Indian writer and playwright Bhisham Sahni Ka Natak Mein Naari Jivan, Bhisham Sahni Ke Natakon Mein Bharatiya Naari.
Indian women in the play Madhavi written by Bhisham Sahni
Madhavi - Hindi book by - Bhishm Sahni
भीष्म साहनी कृत माधवी नाटक में भारतीय नारी
नारी सृष्टि का मूल है। 'मनुस्मृति' में कहा गया है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ उनका - आदर नहीं होता वहाँ समस्त कार्य और प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। उसमें सर्जन, पालन और प्रलय की शक्तियाँ निहित हैं। वह दया, क्षमा, स्नेह, वात्सल्य तथा महत्व की प्रतिमूर्ति है। एक समय था जब नारी चार दीवारों में बंदी थी। उसके पास अधिकार नहीं थे। अब वे सब स्वप्न की बातें होती जा रही हैं। नारी ने हमारी व्यवस्था के दोषों और उससे प्राप्त हुए संघर्षों का पूरा इतिहास जी लिया है। अब उसके भीतर एक ज्वलंत संघर्षशील तथा लक्ष्यगामी महाशक्ति की प्रतिष्ठा होने लगी। यह हम सभी के लिए गौरव का विषय है। 'अस्मिता' अर्थात् पहचान। जिस प्रकार संसार की प्रत्येक वस्तु की अपनी एक अलग पहचान होती है। उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग पहचान तथा अस्मिता होती है। जो उसके व्यक्तिगत रूप को प्रकट करती है। इसी पहचान के कारण व्यक्ति अपने आचार-विचार प्रकट करता है। यदि व्यक्ति की कोई विशेष पहचान न हो तो वह मात्र कल्पना का विषय अथवा कीडे- मकोडों की श्रेणी में आ जायेगा। उसके व्यक्तित्व तथा रूप, गुण आदि अनुमान तथा कल्पना के विषय हो जायेंगे। इसलिए संसार का प्रत्येक मानव चाहे वह स्त्री हो या पुरुष अपने व्यक्तित्व के प्रति सजग होता है। इस संदर्भ में डॉ. सुरेशचन्द्र गुप्त का मत अवलोकनीय है- "कोशगत अर्थ की दृष्टि से अस्मिता शब्द अहंकार का वाचक है, किंतु प्रयोग रूढ़ि ने इसे निजत्व का समानार्थी बना दिया है..... अस्मिता जनित गौरव का संबंध व्यक्ति, जाति, समाज और राष्ट्र किसी से भी हो सकता है। वस्तुतः अस्मिता, आस्था गौरव और संकल्प का बोधक शब्द है। (प्रसाद के नाटक और भारतीय अस्मिता - सं. सुरेशचन्द्र गुप्त- पृ.सं. १) अस्मिता के प्रति जागरूकता व्यक्ति को दिग्भ्रमित तथा दिशाहीन होने से बचाती है।"
स्त्री और पुरुष ईश्वर द्वारा निर्मित संसार की विशिष्ट रचना है। दोनों एक दूसरे के पूरक के रूप में कहे जा सकते हैं। दोनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। स्त्री और पुरुष को हम रथ के दो पहिये या पक्षी के दोनों पंख मान सकते हैं। एक के बिना दूसरा निश्चल है। अतः नारी के बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं, और पुरुष के अभाव में नारी का कोई मूल्य नहीं।
दोनों का संबंध अभिन्न, अखंड और अनादि है। किंतु नारी का व्यक्तित्व सृष्टि के आरंभ से ही कभी उर्ध्व तो कभी निम्न होता दिखाई देता है। मानसिक क्षमता और मानवीय भावना के स्तर पर नारी पुरुष के समकक्ष है, किंतु नारी की शारीरिक कोमलता व हृदय की सरलता के कारण पुरुष उसका शोषण करता है। ऐसी शोषित और अपमानित नारी को भीष्म साहनी के नाटक में हम देख सकते हैं।
भीष्म साहनी कृत 'माधवी' नाटक का कथाफलक महाभारत युग में नारी की स्थिति एवं उसकी अस्मिता का विवेचन कर नारी तथा उसकी अस्मिता के दो विपरीत ध्रुव स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। जहाँ एक ओर नारी पूज्य मानी गई है, वहीं दूसरी ओर उसके प्रति अनादार की भावना भी मिलती है। इस नाटक में भीष्म साहनी ने सदियों से शोषित होती आ रही नारी की व्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। संपूर्ण नाटक में माधवी के जीवन संघर्ष की त्रासद कहानी कही गई है। पिता के वचन तथा प्रेमी की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए अपना सम्पूर्ण यौवन बलिदान कर देती है।
भीष्म साहनी ने इस नाटक के माध्यम से बताया है कि- पुराणों-शास्त्रों में नारी की जो स्थिति है आज भी उसकी वैसी ही स्थिति है। इस नाटक में भीष्म साहनी ने बडी कुशलता से इस सत्य का उद्घाटन किया है कि पुरुष सिर्फ अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए स्त्री का उपयोग कर रहा है। पुरुष की नज़रों में नारी एक जड वस्तु है। माधवी नाटक में इसी सत्य का परिलक्षित हुआ है। गालव गुरु विश्वामित्र का शिष्य है। वह 'आठ सौ अश्वमेधी घोडे गुरुदक्षिणा के रूप में चुकाकर गुरु की इच्छापूर्ति करना चाहता है। वह माधवी को अलग-अलग राजाओं के पास भेजता है क्योंकि वह माधवी के द्वारा चक्रवर्ती पुत्र दिलाकर प्रतिफल में अश्वमेधी घोडे प्राप्त करना चाहता है। सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही माधवी का उपयोग करता है। वह माधवी से प्रेम करता है, लेकिन उस प्रेम को अंत तक निर्वाह नहीं कर पाता। माधवी का सौंदर्य शिथिल हो जाने पर उसे छोड देता है। गालव माधवी को केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि का 'साधन- मात्र' ही समझता है। जिस माधवी के द्वारा गालव अपनी गुरु- दक्षिणा से अऋण हो जाता है। अंत में उसी को ठुकराकर उसकी स्वार्थपरता का परिचय देता है।
माधवी के पिता ययाति एक दानवीर और यशस्वी राजा हैं। कोई भी व्यक्ति उसके पास आता है वह खाली हाथों से वापस नहीं जाता । राजपाट त्याग देने के बाद भी ययाति अपने दान-गुण को नहीं छोडता है। गालव अपनी गुरु-दक्षिणा की पूर्ति के लिए ययाति से अश्वमेधी घोडों को माँगता है। ययाति घोडों के बदले अपनी पुत्री को दान के रूप में दे देता है, लेकिन वास्तव में ययाति माधवी को दान में देकर अपने को धर्मपरायण और कर्तव्यनिष्ठ कहलाना चाहता है, क्योंकि संसार में उसकी कीर्ति अमर रहे। वह एक आश्रमवासी से कहता है कि- "लोग यह भी कहते होंगे कि राजपाट त्यागने के बाद भी दानवीर ययाति ने अपना हाथ नहीं खींचा, क्यों ? क्या अभी-भी दानी राजा कर्ण से मेरी तुलना की जाती है या राजा कर्ण को लोग भूल गये हैं..... वह दिन आयेगा जब दान-दक्षिणा के प्रत्येक प्रसंग में केवल ययाति का नाम लिया जायेगा।" (माधवी-भीष्म साहनी, पृ.सं. 52) इससे ययाति की महत्वकांक्षा एवं स्वार्थ- वृत्ति का पता चलता है। इस नाटक में माधवी का त्याग उसके चरित्र की महानता को दर्शाता है। अपने जीवन की सभी इच्छाओं-आकांक्षाओं को विस्तृत कर, अपना सब कुछ देकर प्रतिदान में कुछ भी न लेने की वास्तव में नारी जीवन का श्रेष्ठतम आदर्श प्रस्तुत करता है।
भीष्म साहनी ने इस नाटक के माध्यम से युगों से शोषित भारतीय नारी का चित्र उपस्थित किया है। पुरुष प्रधान व्यवस्था में नारी के साथ कम अन्याय नहीं हुआ है। संस्कृत युग से लेकर आजतक यदि हम नारी संघर्ष की गाथा लिखें तो हमारे सामने सैकडों उदाहरण आ जाते हैं। जिसमें नारी ने हर कार्य एवं कार्यक्षेत्र में आदर्श उदाहरण स्थापित किए हैं।
- वाई. पुष्पावती
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