हिन्दी उपन्यासों में व्यक्तिपरक मनोवैज्ञानिक स्वरूप के कारण एवं पारिवारिक विघटन

Dr. Mulla Adam Ali
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Reasons for individual psychological nature and family disintegration in Hindi novels: special reference to Gaban and Tyagpatra.

Hindi Novels Gaban and Tyagpatra

Hindi Novels Gaban and Tyagpatra

हिन्दी उपन्यास गबन और त्यागपत्र

हिन्दी उपन्यासों में व्यक्तिपरक मनोवैज्ञानिक स्वरूप के कारण एवं पारिवारिक विघटन : गबन और त्यागपत्र के विशेष संदर्भ में

मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखित 'गबन' एक मध्यवर्गीय परिवार का कथानक है जो झूठे प्रतिष्ठा के प्रतिमानों और नारी आभूषण के कारण विघटन के कगार पर पहुँच जाता है। नायक रमानाथ के लिए विवाह आत्माओं का मिलन नहीं है। वह पत्नी को जीवन संग्राम में संगिनी के रूप में भी नहीं ले पाता। इसलिए उसके आगे भी वह किसी न किसी प्रकार से अपनी झूठी शान बनाये रखना चाहता है। उधर नायिका जालपा का बचपन अपने परिवार में आभूषणों की बातें सुनते-सुनते बीता है। रमानाथ के पिता दयानाथ ने विवाह में जो गहने चढ़ाये हैं, वे उधार के हैं। दयानाथ जब आभूषणों की रकम नहीं चुका पाते तो रमानाथ से आभूषण वापस कर देने की सलाह लेते हैं। पिता दयानाथ की इच्छा है कि बहू को वास्तविक स्थिति बतलाकर आभूषण रमानाथ मांग ले परन्तु रंमानाथ पहले ही अनेक झूठ जालपा से बोल चुका है। इधर पिता के दबाव और उधर पत्नी के आगे झूठी शान के बीच फंसा रमानाथ अंत में जालपा से जेवर माँगने के बजाय उनको चुराकर अपने पिता को दे देता है।

जेवरों की चोरी से जालपा प्रसन्न नहीं रहती। रमानाथ जालपा को प्रसन्न रखने के लिए अभी भी उससे अपनी वास्तविक स्थिति छुपाता है। नौकरी लगने पर तीस रुपये की जगह चालीस रुपये बताता है कर्ज लेकर जालपा के आभूषण बनवाता है, आर्थिक कमी के कारण सरकारी पैसे का गबन करके भाग खड़ा होता है। जालपा अपने पति धर्म निभाकर आभूषण बेचकर गबन का पैसा भरती है। रमानाथ जो कि सरकारी मुखबर बन गया है। जालपा उसे ढूढ़कर उसमें नैतिक बल भर कर वापस अपने परिवार में लाने पर सफल हो जाती है।

जालपा की सखी रतन इन्द्रभूषण वकील की पत्नी है। वकील साहब की मृत्यु के बाद उनके बड़े भाई का लड़का मणिराम वारिस बन जाता है और रतन के पास कुछ नहीं रह पाता। रतन कहती भी है कि बहनों सम्मिलित परिवार में विवाह मत करो जब तक तुम्हारा अपना घर न हो। रतन का यह कथन संयुक्त परिवार में विधवा की दयनीय स्थिति को बेलाग शब्दों में स्पष्ट कर देता है।

'गबन' की कथा का बीज गहनों की सार्थकता और आभूषण प्रिय होने की हानि है। इसे गहने की ट्रेजडी भी कहा जा सकता है। कतिपय कथाकारों ने इस तथ्य पर अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं। डॉ. रामदरश मिश्र भी जालपा के बचपन के गहनों की आशक्ति को स्वीकार करते हैं परन्तु बाद की स्थितियों के लिए सहानुभूति दशति हैं- "जालपा तभी तक हार के लिए जिद करती है जब तक जानती है कि उसका पति पैसे वाला है। जब उसे वास्तविकता का बोध होता है तो वह सारे गहने बेचकर पति की इज्जत बचाती है।''¹ डॉ. रामविलास शर्मा के शब्दों में- "जब उसकी माँ उसे अपने चन्द्रहार भेजती है, तो यह सोचकर कि उन्होंने बड़े संकट में भेजा होगा, वह उसे वापस कर देती है। जालपा यहाँ यह जता देती है कि उसके गहनों के प्रेम की सीमा है और वह किसी भी कीमत पर गहने लेने को तैयार न हो पायेगी। उसका यही आत्मसम्मान उसका सबसे बड़ा रक्षक साबित होता है, जबकि रमानाथ में इसी का अभाव उसके दुःख और कठिनाइयों का सबसे बड़ा कारण बन जाता है।"² वस्तुतः यह केवल आभूषण प्रेम से उठने वाली समस्या नहीं है। परिवार ऐसा वृत्त है, जिसमें अन्य सम्बन्धों की तुलना में पति-पत्नी का सम्बन्ध अधिक अन्तरंग, अनौपचारिक और महत्वपूर्ण है। पति-पत्नी के सहयोग पर ही परिवार आधारित है। एक-दूसरे से छिपाव-दुराव पारिवारिक जीवन को विषाक्त ही करता है। यहां रमानाथ और उसके पिता दयानाथ के दृष्टिकोण का अंतर भी उल्लेखनीय है। दयानाथ बहू से परदा रखने की जरूरत नहीं समझते और "परदा रह ही कै दिन सकता है ? आज नहीं तो कल उसे सारा हाल मालूम हो जायेगा।"³ और यह सही है कि यदि जालपा को रमानाथ वास्तविक स्थिति समझा देता, तो वह आभूषण लेना पसन्द ही नहीं करती। वह भी रमानाथ के इस तरह छुपाने से क्षुब्ध होकर कहती है- "यह मुझसे इतना परदा क्यों करते हैं ? क्यों मुझसे बढ़ चढ़कर बातें करते थे। क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि संसार में अमीर-गरीब दोनों ही होते हैं? क्या सभी स्त्रियाँ गहनों से लदी रहती हैं ? गहने न पहनना क्या कोई पाप है ? जब और जरुरी कामों से रुपये बढ़ जाते हैं तब गहने भी बन जाते हैं। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते ? क्या उन्होंने मुझे ऐसी गयी-गुजरी समझ लिया।"⁴ रमानाथ के सरकारी मुखबिर बन जाने पर जालपा ही उसमें नैतिक बल भरने में सफल होती है। जालपा वापस परिवार को सम्भालने में सफल होती है। जालपा के इस नये रुप को उभार कर प्रेमचंद ने परिवार में नारी की मुख्य भूमिका को रेखांकित किया है।

सेवासदन से गबन तक की यात्रा में प्रेमचंद को संयुक्त परिवार के कतिपय दोष दिखाई देने लगे थे। जालपा की सखी रतन इन्द्र भूषण वकील की पत्नी है। वकील साहब की मृत्यु के बाद उनके बड़े भाई का लड़का मणिराम वारिस बन जाता है और रतन के पास कुछ नहीं रह पाता। रतन का कहना है- "अगर मेरी जबान में इतनी ताकत होती कि सारे देश में उसकी आवाज पहुंचती तो मैं सब स्त्रियों से कहती, बहनों, किसी सम्मिलित परिवार में विवाह मत करना और अगर करना, तो जब तक अपना घर अलग न बना लो, चैन की नींद मतत सोना। यह मत समझो कि तुम्हारे पति के पीछे उस घर में तुम्हारा मान के साथ पालन होगा। अगर तुम्हारे पुरुष ने कोई लड़का नहीं छोड़ा, तो तुम अकेली रहो, चाहे परिवार में, एक ही बात है। तुम अपमान और मजूरी से नहीं बच सकतीं। अगर तुम्हारे पुरुष ने कुछ जोड़ा है तो अकेली रहकर भोग सकती हो, परिवार में रहकर तुम्हें उससे हाथ धोना पड़ेगा। परिवार तुम्हारे लिए फूलों की सेज नहीं, कांटों की शैय्या है। तुम्हारी पार लगाने वाली नौका नहीं, तुम्हें निगल जाने वाला जंतु है।"⁵ रतन का यह कथन संयुक्त परिवार में विधवा की दयनीय स्थिति को बेलाग शब्दों में स्पष्ट कर देता है। फिर भी लोग परिवार रूपी संस्था से लगाव रखते हैं शायद यह प्रेमचंद की अपनी व्यक्तिगत पीड़ा भी हो सकती है।

परिवार के इस बिखराव एवं विघटन में प्रेमचंद कितनी भी समस्याओं को नजर अन्दाज करते चलते हैं और अन्त में पति-पत्नी के असन्तोष या भीतरी व्यभिचार को भी दबाते चलते हैं इसका मुख्य कारण परिवार का अस्तित्व है, और यही अस्तित्व उसे समाज में महत्वपूर्ण स्थान दिलाता है। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार "पुराने आदर्शवाद का प्रेमचंद पर इतना प्रभाव था कि विवाह-बंधन तोड़ने की अनुमति वह न दे सकते थे। उनकी रचनाओं में दाम्पत्य जीवन के घोर असन्तोष के चित्रण मिलते हैं, परन्तु उन्हें सुलझाने के लिए उन्होंने त्योग, धैर्य और समाई का ही उपदेश दिया है। इसका कारण यह है कि उनका सुधारवाद परिवार को अपना केन्द्र बनाए है, बिना परिवार के समाज की शायद वह कल्पना भी नहीं कर सकते थे।"⁶ गबन में पुरानी परम्पराओं एवं झूठे प्रतिष्ठा के प्रतिमानों पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया है।

त्यागपत्र

जैनेन्द्र का अत्यधिक प्रशंसित उपन्यास 'त्यागपत्र' (1937) कथा नायिका मृणाल के विवाह पूर्व, विवाह पश्चात और विवाहेत्तर जीवन की धुरी पर घूमता है। मृणाल आत्मपीड़न को झेलने वाली नायिका है। वह एक सभ्रान्त परिवार की लड़की है। पिता-माता बचपन में ही मर चुके हैं, बड़ा भाई अभिभावक है उसे परिवार से प्यार मिलता है, वह तितली की तरह उड़ती फिरती है, नटखट है, स्कूल में ऊधम मचाती है किन्तु शीला के भाई (मृणाल की सहेली) के साथ उसके प्रेम सम्बन्ध ने उसकी हंसी छीन ली। भाभी ने उसे बेंत से पीटा। तब से मृणाल हंसी नहीं। कुछ दिन बाद मृणाल की शादी एक अधेड़ से कर दी जाती है। अधेड़ व्यक्ति ने शीला के भाई के साथ उसके प्रेम सम्बन्ध की चर्चा मृणाल के मुंह से सुनकर उसे घर से निकाल दिया। पति-गृह से निकलने के बाद मृणाल को आश्रय देता है एक कोयले वाला। यह जानते हुए भी कि एक सीमा के बाद कोयले वाला भी धोखा देगा, मृणाल उसे समर्पण कर देती है।

अब तक मृणाल मा भतीजा प्रमोद तरुण हो चला है। इंटर पास करके वह थर्ड ईयर में आ गया है। उसने बुआ मृणाल को ढूँढ़ निकाला है। तब बुआ कोयले वाले के साथ रह रही थी। वस्तुतः कोयले वाले के साथ बुआ. को देखकर प्रमोद का आभिजात्य आहत हुआ है और अभिजात्य से ही मृणाल को चिढ़ है। वह प्रमोद की सहायता जरूर लेना चाहती है, पर उसे आभिजात्य को हराकर।

पूरे बीस वर्षों तक मृणाल अपनी पूरी क्षमता से जीवन- संघर्ष से जूझती है। इस बीच प्रमोद का विवाह हो जाता है और वह जज बन जाता है। वर्षों बाद जब मृणाल की गर्हित स्थान में मृत्यु होती है तो जैसे एक संघर्ष कथा समाप्त हो जाती है। प्रमोद को तो बुआ (मृणाल) की मृत्यु का समाचार पूरी तरह झकझोर डालता है। वह जजी से त्यागपत्र देकर संसार से विरक्त हो जाता है।

मृणाल को भाई और भाभी का पूरा प्यार मिलता है। मृणाल का भतीजा जज दयाल एक जगह कहता है- "पिताजी उनको बड़ा स्नेह करते थे। उनकी सभी इच्छायें वह पूरी करते पिता का स्नेह बिगाड़ न दे, इस बात का मेरी माता को खास ख्याल रहता था। वह अपने अनुशासन में सावधान थी। मेरी बुआ को प्रेम करती थीं, यह तो किसी हालत में नहीं कहा जा सकता। पर आर्य गृहणी का जो उनके मन में आदर्श था, मेरी बुआ को ठीक उसी के अनुरूप ढालना चाहती थीं''⁷ और इसलिए शीला के भाई से प्रेम करने के कारण मृणाल को भाभी का दण्ड मिलता है। मृणाल के विवाह पूर्व जीवन में अनुराग का केन्द्र बनता है उसका भतीजा प्रमोद जो बड़ा होकर जज बनता हैं। लेकिन यह बुआ भतीजे का सीधा सरल सम्बन्ध नहीं है। अपने अंतर में असफल प्रेमिका मृणाल प्रमोद के ऊपर किसी न किसी रूप में शीला के भाई को आरोपित करती है वह तो प्रमोद की बुआ भी नहीं बनना चाहती, कहती है- "मैं नहीं बुआ होना चाहती। बुआ! छी! देख, चिड़िया कितनी ऊंची उड़ जाती है। मैं चिड़िया होना चाहती हूँ। मैंने कहा-चिड़िया ? बोली-हां चिड़िया। उसके छोटे-छोटे पंख होते हैं। पंख खोल वह आसमान में जिधर चाहे उड़ जाती है। क्यों रे कैसी मौज हैं! नन्हीं-सी-चिड़िया, नन्हीं सी पूंछ। मैं चिड़िया बनना चाहती हूँ।"⁸ और उस रात मृणाल प्रमोद को बहुत देर तक चिपकाये रही।

बड़ी होने पर मृणाल का बेमेल पति से विवाह हो जाता है, उसे इस पर कोई एतराज नहीं है। प्रेमी को वह सदा के लिए भूल गयी है। लेकिन एक भूल उससे और हुई है कि उसने अपनी विगत की कथा पति को भी सुना दी। पति उसको घर से निकाल देते हैं। मृणाल ऐसी स्थिति में स्वयं भी पति के पास नहीं रहना चाहती। उसका कहना है- "मैं स्त्री धर्म को पति धर्म ही मानती हूँ। उसको स्वतन्त्र धर्म मैं नहीं मानती। क्यों पतिव्रता को यह चाहिए कि पति उसे नहीं चाहता, तब भी वह अपना भार उस पर डाले रहे ? मुझे नहीं देखना चाहते, यह जानकर मैंने उनकी आंखों के आगे से हट जाना स्वीकार कर लिया।"⁹ पति गृह से निकलने के बाद मृणाल को आश्रय देता है एक कोयलेवाला। प्रमोद ने बुआ को ढूंढ़ निकाला है। तब बुआ कोयले वाले के साथ रह रही थीं। प्रमोद को लगा कि बुआ की आँखें हठात ऊपर उठती नहीं है। वह बुआ के लिए कुछ करना चाहता है- "उसका निज बुआ को इस सारी परिस्थिति से मुक्त करा देना चाहता है, परन्तु तभी उसके मन पर जमी समाज की परत का दबाव बढ़ता है और वह मात्र बुआ के कमरे में झाडू लगाकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेना चाहता है।"¹⁰ वस्तुतः कोयले वाले के साथ बुआ को देखकर प्रमोद का आभिजात्य आहत हुआ है। और आभिजात्य से ही तो मृणाल को चिड़ है। वह प्रमोद की सहायता जरूर लेना चाहती है पर उसके आभिजात्य को हराकर वह कहती है-"प्रमोद, सहायता की मैं भूखी नहीं हूँ क्या ? तुझसे ही वह सहायता न लूंगी ? लेकिन सहायता का हाथ देकर क्या मुझे यहाँ से उठाकर ऊँचे वर्ग में जा बिठाने की इच्छा है ? तो भाई, मुझे माफ कर दो। वैसी मेरी अभिलाषा नहीं है। सहायता मुझे इसलिए चाहिए कि मेरा मन पक्का होता रहे कि कोई मुझे कुचले, तो भी मैं कुचली न जाऊं और इतनी जीवित रहूँ कि उसे पाप के बोझ को भी ले लूँ और सबके लिए क्षमा की प्रार्थना करूँ। प्रतिष्ठा मुझे क्यों चाहिए, मुझे तो जो मिलता है उसी के भीतर सांत्वना पाने की शक्ति चाहिए।"¹¹

यह शक्ति मृणाल में है। पति को छोड़ने के बाद मृणाल जिस कोयले वाले के साथ रहती है, वह भी अपने पीछे परिवार को छोड़कर आया है। गर्भवती मृणाल इस कोयले वाले को वापस उसके परिवार में पहुँचाने पर उतारु है। उसका कहना है, "मैं उसे उसके परिवार में लौटाकर ही मानूंगीं। अब समय आया है कि उसे इस बात की अक्ल आ जाए, अब उसका मोह टूट गया है।"¹² डॉ. गिरिजाराय की टिप्पड़ी है कि "मृणाल अपने सत्य के प्रति लगाव के कारण स्वयं से, समाज से और इस दुनिया से अजनबी हो जाती है।"¹³ पूरे बीस वर्षों तक मृणाल अपनी पूरी क्षमता से जीवन संघर्ष से जूझती रहती है इस बीच प्रमोद का विवाह हो जाता है और वह जज बन जाता है। वर्षों बाद जब वह मृणाल की मृत्यु होती है तो जैसे एक संघर्ष-कथा समाप्त हो जाती है। प्रमोद को तो बुआ की मृत्यु का समाचार पूरी तरह झकझोर डालता है। वह जजी से त्यागपत्र देकर संसार से विरक्त हो जाता है।

त्यागपत्र की मृणाल वस्तुतः एक प्रतीक है नारी के सामाजिक उत्पीड़न और उसकी आंतरिक सहनशक्ति का। मृणाल का अहम समाज की परिपाटियों को अस्वीकार कर उन्हें नयी परिभाषा देता है और इस क्रांति का मूल्य निज के बलिदान से चुकाता है। मृणाल सहज समाज की उच्छिष्ट बन गयी है। मृणाल की कथा के माध्यम से जैनेन्द्र ने अवश्य ही (स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को) 'त्यागपत्र' के पारिवारिक जीवन सन्दर्भों को प्रभावित किया है। सम्पूर्ण पारिवारिक जीवन के वृत्त को जैसे जैनेन्द्र कहीं छूते नहीं हैं। उनकी दृष्टि सिर्फ दाम्पत्य सम्बन्धों पर केन्द्रित रहती है, वह भी इन सम्बन्धों से जुड़ी रसमयता, सहजता और कृत्रिमता के संधान के लिए। उपन्यासकार की दृष्टि सीमा ने भारतीय पारिवारिक जीवन की विविधता, व्यापकता और सार्थकता के अनेक पक्षों को जैसे अनचीन्हा छोड़ दिया है। जैनेन्द्र के 'त्यागपत्र' को पढ़कर ऐसा प्रतीत ही नहीं होता की भारत आज भी संयुक्त परिवारों के बदलते स्वरुपों का देश है। जैनेन्द्र के इस सीमित परिप्रेक्ष्य ने उनके पात्रों के व्यक्तित्व को भी सीमित कर दिया। वे भाई बहिन पिता-पुत्र-पुत्री कभी नहीं होते। उनके बीच एक ही सम्बन्ध है, प्रेम के त्रिकोण का, जिसे जैनेन्द्र कोणों और भुजाओं में थोड़ा-बहुत परिवर्तन कर बार-बार दोहराते जाते हैं।

मृणाल हिन्दी उपन्यास की सर्वाधि चर्चित पात्र है मृणाल के चारित्रिक उदात्त पर प्रकाश डालते हुए डॉ. गिरिजाराय लिखती हैं- "इस उपन्यास में दो भिन्न संसारों का सजीव चित्रण है। प्रमोद के संसार के सारे आदर्श, मूल्य, प्रतिमान स्थिर हैं जबकि मृणाल अपने ढंग से जीवन जीने का प्रयास करती है और इसी प्रयास में टूट जाती है। किन्तु वह हार नहीं मानती।"¹⁴ मृणाल के चरित्र के बारे में कतिपय आलोचकों का दृष्टिकोण इस प्रकार है-नन्ददुलारे वाजपेई के अनुसार "पूरे उपन्यास में मृणाल का चरित्र अपने असाधारण संकटों के कारण पाठक की दृष्टि को आकर्षित करता है मृणाल के चरित्र में उस प्रकार का हल्कापन कहीं नहीं है, जिस प्रकार का हल्कापन जैनेन्द्र के अन्य कतिपय नारी पात्रों में मिलता है। जैनेन्द्र के अन्य नारी पात्रों में पति की उपेक्षा करके पर-पुरुष के प्रति जो एक प्रच्छन्न आकर्षण मिलता है, वह भी इस उपन्यास की नायिका मृणाल में व्यक्त नहीं है जैनेन्द्र ने बड़े कौशल के साथ उसे एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे पुरुष के साथ सम्बन्धित किया है। पर यहां वेदना के आधिक्य के कारण पाठक की संवेदना मृणाल को ही मिलती है।"¹⁵ डॉ. नगेन्द्र के अनुसार- "मृणाल में असाधारणता है। जीवन में सदा नकार पाते रहकर भी उसका मन अतिशय संवेदनाशील हो गया है।"¹⁶ पदम लाल पुन्नालाल बख्शी के शब्दों में- "जैनेन्द्र की मृणाल सहेली बन गई, क्योंकि उन्होंने उसके अन्तर्जगत के भाव सौन्दर्य को परिस्फुट नहीं किया है। प्रेम की वह गरिमा थी, जिससे उसने कलंक, निंदा और दुःख तीनों को चुपचाप सह लिया।"¹⁷ डॉ. शिवनारायण श्रीवास्तव के अनुसार-"अपने चारों ओर के पाप पंकिल वातावरण से असम्पृक्त अपनी हीनतम स्थिति में भी महामान्वित हो उठी है।"¹⁸ डॉ. अतुलवीर अरोरा की दृष्टि में- "यह उपन्यास अपनी प्रभावान्विति में एक नारी की पीड़ा-गाथा बन सका है।¹⁹

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची;

  1. हिन्दी उपन्यास : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. रामदरश मिश्र, पृ. 52
  2. प्रेमचंद और उनका युग-डॉ. रामविलास शर्मा, पृ. 64
  3. गबन, पृ. 17
  4. गबन, पृ. 141
  5. गबन, पृ. 270
  6. प्रेमचंद : आलोचनात्मक परिचय- डॉ. रामविलास शर्मा, पृ. 124
  7. त्यागपत्र, पृ. 10
  8. त्यागपत्र, पृ. 13-14
  9. त्यागपत्र, पृ. 54
  10. त्यागपत्र, पृ. 61
  11. त्यागपत्र, पृ. 63
  12. त्यागपत्र, पृ. 58
  13. साहित्य का नया शास्त्र-डॉ. गिरिजा राय, पृ. 259
  14. साहित्य का नया शास्त्र-डॉ. गिरिजा राय, पृ. 257
  15. नया साहित्य : नये प्रश्न-नन्द दुलारे वाजपेई, पृ. 196
  16. विचार और अनुभूति-डॉ. नगेन्द्र, पृ. 133
  17. हिन्दी कथा-साहित्य-डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, पृ. 101
  18. हिन्दी उपन्यास-डॉ. शिव नारायण श्रीवास्तव, पृ. 215
  19. आधुनिकता के सन्दर्भ में आज का हिन्दी उपन्यास - डॉ. अतुलबीर अरोरा, पृ. 87

- वीरेन्द्र सिंह यादव

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