता था। एकाउंट- विभाग में होने के कारण ठेकेदारों की पेमेंट के बिल पास करने का दायित्व मुझ पर था। मैं पूरी ईमानदारी से अपना कर्त्तव्य निभा रहा था।

एक बार एक ठेकेदार ने अपना पेमेंट का बिल पास करने के लिए मुझ पर अधिकारियों का दबाव डलवाया, लेकिन मैं दबाव में नहीं आया। उसने मुझे कमीशन देने का लालच दिया। फिर मुझे धमकियाँ दीं। मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो गंभीर परिणामों की चेतावनी दी। लेकिन मैं कागजी कार्रवाई पूरी करने की जिद पर अड़ा रहा।

उसने मेरे घर में नोटों का एक पैकेट पता नहीं किस तरह से रखवा दिया और भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते को रिश्वत लेने की सूचना दे दी। जब मैं दफ्तर से घर पहुँचा तो पुलिस के अधिकारी घर पहुँचे। मेरे घर की तलाशी ली गई। घर में से नोटों का पैकेट निकला। मुझे बंदी बना लिया गया। भरे बाजार से थाने ले जाया गया। मेरा सारा सम्मान मिट्टी में मिल गया। लोग आवाजें कसने लगे-बड़ा ईमानदार बनता था ! अरे देखो! पता नहीं कितना माल डकार गया। बगुला भगत। मुझे जेल में डाल दिया गया। मुझे अपने ईमानदार होने पर गर्व था, इसलिए जमानत पर छूटने से इंकार कर दिया। मुकद्दमा चला। लेकिन मैं अपनी बेगुनाही प्रमाणित न कर सका। मुझे 2 वर्ष की कैद की सजा हो गई।

जेल में मुझे हत्या, चोरी, डकैती के अपराधियों के साथ रखा गया। वे मुझ से पैर दबवाने से लेकर झाडू लगवाने तक कार्य करवाते थे। इतना ही नहीं मना करने पर मारते थे। जेल में कोई सुविधा न थी। दोनों समय ऐसा भोजन मिलता था कि उसे देखकर ही भूख भाग जाती थी। पहले कुछ दिन तो ऐसा हुआ लेकिन बाद में वही खाना खाने की आदत पड़ गई। रात में बिस्तर में पड़े पड़े तरह-तरह के विचार आते- जाते थे। उस ठेकेदार का चेहरा मेरी नजरों में घूम जाता। मैंने अपने कैदी साथियों को अपनी रामकहानी सुनाई। उनमें से एक हत्या के सिलसिले में बंद बदमाश को मुझ पर दया आई। उसका वकील जब उससे मिलने आया तो उसने मेरे केस की अपील उच्च न्यायालय में करने और उस ठेकेदार को सीधा करने के लिए कहा।

जेल में कैदियों के साथ पुलिस वालों के दुर्व्यवाहर और मार-पिटाई को देखकर मेरी रूह काँप उठती थी। वहाँ भी भ्रष्टाचार का बोलबाला था। वार्डन से लेकर पुलिस अधीक्षक तक भ्रष्टाचार में लिप्त थे। कैदियों को मिलने वाले भत्ते में से भी हड़प करने की सफल कोशिश होती थी। यदि कोई कैदी बीमार पड़ जाए तो देखभाल भी नहीं होती थी। मैं एक बार बीमार पड़ा। बड़ी मुश्किल से अस्पताल में भर्ती करवाया गया। अब मेरा मन दुबारा जेल में जाने को नहीं करता था। मैं चाहता था कि मैं बीमार ही रहूँ। लेकिन ठीक होने पर पुनः जेल में डाल दिया गया।

एक दिन मेरे बड़े भाई साहब मुझसे मिलने आए। मैंने उन्हें पूरी बात बताई। वे मेरे उच्च अधिकारियों से मिले। वकील से मिलकर उच्च न्यायालय में अपील की। पुनः सुनवाई हुई। इस बार मेरे भाई के परिश्रम से मैं स्वयं को निर्दोष साबित करने में सफल रहा। उच्च न्यायालय ने मुझे छोड़ दिया। मैं जेल से छूटकर घर आया लेकिन लोगों की दृष्टि में अब भी कैदी ही रहा। मेरा पहले वाला सम्मान नहीं रहा। मैं अब भी स्वयं को नं 33 ही समझता हूँ क्योंकि बंदी के रूप में मुझे यही नंबर मिला था। पुलिस वाले मुझे नाम की अपेक्षा नंबर से पुकारते थे। कई महीनों बाद मुझे अपना नाम सुनने को मिला।

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