विष्णु प्रभाकर : साहित्य का आज़ाद मसीहा

Dr. Mulla Adam Ali
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Vishnu Prabhakar

स्वावलंबी सृजक विष्णु प्रभाकर

स्वावलंबी सृजक विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर : साहित्य का आज़ाद मसीहा

भारतीय लेखकों में यदि मुझे एक ऐसे लेखक का सगर्व चयन करना हो जो प्रतिकूल स्थितयों में किसी के सामने झुका न हो, जो अवसरानुसार समझौता करने वाला न हो, जिसने पैसे के लिए माँग की चीजें न लिखीं हों, जो एकदम सरल, निराभिमानी एवं अंतर्मुखी प्रवृत्ति का हो, जो बुझते मन को ऊष्मा देने वाला हो और जिसका एकमात्र शौक लेखन एवं भ्रमण हो तो मैं निश्चित रूप से विष्णु प्रभाकर का नाम उच्चारित करूँगा । कारण यह कि मुझे उनके सान्निध्य में रहने और उनके साथ मोहन सिंह प्लेस, कनॉट सर्किस, नई दिल्ली के कॉफी हाउस में घंटों बातचीत करने के अवसर मिलते रहे। उनके साथ साहित्यिक चर्चा का यह दौर 1982 से लेकर 1990 तक फैला हुआ है और इसमें यदि मई, 1998 से जून, 2000 तक का समय और जोड़ दिया जाए तो कहना होगा कि मैं लगभग 11 वर्षों तक निरंतर विष्णुजी का स्नेह पात्र बना रहा। इस अवधि के दौरान एक बैंक अधिकारी के रूप में मेरी तैनाती दिल्ली में ही थी।

विष्णुजी की दिन चर्याओं में प्रत्येक शनिवार को मोहन सिंह प्लेस के कॉफी हाउस से जाना भी शामिल था। सांय 5.00 बजे के आसपास वे सीढियाँ चढकर ऊपर कॉफी हाउस में खुली जगह में एक मेज और कुर्सी लेकर बैठ जाते थे। शाम ढलती जाती और मेज के चारों ओर बैठने वाले साहित्यकारों, शोधार्थियों प्राध्यापकों एवं अन्य परिचतों की संख्या भी बढती जाती। कभी बहस प्रचंड भी हो जाती। लेकिन विष्णुजी बड़े संयम, सरल, स्पष्ट विश्वासनीय एवं स्वाभाविक संप्रेषण का प्रदर्शन करते। उनकी अनुशासित मुस्कराहट एवं हँसी अर्थों की श्रृंखला बनती जाती। वे भरे-पूरे होने पर भी कभी न तो छलकते ओर न ही अतिप्रवाही होते ।

मई, 1998 में विष्णुजी गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी, अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेने आए थे। उन दिनों मेंरी पोसटिंग अहमदाबाद में थी। मिलने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। जहाँ ठहरे थे, वहीं चला गया। पहुँचा तो वही स्नेह, वही आत्मीयता और अपनापन। स्वतंत्र रूप से बातचीत करने का यह मौका साहित्यिक विचार-विमर्श में परिणत हो गया। उनके उपन्यासों, कहानियों, नाटकों, एकांकियों एवं 'आवारा मसीहा' पर गहन चर्चा हुई।

'अर्धनारीश्वर' पर प्राप्त साहित्य अकादमी पुरस्कार से उन्हें खुशी हुई। लेकिन 'आवारा मसीहा' के पुरस्कृत न होने पर उन्हें दुःख अवश्य हुआ। इसे पूरा करने में 14 वर्ष लगे थे। संभवतः निर्णायकों के अनुसार यह सृजनात्मक कार्य नहीं था। एक लंबी साँस लेकर कहने लगे कि दुःख इस बात का है कि लोग उन्हें एकांकीकार एवं जीवनीकार या संस्मरण लेखक के रूप में अधिक जानते हैं और कहानीकार के रूप में उन्हें भूलते जा रहे हैं।

विष्णुजी राहों के अन्वेषी थे। प्यास लगी तो स्वयं कुआँ खोदा, यात्रा पर निकले तो स्वयं पथ सुनिश्चित किया। गुटबंदी से दूर तो भौतिक चकाचौंध से सुदूर । आर्य समाज से जुड़े अवश्य, प्रारंभिक रचनाओं पर प्रभाव भी पड़ा, लेकिन बहुत जल्दी ही आर्य समाज से मोहभंग हो गया। शरत् और गाँधीजी के मानव प्रेम का असर अंत तक रहा। उन्होंने उ‌द्घोषित किया कि परंपरा से मुक्ति कभी नहीं मिल सकती। परंपरा को समझना जरूरी है कि हम कहाँ से होकर कहाँ पहुँच रहे हैं। इसलिए वे पारसी थिएटर के वर्चस्व काल से ही रंगमंच से जुड़े रहे। उन्होंने नाट्य संस्था भी चलाई, अभिनव भी किया ओर नाटक- एकांकी भी लिखे। रेडियों नाटक को एक विधा के रूप में मान्यता दी। विष्णुजी ने प्रायः सभी विधाओं में लिखा, लेकिन वे स्वंय को मूलतः एक कहानीकार ही मानते रहे। उनके अनुसार नाटक भी मूलतः रंगमंच पर कही गई कहानी है।

उनके कथा साहित्य में यथार्थ प्रगाढतम है, कल्पना का बहुत कम सहारा लिया गया है। उन्हीं की गवाही के मुताबिक- "मेरा यथार्थ पात्रों से ही साक्षात्कार हुआ है। इनके सृजन में मैंने- कल्पना का सहारा नहीं के बराबर लिया है। 'अर्धनारीश्वर' में नायक ओर नायिक मैं ओर मेरी पत्नी ही है। 'निशिकान्त' में जिस व्यक्ति को गोली मार दी जाती है, वह मैं स्वयं हूँ। 'तट के बंधन' में अपहरण और बलात्कार की घटना मेरे एक संबंधी के साथ घटी घटना है। देश-विदेश की यात्राओं के दौरान भाँति- भाँति के लोग मिलते रहे ओर मैंने उन्हें अपनी साहित्यिक दुनिया की नागरिकता प्रदान की।" उनके उपन्यासों में परिवेश भले ही अलग-अलग है, लेकिन युगानुरूप पात्रों की मानसिकता एवं व्यवहार में कोई विशेष अंतर नहीं है। इनमें विष्णुजी के स्वयं के अनुभवों एवं अवसरों का चित्रण प्रखरतम है।

रूसी कथाकार एंटन-चेखोव की तरह उन्होंने आलोचकों और समीक्षकों की कभी परवाह नहीं की। आलोचकों में गुटवाद, मित्रवाद, मित्र भाव और जोड़-तोड़ नीति से वे भलीभाँति परिचित थे। कृति को पूर्वाग्रहयुक्त होकर पढने वाले ओर अपने सिद्धान्तों के अनुसार आलोचना करने वाले आलोचकों की उनहें परख-पहचान थी। उनका मानना था कि आलोचक में दृष्टिकोण का पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए। लेखक के बारे में भी उनकी टिप्पणी काबिलेगौर है। लेखक अगर लेखक है तो वह निंरतर विकास करता है। इसीलिए पुराने लेखकों की जीवन दृश्टि का विकास हुआ है। लेकिन फैशन की दृष्टि से लेखक में परिवर्तन के वे पक्षधर नहीं थे, क्योंकि इससे सृजनात्मकता खंडित होती है।

मानव मन के कुशल चितेरे विष्णुजी ने मनोविज्ञान को अपने नाटकों का आधार बनाया। उन्होंने अपने नाटकों के यथार्थ पात्रों के मन की जटिल ग्रंथियों का परिचय दिया तो उन्हें सुलझाने का भी प्रयास किया। उन्होंने अपने मनोवैज्ञानिक नाटकों में मनुष्यों के कृतिम आवरण को हटाकर जीवन को वास्वतिक धरातल पर लाने का अभूतपूर्व साहस दिखाया। उनके 'माँ' नाटक में बचपन में ही माँ से वियुक्त मनीषी नामक एक बालिका की करुण मनोगाथा है। 'मीना कहाँ है' का नरेश अपनी ही अनाथालय से गोद ली हुई बालिका मीना की बाल-सुलभ इच्छाओं को अपनी आर्थिक स्थिति के कारण पूरा न कर पाने से उसे मार-पीट कर इतना बेदम कर देता है कि वह उठ नहीं पाती। इस दौरान सीढियों से लुढककर उसकी मृत्यु हो जाती है। यह सदमा नरेश के लिए पीड़ादायक स्नायुरोग बन जाता है। 'दस बजे रात' नाटक में एक पात्र अपनी पत्नी का गला घोंटकर हत्या का अपराध इसलिए करता है कि वह एक ट्रेन दुर्घटना में अपंग और पराश्रित हो गई है। इसी तरह उनके 'जज का फैसला' का एक पात्र प्रकाश अपनी पत्नी विमला की हत्या अस्पताल में गला घोंट कर करता है, क्योंकि वह बहुत खूबसूरत थी और रेल दुर्घटना में उसका पैर कट गया, एक आँख जाती रही ओर मुँह कुछ टेढ़ा हो गया था। प्रकाश ओर विमला की शादी हुए कुछ दिन भी नहीं बीते थे। पत्नी की हत्या के तुरंत बाद प्रकाश को दुःख नहीं होता है, बल्कि शांति मिलती है। तभी तो वह कहता है- 'अब ठीक है, तुम्हारी वेदना खत्म हो गई, तुम्हारी सुंदरता अमर हो गई।' स्पष्ट है कि विष्णुजी के पात्र जगह-जगह अपने द्वन्द ओर कुंठा को अभिव्यक्त करते हैं। उन्होंने व्यक्ति चेतना के सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों पक्षों को केन्द्र में रखकर मनोवैज्ञानिक नाटकों की रचना की है।

एक प्रतिष्ठित कहानीकार के रूप में विष्णुजी ने 'धरती अब भी घूम रही है,' 'पुल टूटने से पहले', 'संघर्ष के बाद', 'मेरी तैंतीस कहानियाँ', 'इक्यावन कहानियाँ आदि कहानी संग्रह हिन्दी कथा जगत को प्रदान किए। 1939 में प्रकाशित उनकी पहली कहानी 'हमें गिराने वाले' में चित्रित मजदूर व्यथा-वेदना ने एक बड़े पाठक वर्ग का ध्यान आकृष्ट किया। 1955 में कहानी का एक विशेषांक निकला था, जिसमें विष्णुजी की 'धरती अब भी घूम रही है' कहानी छपी थी। परिवेश, कथा एवं अभिव्यक्ति की दृष्टि से यह श्रेष्ठ कहानी थी। लेकिन एक पूर्वाग्रहयुक्त दृष्टि के आलोचक की आलोचना का इसे शिकार होना पड़ा। विष्णुजी ने इसका उल्लेख अन्यत्र किया भी है। उनकी 1959 में लिखी 'मारिया' में एक भारतीय अतिथि विदेशी महिला के मुक्त व्यवहार को प्रेम व्यापार का आमंत्रण समझकर प्रोत्साहित होने लगता है। लेकिन महिला जल्दी ही समझ जाती है ओर भारतीय बुद्धिजीवी को सबक सिखा देती है- 'मुक्त व्यवहार वासनाके कारण नहीं, वासना के अभाव के कारण हो पता है।' इसी क्रम में 'आश्रिता' कहानी की सोना अजीत मास्टर से प्यार करती है, लेकिन इस प्यार में सम्मान की भावना अधिक है। वह उस प्यार को शरीर से परे रखने के लिए अजीत से दूर चली जाती है- 'मास्टर साहब, जिसके आश्रय के नीचे आकर मैंने अनाथ की भाँति लाड़-दुलार पाया, जिसकी ओर देखकर मैं ने हृदय की ममता को उमड़ते देखा, उसी के ओह उसी के सामने आवरण कैसे हटाती ? जाहिर है कि ये कहानियाँ एक सरलीकृत अन्दाज में जीवन के यथार्थ को अनदेखा करती हुई निष्ठा, विश्वास और सम्मान की भावनाओं को तरजीह देती हैं।'

विष्णुजी की 'अद्वैत' और 'आस्था का द्वन्द्व' कहानियों में द्वन्द्वात्मक भावात्मकता है तो 'सलीब' एवं भोगा हुआ यथार्थ में आदर्शवादी दृष्टिकोण है। 'रहमान का बेटा', 'अधूरी कहानी', 'तांगेवाला' 'मेरा बेटा' 'मैं जिंदा रहूँगा' और मेरा वतन आदि कहानियाँ में साम्प्रदायिक सद्भाव संप्रेषित है। उल्लेखनीय है कि विष्णुजी ने तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। कथ्य, शिल्प, शैली एवं अभिव्यक्ति में निरंतर विकास एवं निखार होता गया। उनके यहाँ आदर्शवाद, यथार्थवाद, द्वन्द्वात्मकता, भावात्मकता, मनोविज्ञान, अस्तित्ववाद, गाँधी दर्शन सब कुछ मिलेगा।

रचनाकार जिस समय में और जिन परिस्थितियों में जी रहा होता है, वह समय एवं परिस्थितियाँ किसी न किसी रूप में उसकी रचना में प्रतिबिंबित होती हैं। स्वतंत्रता से पूर्व लिखी गई विष्णुजी की कहानियाँ में स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत चरित्रों की प्रधानता है, आर्य समाज का वैचारिक प्रभाव है और पराधीन भारत की सामाजिक स्थितियों का चित्रण है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद की उनकी कहानियों में समकालीन स्थितियों और व्यक्ति की परिवर्तित मानसिकता का चित्रण मिलता है। उनके सोचने का ढंग और चीजों को देखने-परखने का ढंग समयानुकूल रहा । आज विष्णु प्रभाकर हमारे साथ नहीं हैं, लेकिन उनकी रचनाएँ पास तो हैं। लेखक ढहता नहीं है, अदृश्य होता है। लेखक की आयु से उसकी कृतियों की उम्र लंबी होती है। वह अपनी कृतियों में जिंदा रहता है, विचार-विमर्श करता है, मार्गदर्शन देता है और वफादार मित्र की भूमिका निभाता है। मानवीय प्रशंसा और निंदा, आशा और उपेक्षा, सराहना और आलोचना, अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं को सहता तथा अनुभव करता हुआ यह स्वतंत्र मसीहा सृजनात्मकता के ऐसे द्वारा खोल गया, जो कभी बंद नहीं होंगे।

- अमरसिंह वधान

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