मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना : हिन्दी निबंध लेखन

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Essay on Mazhab nahi sikhata aapas mein bair rakhna

Mazhab nahi sikhata aapas mein bair rakhna

Hindi Nibandh Mazhab nahi sikhata aapas mein bair rakhna

मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना

सभी धर्म या मज़हब महान् मानवीय मूल्यों को महत्त्व देते हैं। किसी भी मज़हब या धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के मस्तिष्क या तर्क-शक्ति के साथ नहीं, बल्कि हृदय और भावना के साथ स्वीकार किया जाता है। इसी कारण भावना-प्रवण व्यक्ति किसी तर्क-वितर्क पर ध्यान न दे, प्रायः भावनाओं में ही बहता जाता है। भावनाओं में बहाव व्यक्ति के स्तर पर तो बुरा नहीं, पर जब कोई वर्ग या समूह विशेष मज़हब या धर्म से सम्बन्धित भावुकता-भावना को ही सब-कुछ मान लिया करता है, तब निश्चय ही कई प्रकार की मारक समस्याएँ उत्पन्न हो जाया करती हैं। उनके परिणाम भी बड़े मारक हुआ करते हैं। इसी कारण समझदार लोग प्रत्येक स्थिति में भावना के साथ बुद्धि और मानवीय कर्त्तव्य का समन्वय बनाए रखने की बात कहते एवं प्रेरणा दिया करते हैं। ऐसा करके ही प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने मज़हब या धर्म पर कायम रहते हुए सारी मानवता के लिए शुभ एवं सुखकर प्रमाणित हो सकता है।

मज़हब या धर्म व्यक्ति को सम्मान्य, सुसभ्य और सुसंस्कृत बनाकर सभी प्रकार के अच्छे तत्त्वों को धारण करने, उनकी रक्षा करने की शक्ति दिया करता है। इस दृष्टि से मज़हबी या धार्मिक व्यक्ति वही है, जो उदात्त मानवीय धारणाओं को धारण करने में समर्थ हुआ करता है। इन तथ्यों के आलोक में यह भी कहा जा सकता है कि मज़हब या धर्म का सम्बन्ध न तो किसी जाति वर्ग विशेष के साथ हुआ करता है और न ही वह जाहिलों, अशिक्षितों-अनपढ़ों की वस्तु है। उसके लिए व्यक्ति का मानवता के समस्त सद्‌गुणों के प्रति विश्वासी होना, खुले एवं सुलझे हुए मन-मस्तिष्क वाला और सुशिक्षित होना भी बहुत आवश्यक है। ऐसा न होने पर भावुक आस्थाओं पर टिका हुआ मज़हब या धर्म अपने-आप में तो बखेड़ा बनकर रह ही जाता है, अनेक प्रकार के बखेड़ों का जनक भी बन जाता है, जिसे कोई भी मज़हब या धर्म उचित नहीं स्वीकारता।

यों मज़हबपरस्ती या धार्मिकता बुरी चीज़ है नहीं। यह मनुष्य को समानता, सहकारिता, सद्भावना और सबसे बढ़कर ईश्वरीय एवं मानवीय आस्था प्रदान करती है। पर कई बार कुछ कट्टरपन्थी, जो शिक्षित होते हुए भी सहज मानवीय भावना के स्तर पर वस्तुतः जाहिल ही हुआ करते हैं, मज़हब या धर्म के उन्माद में कुछ ऐसा कह या कर दिया करते हैं कि जो सारे वातावरण को अभिशप्त, अस्वास्थ्यकर और विषैला बना दिया करता है। हमारा देश इस प्रकार की कट्टरवादी जाहिलता का दुष्फल कई बार भोग चुका है। देश का बँटवारा इस कट्टरपन्थी मज़हबी दीवानगी का ही परिणाम था। उस समय हुआ व्यापक नरसंहार भी उसी का परिणाम था। आज भी कई बार मज़हबी चिंगारियाँ भड़ककर मानवता को जलाती रहती हैं। सोचने की बात है कि आखिर ऐसा क्यों होता है और कब तक अपने को राम-रहीम के प्यारे कहने वाले, अपने को सुसंस्कृत-शिक्षित मानव कहने वाले हम लोग यह सब बर्दाश्त करते रहेंगे?

मज़हब या धर्म वास्तव में बड़ी ही कोमल-कान्त और पवित्र भावनात्मक वस्तु है। उसका स्वरूप साकार न होकर भावनात्मक और निराकार ही रहता है-उस परम शक्ति के समान, जो अपने-आप में अनन्त असीम होते हुए भी अरूप और निराकार ही हुआ करती है। इसी कारण मज़हब या धर्म सदा-सर्वदा अस्पृश्य और अदृश्य ही रहता है। यह भी एक निखरा हुआ सर्वमान्य तथ्य है कि अपने आप में कोई भी मज़हब या धर्म मानव-मानव में किसी प्रकार का वैर-विरोध करना नहीं सिखाता। हर स्तर पर मानवता का विकास व सम्मान प्रत्येक मज़हब-धर्म का मूल तत्त्व है। हर धार्मिक नेता ने मात्र इसी बात का समर्थन किया है। दया, करुणा, सभी के प्रति प्रेम और सम्मान के साथ अपनेपन का भाव, शान्ति और अपने-अपने कर्त्तव्य के प्रति पूर्ण समर्पित आस्था-वस्तुतः हर धर्म या मज़हब का मूल मन्त्र यही बातें हैं। इन्हीं की रक्षा के लिए वास्तविक धार्मिक नेता अपने प्राणों तक का बलिदान करने को तत्पर रहकर त्याग-तपस्या के आदर्श की स्थापना किया करते हैं। पर यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि धर्मों के मूल रहस्यों को भुलाकर हम कई बार पशु बन जाया करते हैं। तब मनुष्यों के तो केवल शरीर ही मरते या नष्ट होते हैं; वास्तविक आघात धर्मों, मज़हबों की मूल अवधारणाओं पर हुआ करता है। भरती वे पवित्र और उदात्त भावनाएँ हैं जिन्हें धर्म या मज़हब कहा जाता है। इस क्रिया को मानव की हीनता और बौद्धिक दीवालियापन ही का जाएगा।

भारत एक सर्व-धर्म-समन्वयवादी देश है। समन्वय साधना आरम्भ से ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति की मूल भावना और प्रवृत्ति रही है। इसी कारण भारत की सभ्यता-संस्कृति को बहुमुखी एवं विविध धर्मों-तत्त्वों की समन्वित सभ्यता-संस्कृति कहा-माना जाता है। आरम्भ या अत्यन्त प्राचीन काल से यहाँ अनेक प्रकार के लोग आक्रमणकारी या लुटेरे बनकर आते रहे; पर अन्त में यहाँ की उदात्त मानवीय चेतनाओं से प्रभावित होकर यहीं के होकर रह गए। अनन्त सागर के अनन्त प्रवाह के समान भारत ने भी उन्हें अपने में समाकर एकत्व प्रदान कर दिया। आज भी भारत में अनेक धर्मों और सभ्यता-संस्कृतियों को मानने वाले लोग निवास करते हैं। अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार रहने चलने की उन्हें संवैधानिक स्वतन्त्रता एवं गारंटी प्राप्त है। फिर भी यहाँ कभी-कभार विभिन्न मज़हब या धर्म परस्पर टकरा जाया करते हैं। ऐसा होना वस्तुतः आश्चर्यजनक और विचारणीय बात है।

मज़हबी या धार्मिक टकराव क्यों होकर देश की शान्ति को भंग करते रहते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में मुख्य रूप से दो ही कारण खोजे-माने जा सकते हैं। पहला कारण है कट्टरवादी जाहिलता। यह जाहिलता कुछ लोगों के मन-मस्तिष्क में इस देश में रहते हुए भी उन्हें अन्य मज़हबी देशों से जोड़े हुए है। वे लोग मानवता या भारत की समन्वयवादी मानव-चेतना का अर्थ नहीं समझते। अतः मज़हबी जुनून और परदेसों के लोभ लालचपूर्ण उकसावे में आकर विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न करते रहते हैं। दूसरा कारण राजनीतिक अदूरदर्शी महत्त्वाकांक्षा भी अनेकविध विषमताओं, अराजकताओं और धार्मिक दंगे-फिसादों की जड़ मानी जाती है। धार्मिक जुनून और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का आज इस देश में कुछ इस सीमा तक बोलबाला हो चुका है कि अक्सर लोग अपने दादा-परदादा और माता-पिता के अस्तित्व, धर्म और मज़हब तक को भी नकारने लगे हैं। यह बात उनके और राष्ट्र दोनों के लिए शुभ-सुखद नहीं कही जा सकती। जितनी जल्दी इस प्रकार की घातक चेतनाओं से छुटकारा पाया जा सके, उचित है।

इस प्रकार की समस्त विषमताओं का सर्वोत्तम और सरलतम उपाय है कि हम शायर इकबाल के कथन का वास्तविक अर्थ समझें। वह यही है कि मज़हब और धर्म वैर-विरोध या फिरकापरस्ती, किसी प्रकार की कट्टर साम्प्रदायिकता का नाम नहीं। वह तो दया, धर्म, प्रेम और मानवता के महान् गुणों का नाम है। उन्हें अपनाकर ही प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने विश्वासों पर चलते हुए गर्व और गौरव के साथ घोषित कर सकता है कि-

"मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,

हिन्दू हैं, हमवतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा।"

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