Naye Jamane Ke Panchtantra
नये जमाने के पंचतंत्र में मानव-तंत्र
- बी. एल. आच्छा
कथा-कुल में लघुकथा सबसे छोटी विधा है; पर लेखन, प्रयोग और आंदोलन- सी सक्रियता की दृष्टि से लोकप्रिय भी। चैतन्य त्रिवेदी इसी विधा के विशिष्ट कथाकार हैं। 'उल्लास', 'कथा की अफवाह' और 'ईश्वर के लिए' - ये तीन लघुकथा संग्रह जंगल, आदमी और ईश्वर की परिधि को समेटे हुए। पंचतंत्र के मानवेतर को आज के लोकतांत्रिक परिदृश्य में नया रूपक रचकर वे व्यंग्य को जितना असरदार बनाते हैं, उतना ही घटनाचक्र में परिदृश्यों की स्थूल से नीचे की परतों में उतरकर संवेदन को फलसफ़े में बदल देते हैं। वे प्रयोग भूमि में उतने नहीं उलझते, बल्कि कथा-कथन की शैली में ही ऐसे मोड़,ऐसी यति-गति ला देते हैं; जो बिना नाटकीयता के भी तलस्पर्शी अनुभूति तक पहुंचाती है।इसी बिंदु पर विचार और बदलाव पाठक को उद्वेलित करते हैं। इस मायने में उनका कथा-चक्र समाजशास्त्र, अर्थतंत्र, लोक-चेतना, जनतंत्र, मानवेतर की सत्ता, मनोविज्ञान से गुजरते हुए उस तल पर केन्द्रित होता है, जो दर्शन या विचार का डिडक्टिव या नरेटिव बन सके। इस रूप में वे पाठकीय लोकतंत्र पर कुछ आरोपित नहीं करते, पाठक को अपने तंत्र पर खुला छोड़ देते हैं।
चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथा 'उल्लास' का विश्लेषण करते समय लगा कि यह कथाकार यथार्थ तक सिमटा नहीं है, बल्कि उसके भीतर के फलसफे और मनोविज्ञान से लेकर वंचित समाज के बच्चे के आनन्द को गहराई से बुन रहा है। एक फटी-सी फेंकी हुई निकर को गरीब माँ ने बेटे तुरपाई करके बेटे के लिए पहनने लायक बना दिया। कबाड़ बीनता बच्चा इस निकर को पहनकर कूदते-चिल्लाते निकल पड़ा। शीर्षक मिल गया 'उल्लास' । साफ नजर आया कि नयी निकर से ज्यादा इस तुरपाई- सधी निकर को पा जाने का उल्लास है गरीब बच्चे में। साफ है कि उल्लास में दो वर्ग हैं, थोड़ा ऊँचा और ज्यादा गरीब। पर दूसरे बच्चे का उल्लास मचलता- कूदता है। और पाठक भी बिना वर्ग- संघर्ष की तनी हुई मुट्ठियों के इस गरीब बच्चे के उल्लास में शरीक हो जाता है। कथा में न प्रयोग, न विशिष्ट शिल्प, केवल कथा-कथन में पात्र के भीतर के उल्लास में सामाजिक यथार्थ का सादा चित्र।
इस इस संग्रह की लघुकथाओं ने चैतन्य त्रिवेदी को विशिष्ट पहचान दी। यही कि वह न तो प्रतिरोध के बने-बनाए बीज शब्दों में गहराते हैं, न वैचारिकी को कथा में आरोपित कर अपने मंतव्य का फलित साधते हैं। यह सहजबयानी अपने दृश्यचित्रण में वहाँ तक थाह पाती है, जहाँ वे अपने फलसफ़े को संवेदनीय बना जाते हैं। न वर्ग विषमता का चलित रूपान्तरण, न पुरानी शास्त्रीय धारणाओं का संगमन। सामाजिक यथार्थबोध में यदि 'करुणा' इन पात्रों में संरक्षण का भाव जगाती है, तो मानवीय लोकतंत्र में उगे जंगल- तंत्र पर प्रहार करने में चूकती नहीं है।पर लेखक बाड़ेबंदियों और विचारधारा के कोष्ठकों से निकलकर यथार्थ की निचली तहों तक जाता है। प्रतिरोध के लोकतंत्र को भी रचता है।पर संवेदनात्मक फलसफ़ों से पाठक का सहयात्री बन जाता है।इस कौशल के लिए इतिहास का विवेक भी चाहिए, मिथकों में बसी लोकमानसीय धारणाएं भी। यथार्थ का तंतुजाल भी चाहिए और उसके विभेदक औजार भी। अपना लेखकीय स्वत्व भी चाहिए और विचारधाराओं की संपृक्ति का नेपथ्य भी। उसे लघुकथा के गद्य में कविता, रेखाचित्र, स्मृति, जैसे शैलीगत संक्रमण भी चाहिए।पर प्रयोग की कृत्रिमता का हठ नहीं। बल्कि मर्म के विन्यास के लिए उसकी सिद्धि।
इसमें कोई दो राय नहीं कि लघुकथा ने विधागत स्वरूप को साधा है। लघुकथाओं में विमर्शों का हर नजरिया संप्रेषी बना है।घर - देहरी से लेकर प्रवासी क्षितिज भी इनमें व्यंजित होता रहा है। राजनीति और प्रशासन के कई अक्स इनमें उभरे हैं। यथार्थ को हर कोने से झाँकने- समेटने का सृजनात्मक रचाव इस विधा की विशिष्टता है। पर अधिकतर लघुकथाएँ मध्यमवर्गीय परिवेश में सिमटी हुई हैं। कुछ लक्ष्य- साधित हैं, तो कुछ विचार- बाधित। संवेदनीय वैचारिकता तो हर विधा का गुण है, पर मुक्त भाव का स्वत्व और वैयक्तिक वैशिष्ट्य जरूरी है।
चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथाएँ इस रूप में विशिष्ट है कि वे यथार्थ चित्रण में सिद्धि नहीं पाती, बल्कि हर कतरे में नजरिया बुनती हैं। 'जूते और कालीन' लघुकथा में पूँजी और सर्वहारा का कंट्रास्ट भर नहीं है।बल्कि कला पूँजी के अहमकपन पर सवाल खड़े करती है, जो कालीन के हर धागे की बुनावट और कला के श्रम से उपजे हैं। कालीन पर चलते पूँजी के जूते इन सवालों से गिरा महसूस करते हैं-" इसके कसीदे दखिए श्रीमान!ये सुन्दर-सलोने कसीदे, जो आपको क्षितिज के पार सपनों की दुनिया में ले चलने का मन बना लेते हैं, उन कसीदों के लिए उन लोगों ने अपनी आंखें गड़ाई रात-रात, मन मारा जिनके लिए। उन्हें क्या मिला मजूरी में, सिर्फ रोटी ही तो खाई, लेकिन अपना आसमान निगल गए।" वर्गीय विषमताओं के साथ पूँजी के दंश और और कला के पसीने को जिसतरह की काव्यात्मक बुनावट मिली है, वह कला और श्रम की अस्मिता को उसी तरह मुखर करती है, जैसे 'ईदगाह' कहानी में हामिद का चिमटा। ये फलसफ़ा न तो सामान्य है,न प्रायोजित। पर काव्य भाषा और कालीन के रेशों की भाषा एकतान हो गयी है।
संवेदना के किसी फोकल पॉइन्ट पर पाठक को ले जाने और उसे संवेदन तंत्र का हिस्सा बना देने की कला शब्दों -कतरों में तभी निखरती है, जब वे आदर्श और यथार्थ या विचार के लेखकीय वलय से निकल कर पाठक में बस जाते हैं। 'रात 11.40' लघुकथा में आत्महत्या का विदारक क्षण हो या 'टूटते हुए सच' में मानवेतर भूत पात्र में कलिंग युद्ध की सिसकती आत्माएँ, या कि 'उस दिन मांडव में' लघुकथा में रानी रूपमती के नहाने की कल्पना और फटे टाट के पीछे नहाती औरत का कंट्रास्ट। यह कन्ट्रास्ट शोर नहीं मचाता, विपन्नता से दहला जरूर देता है।
हिन्दी लघुकथाओं का उत्स तो जातक और बोधकथाओं में है। पंचतंत्र जैसी मानवेतर कथाओं के साथ लोकमानस में प्रचलित चुटकुलों में भी। कभी उपदेश और नीति इनके मूल और सिद्धि में थे। पर समकालीन लघुकथाओं में यह समय के परिदृश्यों का यथार्थ है और आदर्श या नीति से सीधे संपृक्ति के बगैर व्यंग्य, नुकीले स्पर्श और कथान्त की स्पर्शिल परिणतियों से युगबोध को समझने- बदलने का नजरिया लिए हुए है। कथाकार लोकतंत्र में जंगल -तंत्र और जंगल- तंत्र में अघोषित लोकतंत्र के रूपक को पंचतंत्र की तरह मानवेतर पात्रों से बखूबी व्यंजक बना देता है। इस मायने में वह लोक कथाओं में नये रंग भर देता है। आदमी ही इनका पात्र नहीं हैं; भेड़िए, शेर, चूहे, कुत्ते, मगरमच्छ और पक्षी भी। यही नहीं सिंहासन की पुतलियाँ, प्रेत छायाएँ और अनदिखा ईश्वर भी पात्र बन जाते हैं। सोच और व्यंग्य का हर नुकीला हिस्सा एक नया प्रबोध देता है। यथार्थ और फलसफ़ों को बुनती हुई इन कथाओं में तरलता कविता और गद्य- गीत को खींच लाती है। कुछ व्यंग्य बन जाते हैं,कुछ जीवन- सूत्र।चुभते-चुभाते नुकीले प्रहार और लेखकीय प्रवेश से बचते-बचाते अनुभूतियों का वैचारिक परस ।
'जंगल के जवाब' लघुकथा में सादृश्यों की बुनावट जंगल में अपनेपन को रचती है- "वृक्षों की परछाइयों और झरनों का मफलर लपेटे पहाड़ों का खयाल था-" शायद कोई हमारे झरनों की फुहारों से किसी चेहरे पर प्रेम लिखना चाहता हो!"लेकिन शहर से आई फोन की घंटी नया मोड़ रच देती है। शहर की माँग है- "गड़रियों को डराने के लिए 'भेड़िया आया' जैसी मजाक रचने वालों की।डमरू पर नाचनेवाले रीछों की, अपने प्रजातंत्र में कुत्तों की।
और यहीं जंगल का एक नुकीला उत्तर गहरी मार कर जाता है- "कुत्तों का यहाँ क्या काम! यह आपका लोकतंत्र नहीं है भाई, जंगल है जंगल।" जंगल और शहर के इस संवाद में व्यंग्यात्मक लाक्षणिकता के पंच कितने पैने हैं। तकनीक के रिसीवर ने जंगल- तंत्र और लोक-तंत्र के बीच संवाद रचा कर मानव-तंत्र को कितना कंटकांकित कह दिया।
सभ्यता और लोकतंत्र में भीतरी शैतानियत को लेकर शैतान ही वह किताब रचकर मनुष्यों के सामने फेंक जाता है, जो मासूमों के खून में डुबोकर लिखी गयी है। औरतों के सिन्दूर से लिखी इबारत चीत्कारों से विकल है।और आजादी के बाद शैतानियत के मुकाम पर आजाद मनुष्यों की हार को जतलाती है। शैतान की शैतानियत गायब है और मानव की शैतानियत उसके किताबी पन्नों में सरेआम।यह केवल आजादी का के बाद का अंतर्पाठ नहीं, बल्कि मूल्यों के कसमसाते ध्वंस का व्यंग्य-पाठ है। 'पवित्र नदी का सच' मगरमच्छ और बंदर की पुस्तैनी लोककथा मे व्यंग्य का नया नियोजन है। 'लेकिन कहता कौन है? 'लघुकथा का आदमी उस मुहावरे से बाहर निकलकर अपनी नियति को खुद चुनता है- "कुत्ते की तरह जी तो लिए, कुत्ते की तरह मरना नहीं चाहता। "मगर शहरीयत पर चोट करता यह कथान्त बहुत व्यंजक है- "शहर की सीमा समाप्त। धन्यवाद। आपकी यात्रा सुखद हो।"
मानव समुदाय और उसकी सभ्यता पर कई नुकीले प्रहार करने में ये लघुकथाएँ स्थूल आर लेखकीय मंतव्यों से बचती है। फिर प्रचलित लोककथाओं और मुहावरों में इतनी खिलंदड़ी हो जाती है कि उनका उसका व्यंग्यार्थ खुलकर खेलता है। भेड़, शेर, घड़ियाल और आदमी की नाव यात्रा में संदेह और समीकरण आज के भीतर-बाहर की फांक से कम नहीं है। घड़ियाल, शेर और आदमी तीनों के मन में भेड़ के मांस को खा जाने का इरादा है। भेड़ भी तीनों के इरादे समझती हुई मनुष्य और उसकी सभ्यता पर तंजभरी चिट्ठी लिखकर पानी में छपाक् लगा देती है-"मुझे कम से कम तुम पर तो भरोसा था।" मनुष्यों द्वारा पक्षियों -जानवरों के भेड़िएपन के आरोपित मुहावरों के उलट ये लघुकथाएं मानव सभ्यता पर मारक तंज कसती हैं।यह खिलंदड़ीपन अप्रत्याशित अर्थ भर देता है।
'प्रजा महाराज 'में तो भूत-प्रेत भी शामिल हैं, जो राज-संस्कृति में दबे जनमानस की व्यथा कह जाते हैं।'सिंहासन और पुतलियां' में तो गहरा व्यंग्य है- "जो भी सिंहासन की तरफ जाता है,पुतली की तरह हो जाता है।" चाहे पुतली राजा से बची हो या मुक्त हो। लेकिन कथाकार के भीतर की चेतना और उसके सोच की चमक 'जंगल कैसा भी हो' लघुकथा में साहसिक प्रतिरोध है। हथियारबंद सैनिकों के आगे एक लकड़हारा बोला- "जंगल कैसा भी हो, बगैर किसी डर के घुस पड़ता हूं।" यह सभ्यता के नियोजक लोकतंत्र में सत्ता- तंत्र के लोगों के आगे निरीह आदमी के भीतर का साहस है।
लघुकथाओं में यथार्थ फोटोग्राफिक होकर भी प्रभावी नहीं होता। पर पात्रों- दृश्यों की भावसत्ता में सारी धड़कनें, सारा सोच और अन्तःसत्य ध्वनित होते हैं ,तो जीवंत हो जाते हैं। यथार्थ और कलागत यथार्थ के बीच की फांक बहुत साफ नजर आती है। 'इंतजाम और कला' में केवल राजसत्ता के आतंक पर ही व्यंग्य नहीं है, बल्कि राजसत्ता के समक्ष कला की आत्म-सत्ता को दर्शन की-सी भाषा में बेबाकी से कह जाती है। राजा का आदेश था उसका चित्र बनाने के लिए,जिसमें वह जीवंत हो। लेकिन चित्रकार के बेबाक उत्तर में व्यवस्था, सत्ता-प्रतिरोध, लोकतांत्रिक चुनौती जैसे सारे विरोध से अलग एक कलाकार की आत्महन्ता विवशता जितनी ध्वनित होती है, उतनी ही कलागत सत्य से राजत्वको आईना दिखा जाती है- "उस चित्र में तस्वीर तो आपकी होती, लेकिन उन चेहरों की भावप्रवणता में मैं भी होता था। आप तो हैं, लेकिन मैं मार दिया गया हूं। कला में जब कुछ होता है, तो वह सब भी होता है, जिसका होना सब में नहीं होता।" सृजन में कलाकार अपनी भावसत्ता को ऐसे सामंती चेहरे में उतार दे तो यह लेखक की भावसत्ता का ट्रांसप्लांट है। सामंती अहंकार तो नया चेहरा पा जाता है,पर कलाकार आत्महंता।कला के इसआन्तर सत्य का परस करती ऐसी लघुकथाएं खलिल ज़िब्रान जैसे कथाकारों के रास्ते जाते हुए विशिष्ट बन जाती हैं।
इन लघुकथाओं में 'सत्ता, व्यवस्था और जड़ मूल्यों के प्रतिकार की प्रतिध्वनि तनी हुई मुट्ठियों की तरह आक्रामक भले ही न हो, पर उससे भी अधिक प्रहारक मार व्यंग्यों में मुखर है।इसलिए कि वे समकालीन आलोचना की प्रतिबद्ध बीज शब्दावली से न आकर अनुभव से स्वतःस्फूर्त है। कुछ लघुकथाओं में करुणाजनित राग भी उभरा है। पर करुणा में भी कमजोर के रक्षण और अन्याय के प्रतिकार का पक्ष ही सबल होता है। लेखक ने इतिहास, मिथक, लोकथाओं में प्रतिकार और विरोध की संभावनाओं को समकाल की प्रतिध्वनि बना दिया है। 'समर्पण' लघुकथा में अभिव्यक्ति की आजादी खुद राजा देता है-" लोकतंत्र है। अभिव्यक्ति की आजादी। डरो मत, निर्भय होकर बोलो।" पर चाँद सितारों को निहारता वह लोकतंत्र का प्राणी जोर से चीख पड़ा-" जब तक सूरज चाँद रहेगा..।" यह सत्ता के डर और नागरिक के भय के भीतर की परतों की सांकेतिक व्यंजना है। 'जो भय खड़ा कर सकते हैं" लघुकथा में राजत्व की दुश्मन, मनुष्य की प्रतिरोधक शक्ति ही है;नाग और देवता की नहीं। सामंती संस्कारों में दबा जनमानस दासता से कितना घिरा होता है कि राजा के हंटर से पिटी मृतात्मा का भूत तक कहता है -"भूत हैं तो क्या हुआ महाराज। हैं तो आपकी प्रजा ही ना महाराज!!!" यह विवशता का जितना करुण बोध है, व्यंजना में जन- प्रतिबोध के लिए उकसाती व्यंजना। "गुजारा' लघुकथा में सुई-धागे की प्रतीकात्मकता में एक ही पंच व्यवस्था के खिलाफ मुँह सिलकर रखते की व्यंजना कर देता है-" तभी एक औरत ने दाँत से धागा तोड़कर नीचे गठान लगा दी।" अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यह गठान बहुत व्यंजक है।
जिन लघुकथाओं में लेखकीय मंतव्य घटनाचक्र या संवाद अंतर्विरोधों या संवादी टकराहटों से टन्न बजता हुआ आता है, वे लेखकीय प्रवेश के बजाय लेखक के आंतरिक व्यक्तित्व की झलक दे जाती हैं। ऐसे में लेखक परछाइयों में जीता हुआ परछाइयों को ही पकड़ता है। कबूतर और बाज के प्रतीकों में वह जान का खतरा और स्वतंत्रता की दुनियावी प्रकृति को पहचानता है। नेकी और शहीदी की नियति को पकड़ता है और अंतत: 'दड़बा ही जीवन है' के डिडक्टिव तक आकर पक्षियों पर मनुष्यता के आरोप को व्यंग्यात्मक बना देता है।व्यंग्यात्मक इसलिए कि पक्षियों के विवेक और मानव विवेक के तमाम उद्घोषों में क्या फर्क है? 'धर्म पुस्तक' में भी वह गुनाहों का अभिज्ञान कराना चाहता है। अल्फ्रेड पार्क' में नयी पीढ़ी के इतिहास बोध में दासता के फूल इसतरह व्यंजित हैं कि एक फूल शहीद चन्द्रशेखर आजाद के बजाए पूछ लेता है-"अंकल, हमें अल्फ्रेड बनने के लिए क्या करना होगा?" इसीतरह 'लो, एक प्रतिभावान और...!!' में वह 'डूब मर' मुहावरे से खेलते हुए संस्कृति और सामाजिक मूल्यों को शीर्ष बनाने के बजाय भू-माफिया और तथाकथित पत्रकारिता में नीर के शीर्ष पर पहुँचने वाले में ही अपने शिक्षकीय जीवन की उपलब्धि का महिमा मंडन करता है। और 'नादान' लघुकथा में तो भगवान का पोर्टफोलियो झूठी कसम खाने का निरपेक्ष आधार बन जाता है- "भगवान मर गया क्या! झूठी भी खा लेगा तो क्या फर्क पड़ेगा। न तेरे को, न मेरे को, न भगवान को और न ही उस उस रामरतन को, जो मर गया है।" शपथों की ये सच्चाइयाँ पुलिस और कानून के सामने न्याय, प्रशासन और सामाजिक नैतिकता की सर्जरी कर देती है।
सामाजिक जीवन की सच्चाइयां के मिथकीय, ऐतिहासिक, काव्यात्मक कथानकों में प्रक्षेप से अंत:सत्य को तलाशती हैं। ऐसे में पात्र भी समाज, प्रकृति, दर्शन, मिथक , लोकविश्वासोंं से निकलकर समकालीन तर्क से नया बोध रचते हैं। 'बोधिसत्व की चेतना' में झूठ दुनिया में;आग विचार में और श्मशान कड़वी सच्चाई में रूपांतरित हो जाता है।अंततः बोधिसत्त्व का घर के पास एकान्त और गाड़ीवान का रोजमर्रा का आने-जाने का रास्ता । शुरुआती सवाल कथांत में उत्तर पा जाता है - "मालिक! धोखों के कई रास्ते हैं। जो रास्ता आप तय करते हैं, उसमें एक ही धोखा है किस्मत का।" 'तुमने सिर्फ रस्सी बनाई' लघुकथा में साधारण प्रजा द्वारा आविष्कृत रस्सी प्रजा के लिए राजा का दण्डाधिकार बन जाता है। कथाकार साँप, मेंढ़क, बादल, पानी, इंद्रधनुष, खिड़की ,दरवाजे जैसे पात्रों में भी रिश्तों, सामाजिक अंतर्विरोधों, अन्तश्चेतना के मर्म और सत्ता की सच्चाइयों को इसतरह विन्यस्त करता है कि वे बोधकथाओं या पंचतंत्र के शिल्प में सधकर समकाल का बोध कराती हैं।
तोनो संग्रहों के कथाविन्यास में ईश्वर का किरदार भी आस्तिक -नास्तिक या आस्था-अनास्था से परे सामाजिक सरोकारों से अलग नहीं है। 'ईश्वर की जगह' में कोई रहस्यवादी धारातल नहीं है। पर अपने लिए एक दिन की आस्था, श्रद्धा और भक्ति के याचक को बहुत माकूल जवाब मिला है- "तुम्हें यहाँ सब पहचानते हैं और जहाँ सब पहचानते हैं,वहाँ ईश्वर की तरह खड़ा नहीं रहा जा सकता।" जमाने की फिक्र की ऐसी अवधारणा जो जमाने से सम्बद्ध होकर भी जमाने से अदृश्य है। इसी में अनजान और सर्वज्ञान का क्षेत्रफल समाया है।कथा की एक पंक्ति नये सरोकारों के लिए संभावनाओं का अनन्त है-"ईश्वर हमेशा एक अनजान कथानक से जीवित रहता आया है।" और इसी से जुड़े हैं धर्म, धर्म पुस्तक, न्याय-अन्याय , प्रशंसा-शिकवे, नीति-बोध, आस्था-श्रद्धा का खुला आकाश भी,जिसकी परिणति जमीनी है।लेखक गतानुगतिक जड़ता पर कसैले व्यंग्य कर ही देता है, जो राजनीति, परम्परा,विचार, अध्यात्म आदि को अपने स्वार्थ के लिए पकाते हैं।तब निरीह प्राणी का विवश देह त्याग गहरे व्यंग्य में 'मोक्ष' बन जाता है। ऐसे में 'ईश्वर का काम' लघुकथा मनुष्यलोक के चातुर्य की नहीं ,स्वयं ईश्वर की ही विवश व्यंजना बन जाती है-" मुझसे तो मुझसे और अपने से भी छिटक जाने के रास्ते निकाल लिए।" स्वर्ग, धरती और जीवन के सारे प्रसंगों में कथाकार मनुष्य के स्वत्व की उडान को केन्द्रीय बना देता है-"जो ईश्वर जीवन में जीवन के लिए न मिल पाए ,दम तोड़ते समय मिलकर क्या करेगा। मुझे भव्य मौत नहीं, जीवन चाहिए।" 'मुकद्दर के साथ' लघुकथा का अंत यहीं नहीं होता। विधाता ने उसे पृथ्वी पर हिन्दुस्तान भेज दिया मुकद्दर के साथ।
"ईश्वर के लिए" लघुकथा संग्रह की रचनाएँ सूक्ष्मतर धरातल पर बुनी हुई हैं। वे जंगल, आदमी और ईश्वर तक कभी व्यंग्य, कभी दर्शन, कभी यथार्थ, कभी फेन्टेसी को रचती हुई सवालिया भी हो जाती हैं। 'ईश्वर के लिए' लघुकथा बेहद कारुणिक है। पोस्टर चिपकाने वाले के गुमशुदा बच्चे के कई कई इश्तहार। पर पोस्टर चिपकाने वाला चट्टान पर पड़ी अपने बच्चे की लाश का इश्तहार चिपका रहा है। दर्शकों की सवालिया नज़रों का उत्तर देता उस आदमी का हैरतअंगेज उत्तर- "यह ईश्वर के लिए है"। धरती पर न्याय की जंग ईश्वर से सवाल करती है। उस अदालत से, जिसका उत्तर कभी नहीं मिलता। यथार्थ, करुणा, सामाजिकी और दर्शन से गुजरती हुई यह इश्तहारी पुकार उस परम की शून्य गुहा में केन्द्रित हो जाती है, जिसकी बनाई यह दुनिया है।
संक्रमित रोगों से सनी मृत्यु लीला के साये में पूरा वार्ड । डॉक्टर देवदूत,मगर हर बिस्तर उसे पुकार रहा है। रिश्तों के सारे ममत्व को अश्रुधारा में डुबोती मृत्यु |जीवन-मृत्यु की मारामारी में यह अतिम वाक्य, कितना कुछ कह जाता है- "तुम लकी हो। वर्ना ये बेड, जिस पर तुम्हारी मां की सांसें उखड़ीं,हमारा था।" शीर्षक ही अंत तक चला आता है विशेषण विपर्यय के साथ- "विदारक भाग्य"।
पर स्वयं ईश्वर भी धरती पर आ जाए तो उसे क्या भुगतना पड़ेगा? क्या धरती पर उसके लिए जगह है? क्या आत्मा ईश्वर, भक्ति-मुक्ति के सारे दर्शन में यह अनदिखा ईश्वर कुछ जाना-पहचाना है?" उस दिन ईश्वर बैठने के लिए जगह ढ़ूंढ़ता रहा" लघुकथा इसी यथार्थ से परिचय कराती है।और यह कोई काल्पनिक सा कथानक नहीं। साधारण से वेश में हम महान हस्तियों को कहां पहचान पाते हैं?सारे संवादी परिदृश्यों में ईश्वर को घुमाता हुआ रचनाकार स्वयं ईश्वर की नियति पर एक वाक्य जड़ देता है -" ईश्वर जाते-जाते कभी हंस पड़ता था, कभी रो पड़ता था।" यही कथा का सौन्दर्य है, यथार्थ है, दुनियादारी का रिश्ता-नाता है, रिश्तों की थाह है। जानता है और सुना भी है- 'ना जाने किस वेश मे बाबा मिल जाए भगवान रे"। पर मनुष्य के भीतर में पैठा दर्शन भी इस सामाजिक सत्य से कितना ढ़का-दबा है। अंतिम वाक्य का नुकीलापन सारे ढ़ेर में आलपिन की तरह चुभ जाता है।
जाने-पहचाने जीवन में सामान्य सी बातों में अपरिभाषेय को सत्य और व्यंग्य की सूक्ष्मता के साथ फलसफ़े में उतार देना सहज नहीं होता ।"जंगल किताब से परे का चुप है"- लघुकथा में यह चुप्पी गहरे संदेश में मुखर है। थूक से किताब के पन्ने पलटने और नदी के बहते पानी के स्पर्श से किताब के पन्ने पलटाने की सांकेतिकता सभ्यता और इतिहास के पुराने-नये को फलसफे में गढ़ जाती है।बिना गुस्से के थूक नया नहीं होता और नदी की धारा सदैव नया कह जाती है। सभ्यता की किताब में पड़ा फूल भी कागज बन जाता है, पर किताब के बगैर जंगल नित नया बनता रहता है। सभ्यता की किताब जंगल के पास नहीं होती, फिर भी नया बनता रहता है।और आदमी के पास सभ्यता की किताब पुरानी होती चली जाती है। पुराने से टकराए बगैर सभ्यता की किताबें नदी की तरह जीवन प्रवाह नहीं बन पातीं।
प्रहार' दिलचस्प लघुकथा है। पुरानी कथा- कथन शैली में। पर संवादों में नाटकीय-विज्युअल और सामाजिक अनाचारों पर आघात करती हुई। एक रंजक पात्र जानवरों- परिन्दों की हुबहू आवाज से भरण- पोषण करनेवाला। दूसरा पात्र गिद्ध-लोमड़ और भेड़िए की नृशंसता से औरतों पर घात लगाए।मगर घड़ियाली आँसुओं में करुणा जल लिए। तीसरा पात्र एक समूचा वर्ग है पसीना बहाकर जिंदगी गुजारने वालों का,जिनकी आवाज मौत के बाद ही आती है। खौफनाक पात्र इन रंजक आवाजों वाले पात्र से कहता है-" सुना है तुम कई जानवरों की आवाज़ें निकाल सकते हो"। रंजक पात्र का साहसिक जवाब है-"मैं आपकी आवाज भी निकाल सकता हूं"। एक आदमी के भीतर का हिंसक पशु और रंजक पात्र की साहसिक मुखरता ।सभ्यता और संस्कृति के व्यंग्य और दर्शन में लिपटी ये लघुकथाएं जंगल, जन, काल और जीवन सत्यों के परिदृश्य में एक बड़ा जीवन दर्शन बुनती चली जाती हैं।
इन कथाओं में समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, धर्मशारत्र और अपराध का मनोविज्ञान इसतरह तंतुजाल बुनते हैं कि सामाजिक नैतिकता के मूल्यमान सवालिया बन जाते हैं। तब 'हादसा' में लगता है कि अपराध की दुनिया में माफिया, डॉन, टाइगर आपने खौफ से रौशन स्टार बन जाते हैं। या कि 'एक दिन' लघुकथा में अच्छाइयां कितनी छटपटाती हुई बुराइयों की कसौटी को शक्तिमान बना जाती हैं। 'श्वेत बगुले 'लघुकथा में बगुलों की चोंच में मछलियों के बलिदान कितना पुण्य-कार्य बन जाते हैं।' प्रवचन' में समाजशास्त्रीय राहों से गुजरते यह सूत्र डिडक्टिव- सा बन जाता है-" ईमान से पहचान नहीं बनती, नामुराद, किस्से बनते हैं किस्से।" "प्रगति" लघुकथा सूक्ष्मतर सत्य को गहरे व्यंग्य से व्यक्त करती है। लघुकथा 'प्रागैतिहासिक काल' के नग्न आदमी और आज के सवस्त्र आदमी के अंतर को लक्षित करती है- "होता है ना। आँख से दिखता नहीं है। पहचान से पता चलता है।" वेआँखिन देखी तक नहीं सिमटते, वे अंतरतर की पहचान का फलसफ़ा बन जाते हैं। चैतन्य का कथा- शिल्प हेयर फ्रेक्चर की तरह महीन व्यंंग्य को कभी संकेतों से, तो कभी व्यंग्य - सूक्तियों से समाज दर्शन करवा देता है। आंखिन -देखी के साथ अंतस्- देखी, चेतस-गढ़ी और व्यंग्य -कही भी।
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