साहित्य और जीवन मूल्य पर निबंध : Sahitya aur Jivan Mulya

Dr. Mulla Adam Ali
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Sahitya aur Jivan Mulya

Literature and life values

Literature and life values

साहित्य और जीवन मूल्य

साहित्य मानवीय चेतना के विविध आयामों का प्रत्युत्तर है। साहित्यकार केवल नैतिक या आदर्श मूल्यों की स्थापना करता हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता है, वह पारस्परिक संघर्षों का भी चित्रण करता है। अतः साहित्य का प्रतिपाद्य विषय जीवन-मूल्य हैं, जो मानव संवेदनाओं को महत्व देता है।

परम्पराएँ समाज की उपज होती है। ये परप्मराएँ एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होती रहती हैं। इसलिए ये परम्पराएँ जीवन-मूल्यों को प्रमाणित करती रहती हैं। मानव जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं, आकांक्षाओं, अभिरुचियों, लक्ष्यों से उद्भुत जीवन-मूल्य परम्परा को विच्छेद करके उपलब्ध नहीं किये जा सकते हैं। सद्भाव, ब्रह्मचर्य करूणा, मित्रता, परोपकार, दान, मान, प्रेम, शिष्टाचार, सत्य, भलाई आदि परम्परागत प्राप्त जीवन-मूल्य हैं। लेकिन भिन्न समाज की संस्कृति भिन्न होती है, तो उस समाज की परम्परा भिन्न होगी उसके भिन्न मूल्य हो सकते हैं।

हमारे संकल्पों तथा प्रतिमामनों में स्थायित्व है, संकल्पनों से विचार बनते हैं, विचार दृष्टिकोण को जन्मता है और दृष्टिकोण ही जीवन-मूल्यों की रचना करते हैं। यह दृष्टिकोण व्यक्तिपरक तथा समाज परक हो सकते हैं। यह दृष्टिकोण विशिष्ट परिस्थितियों में परिवर्तित होते रहते हैं इनके साथ जीवन-मूल्य निर्मित एवं विकसित होते रहते हैं।

साहित्य तत्कालीन सामाजिक मूल्यों को ग्रहण करता हुआ, नये जीनव-मूल्यों की सृष्टि के जरिये समाज की गतिशीलता प्रदान करता रहता है। इसलिए सामाजिक परिवर्तित स्वरूप तथा मूल्यों का प्रतिफलित रूप साहित्य में स्वाभाविक रूप से उपलब्ध होता है। इसलिए प्रत्येक युग के जीवन-दर्शन तथा जीवन-मूल्यों में भिन्नता आ जाना स्वाभाविक है।

साहित्य का जीवन-दर्शन जीवन-मूल्यों पर आधारित रहता है। इसलिए मूल्य परिवर्तन शीलता के कारण व्यक्ति की मानसिकता बदल जाती है। साहित्यकार अपने साहित्य के अन्तर्गत समाज के मूल्यों को अंकित करता है। इस तरह साहित्य तत्कालीन जीवन-मूल्यों को ग्रहण करता रहता है, और नवीन मूल्यों के द्वारा समाज को दिशा प्रदान करता रहता है। साहित्य हमारी परम्पराओं से जुडा रहने पर भी परम्पराओं के प्रति विद्रोह करके उसे नयी दिशा प्रदान करता है। यह कारण है - आज का वैज्ञानिक युग विघटन का युग बन गया। आज का व्यक्ति मूल्य संकट की स्थिति में न तो मूल्यों को पूरी तरह से त्याग रहा है और न ही पूरी तरह से आत्मसात् कर रहा है । यही साहित्य की स्थिति है।

आज के युग में नये-पुराने की टकराहट है, जिसे आधुनिक साहित्य ने स्वीकारा है । प्रत्येक युग का साहित्यकार धार्मिक मत, दार्शनिक चिन्तन प्रक्रिया और राजनैतिक गतिविधियों के मध्य सामंजस्य स्थापित करता है। इसके फल स्वरूप नवीन मूल्यों की स्थापना पर बल देता है। मध्यकाल में कबीर, तुलसी तथा अनेक धार्मिक नेताओं और उन्नीसी वीं शती के राजा राममोहन राय, विवेकानंद, दयानन्द, महात्मा गाँधी जी आदि ने समन्वय की नीति को अपनाकर जनता को नये विचार, नये चिंतन, नये भाव तथा नये मूल्यों से जोडा ।

सच्चा साहित्यकार वही हो सकता है जो मानव-मूल्यों की स्थापना करता है। बदलती हुई जीवन-परिस्थितियों के साथ-साथ मानव-मूल्यों, आदर्शों, प्रतिमानों, संकल्पों आदि में परिवर्तन दृष्टिगोचर है। नये साहित्यकारों की नयी पीढी नयी मानसिकता को लेकर चलती है। नया व्यक्ति खोज रहा है। नये व्यक्तित्व में जो मूल्य हैं, वे मूल्य ही व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के विकास में सहायक होते हैं। वास्तव में मूल्यों का समाज में महत्व है, तभी तो समाज इनके अस्तित्व को स्वीकारता है।

'मूल्यविहीन' समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मूल्य मानव जीवन को स्थायी नहीं बनता है। बल्कि उसे अनेक अन्य महत्वपूर्ण उपादानों से उत्कृष्ट भी करता है। जीवन-मूल्य हमारे जीवन का आन्तरिक धर्म है। जिसकी उपलब्धि हेतु, हम जीवन भर सतत कोशिश करते रहेंगे। इसी उदात्त आशय को व्यक्त करने के लिए साहित्यकार अपना योगदान प्रकट करता रहता है।

- डॉ. ए. इंदिरा देवी

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