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Pradushan Ki Samasya Par Nibandh
Essay on Pollution Problem
प्रदूषण की समस्या पर हिंदी में निबंध
प्रदूषण का अर्थ है वातावरण या वायुमण्डल का अस्वस्थ होना। अतः इस समस्या से आज सारा विश्व चिन्तित है। प्रकृति और उसका वातावरण, अपने स्वभाव से शुद्ध, निर्मल और स्वास्थ्यप्रद हुआ करता है। यदि वह किन्हीं कारणों से दूषित हो जाता है तो मानवता के स्वस्थ विकास के लिए अनेक प्रकार के खतरे उत्पन्न हो जाया करते हैं। दूषित वातावरण अनेक प्रकार के ज्ञात-अज्ञात रोग उत्पन्न करके मानव तो क्या सभी प्रकार के जीवधारियों की साँसों में अदृश्य विष घोल देता है। परिणामस्वरूप संघात्मक बीमारियों से पीड़ित मानवता और अन्य जीवधारी बड़ी तेजी से मृत्यु की ओर अग्रसर होने लगते हैं। यही सब देख-सुन आज की समूची मानवता, विशेषकर विज्ञान-जगत प्रदूषण की समस्या को लेकर अत्यधिक चिन्तित हो उठा है।
सभी मानते हैं कि प्रदूषण की समस्या मूल रूप से आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा अन्धाधुन्ध मशीनीकरण और औद्योगीकरण की देन है। आज के मशीनी उद्योगों से जो कचरा या फालतू माल बचता है, उसे या तो जलाया जाता है या फिर भराव के काम में लाया जाता है। ऐसा करने से पहले कई बार इस सबके ढेर भी लगा दिए जाते हैं। इन्हीं से उत्पन्न कीटाणु, दुर्गन्ध और अन्य प्रकार के तत्त्व वायुमण्डल में घुल-मिलकर उसे मारक स्थिति तक दूषित बना देते हैं। कई बार कल-कारखानों से बहने वाला पानी नदियों-नालों में बहकर जाता है। उस पानी में अनेक प्रकार के दूषित और हानिकारक रसायन घुले मिले रहते हैं। उनके प्रभाव से दूषित होकर पानी वातावरण को तो दूषित बनाता ही है, उस धरती की मिट्टी को भी विषैला कर देता है, जिसे उस पानी से सींचा जाता है। वहाँ उत्पन्न फल-सब्जियाँ आदि खाना खतरनाक हो सकता है। महानगरों के आस-पास इस कार्य के लिए ऐसे पानी का आम प्रयोग किया जाता है। जलचर जीव भी उस पानी के प्रभाव से तड़पकर मरने लगते हैं। यदि वह पानी आदमी पी ले, तो उसकी क्या दशा होगी, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। भारत की गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियाँ भी आज प्रदूषण के मारक प्रभाव से बच नहीं सकीं। उनके शुद्धिकरण के प्रयास चल रहे हैं।
इनके अतिरिक्त प्रदूषण के अन्य अनेक कारण भी विद्यमान हैं। बड़े-बड़े कल-कारखानों की चिमनियों से अनवरत उठने वाला धुआँ, रेल तथा अन्य प्रकार के मोटर वाहनों के पाइपों से, इंजिनों से निकलने वाली गैसें और धुएँ, घरों में जलाया जाने वाला कोयला, भट्ठियों में जलने वाला हार्ड कोक, स्टोव में जलता केरोसिन आदि-इन सबसे कार्बन-डाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन, सल्फ्यूरिक एसिड, नाइट्रिक एक्साइड आदि निकल-निकलकर हर क्षण वायुमण्डल में घुलते रहते हैं। परिणामस्वरूप वातावरण का दूषित हो जाना स्वाभाविक ही है। इन सबका प्रभाव मानव और जीवधारियों पर तो पड़ता ही है, विशेष प्रकार के बने नए-पुराने भवन भी इनके प्रदूषित प्रभावों से आज विनाश के कगार तक पहुँच गए हैं। इस प्रकार प्रदूषण का प्रभाव अत्यन्त व्यापक है। चेतन प्राणियों, वनस्पतियों आदि को तो वह प्रदूषित कर ही रहा है, जड़ पदार्थ भी उसके विषैले प्रभाव से नहीं बच पा रहे। ताजमहल आदि भवनों को लेकर इस कारण सभी चिन्तित हैं।
वायुमण्डल के प्रदूषण से जो अनेक प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं, वैज्ञानिकों ने उनके नाम इस प्रकार गिनाए हैं-अनेक प्रकार के चर्म तथा श्वास रोग-खाँसी, जुकाम, दमा, क्षय आदि फेफड़ों का कैंसर, श्वसनी-शोध आदि। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य नए-नए रोगों के नाम भी सुनने में आ रहे हैं जिनका विश्लेषण और नामकरण अभी बाकी है। विश्व के महानगरों के समान भारत के भी बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली जैसे महानगर प्रदूषणजन्य इस प्रकार के रोगों से अधिक प्रभावित हैं। इन शहरों में अक्सर व्यक्ति दम घुटने जैसी स्थिति का अनुभव करने लगता है। अन्य नगर, जहाँ निरन्तर औद्योगीकरण की प्रक्रिया चल रही है, वे भी बड़ी तेजी से प्रदूषण का शिकार होते जा रहे हैं। राजधानी दिल्ली की गिनती सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में होने लगी है।
आज विश्व के कोने-कोने में जो अनेक प्रकार के परमाणु-विस्फोट और वैज्ञानिक परीक्षण हो रहे हैं, प्रदूषण का वे भी बहुत बड़ा कारण हैं। उनसे उठने वाली गैसें वहीं तक सीमित न रहकर देश-विदेश तक पहुँच वहाँ का वातावरण विषाक्त कर रही हैं। इन विस्फोटों ने ऋतुओं के चक्र, क्रम और समय तक को बदल डाला है। नगरों में धरती के अन्दर बने सीवर का जल भी अक्सर नदियों में गिराया जाता है, जिससे पानी दूषित, विषाक्त होकर ऑक्सीजनरहित हो जाता है। उस जल से सिंचित फसलें शहरों के आस-पास उगने वाली सब्जियाँ और फल आदि दूषित और तत्त्वहीन हो जाते हैं, फिर भी हम लोग उन्हें खाने-पीने के लिए विवश हैं। ताप-बिजलीघरों और परमाणु-भट्ठियों से निकलने वाली ऊष्मा भी जलवायु के सन्तुलन को बिगाड़कर अनुपयोगी बना दिया करती है। जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई से अनेक प्रकार के ईंधन जलने से वायुमण्डल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड का प्रभाव अपने हानिकर रूप में निरन्तर बढ़ता जा रहा है। यह बढ़ाव यदि इसी प्रकार जारी रहा तो हिमखण्ड पिघलकर बाढ़ और प्रलय का दृश्य उपस्थित कर देंगे। इस सबको देखकर विशेषज्ञों ने हिसाब लगाया है कि यदि इस बढ़ रहे प्रदूषण को रोकने का जबरदस्त और योजनाबद्ध प्रयास नहीं किया गया तो सौ-सवा सौ वर्षों के बाद इस धरती पर मानव-समेत सभी जीवधारियों का रह पाना असम्भव हो जाएगा। अतः अभी से सावधान होने की बहुत आवश्यकता है।
इन्हीं सब तथ्यों के आलोक में 5 जून, 1977 को सारे विश्व में 'पर्यावरण-दिवस' मानाया गया था। निश्चय किया गया कि ऐसे साधन खोजे जाएँ, जिनसे प्रदूषण के कारण सम्भावित विनाश से मानवता को बचाया जा सके। यह सुझाव भी दिए गए कि बड़े-बड़े कल-कारखाने नगरों-बस्तियों से दूर खुले वातावरण में लगाए जाएँ। नगरों के आस-पास वन-उपवन उगाए जाएँ, कल-कारखानों के कचरे, प्रदूषित जल को ठिकाने लगाने के उपाय और साधन खोजे जाएँ। ऐसा करने में ही वायुमण्डल और पानी की प्रदूषण से रक्षा हो सकती है। मानव का भविष्य स्वस्थ, नीरोग और सुखी रह सकता है। अन्यथा, विनाश अवश्यम्भावी है। नगरों, महानगरों में बढ़ती जनसंख्या, उसके कारण आवास-समस्या भी वातावरण को दमघोंटू बना रही है। इन सब बातों का निराकरण भी आवश्यक है।