मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना पर निबंध : Mere Jeevan Ki Avismarniya Ghatna Par Nibandh

Dr. Mulla Adam Ali
0

Hindi Essay on unforgettable event of my life, Hindi Nibandh Lekhan, Famous Nibandh in Hindi, Mere Jeevan Ki Avismarniya Ghatna Par Nibandh.

Essay On Unforgettable Incident of my Life in Hindi

Mere Jeevan Ki Avismarniya Ghatna Par Nibandh

Mere Jeevan Ki Avismarniya Ghatna Par Hindi Nibandh

मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना

विचित्रताओं का नाम जीवन है। यह भी एक माना हुआ सत्य है कि घटनाओं से ही जीवन बनता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनेकविध घटनाएँ अक्सर घटती रहती हैं। उनमें से कुछ घटनाएँ अपनी अमिट छाप छोड़ जाया करती हैं। मेरे जीवन में अनेक घटनाएँ घटीं, किन्तु पिछले वर्ष की दीवाली पर जो घटना घटी; वह मुझे जीवन-भर स्मरण रहेगी।

इस घटना का आरम्भ कुछ यों हुआ। पिछले दो वर्ष दिवाली पर न तो मैं घर जा सका था और न मेरे बड़े भैया। मैं बोर्ड की परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था और मेरे भैया सेना में डॉक्टर हो गए थे। उन्हें छुट्टी न मिल पाई थी। अब कहीं तीसरी दीवाली भी हमारे बिना सूनी ही न बीत जाए, सो पिताजी ने बहुत पहले ही हम दोनों को लिख दिया था 'इस बार दीवाली पर अवश्य आना।' संयोगवश भैया को छुट्टी मिल गई और न जाने कैसे इलाके भर में यह समाचार फैल गया कि डॉक्टर साहब तीन बरस के पश्चात् दीवाली पर आ रहे हैं। लोगों के लिए मेरा कोई अधिक महत्त्व न था, क्योंकि मैं छोटा जो था।

उधर हमारा प्रदेश ठहरा चोरों और डाकुओं का गढ़-मध्य प्रदेश, और हमारे पिताजी इलाके-भर के माने हुए जमींदार। दुनिया जानती थी कि सेना में डॉक्टर का वेतन चार-छः हजार प्रतिमास से अधिक होता है। फिर यह भी सर्वविदित था कि जो डॉक्टर तीन बरस के पश्चात् घर लौट रहा हो, उसके पास अधिक नहीं तो दस-बीस हजार नकदी, कुछ भेंट-उपहार की वस्तुएँ, दो-एक आभूषण और कुछ बहुमूल्य वस्त्र तो अवश्य ही होंगे। सम्भव है कि कोई डकैती पर उतर आए, यह सोचकर जिस दिन हमें घर पहुँचना था, पिताजी स्वयं बन्दूक लेकर हमें स्टेशन से लिवाने के लिए आए। दो लठैत भी उनके साथ थे। सौभाग्यवश मार्ग में कोई ऐसी दुर्घटना न घटी और हम लोग सकुशल घर पहुँच गए।

अगले दिन दीवाली थी। मिलने वाले अनेक लोग हमारे घर पर एकत्रित हुए। कई वर्षों के पश्चात् हमारे घर में खूब सजधज हुई। अभ्यागतों को भोज दिया गया. इलाके-भर में मिठाई बाँटी गई और रात्रि में हमने लक्ष्मीजी की विधिवत् पूजा की तैयारी की। अभी इस धूमधाम का श्रीगणेश ही हो रहा था कि कुछ लोगों ने आग्रह किया कि आज के दिन बन्दूक से दो-चार हवाई फायर भी करने चाहिए। बन्दूक घर में थी और कारतूस भी हमारे पास थे। पिताजी लोगों की इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए तैयार हो गए। बड़े भैया ने बन्दूक उठा ली और उसमें कारतूस डालकर फायर करने के उद्देश्य से कुछ दूर हट गए। हम सब साँस रोके हुए गोली के धड़ाके की प्रतीक्षा करने लगे। भैया ने घोड़ा दबा दिया। पर यह क्या, न तो गोली चली और न धड़ाका ही हुआ। उसी कारतूस को फिर चलाया गया, कारतूस बदल-बदलकर घोड़ा दबाया गया, पर सब व्यर्थ। हारकर भैया ने बन्दूक रख दी और बोले, "शायद वर्षा के कारण सब कारतूस सील गए हैं।" फायर करने का उद्देश्य शायद देहातियों पर रौब डालना भी था, किन्तु अब तो उल्टा ही प्रभाव पड़ा। लोगों में यह बात बिजली की तरह फैल गई कि जागीरदार की बन्दूक बेकार है। उसमें कोई कारतूस चलता ही नहीं। खैर, उत्सव चलता रहा और समाप्त भी हो गया। सब विश्राम करने चले गए। आधी रात का समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। सब आगन्तुक सो चुके थे। केवल मैं और भैया जाग रहे थे। भैया को सहसा विचार आया कि सर्दी खाये हुए कारतूसों को गरम कर दिया जाए, तो वे चलने योग्य हो जाएँ। अतः उन्होंने सब कारतूस जलते हुए लैम्प के पास रख दिए। उन्हें थोड़ी-थोड़ी देर के बाद घुमाने-फिराने के लिए मुझसे कहकर वे अपने वस्त्र बदलने चले गए। 'तेज आँच पर कारतूस जल्दी सूखेंगे' यह सोचकर मैंने एक कारतूस चिमनी के ढक्कन पर रख दिया। अभी दो मिनट भी न बीत पाए थे कि कमरे में भयानक विस्फोट हुआ, मानो कमरा फट पड़ा हो। लैम्प बुझ गया, सर्वत्र अन्धकार छा गया और मैं एक चीत्कार के साथ दरवाजे की ओर भागा। भैया ने समझा कि कारतूस मुझे लगा है। विचित्र घबराहट के साथ टार्च के प्रकाश में उन्होंने मुझे ढूँढ़ने का प्रयत्न किया। मैं कहीं कमरे में दिखाई न दिया, तो वे दरवाजे की ओर लपके। वहाँ जो दृश्य देखा तो उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। ठीक दरवाजे के बीच एक बन्दूकधारी डाकू घायल होकर फर्श पर पड़ा था और उसके माथे से रक्त की धार बह रही थी। भैया को समझते देर न लगी कि वास्तविकता क्या थी। डाकू हमें लूटने मारने आए थे, पर भाग्य ने उन्हें बरबाद कर दिया था।

मैं चकित था कि किस अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से उस दीवाली पर हमारे घर की लक्ष्मी लुटने से बची। भैया और मैं डाकुओं की गोली का निशाना बनने से बचे और अमावस्या की वह रात्रि बिना किसी हानि और बिना किसी दुर्घटना के व्यतीत हो गई। कैसा चमत्कार हुआ कि उधर डाकुओं ने हमारे घर में प्रवेश किया, इधर किसी दैवी प्रेरणा से भैया ने लैम्प के पास कारतूस रख दिए। उधर डाकूं हमारे कमरे के दरवाजे तक पहुँता, इधर मैंने चिमनी के ढक्कन पर कारतूस रखा। फिर न जाने किस शक्ति की प्रेरणा से कारतूस ऐसा फटा कि न मुझे लगा और न भैया को; सीधा डाकू के माथे में जा धँसा, मानो किसी ने उसी का निशाना लगाकर गोली दागी हो। यह सब चमत्कार नहीं तो और क्या है?

पुलिस ने डाकू को हिरासत में लेकर अस्पताल पहुँचाया और गाँव वालों ने चैन की साँस ली। सभी यह घटना सुन चकित हो भगवान का धन्यवाद कर रहे थे। साथ ही इस चमत्कार की अपने-अपने ढंग से व्याख्या भी करने लगे थे।

मैं सोचता हूँ, यदि उस दिन यह चमत्कारिक घटना न घटती, तो लैम्प की चिमनी पर कारतूस रखने की मेरी भूल को कोई क्षमा न करता। किन्तु हुआ इसके बिल्कुल विपरीत। दीवालो की उस मध्यरात्रि में सबके आशीषों का केन्द्र मैं ही था।

मेरे जीवन की यह एक ऐसी घटना है, जिसे मैं कदापि भुला न सकूँगा-एक अद्भुत अनहोनी बात, एक फिल्मी 'संयोग' जैसी घटना। इस प्रकार घटनाएँ घटती रहती हैं और जीवन अपनी चाल चलता जाता है अपने अन्तिम पड़ाव की ओर। यही नियम प्रकृति है का। इसी को दैवी चमत्कार भी कहा जाता है शायद।

Related; मेरी जीवनाकांक्षा : हिन्दी निबंध

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top