सूर का वात्सल्य भाव एवं मातृ हृदय

Dr. Mulla Adam Ali
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सूरदास का वात्सल्य भाव

Surdas Ka Vatsalya Bhav

सूरदास के काव्य में वात्सल्य वर्णन का निरूपण

सूर का वात्सल्य भाव एवं मातृ हृदय

सूरदास अष्टछाप के ही नहीं ब्रजभाषा के कवियों में सर्वोत्तम कवि हैं। उनका अंधत्व जैसे विषय विवादित हैं। पर उनकी रचनाओं में मनुष्य के भाव एवं चेष्ठाओं का सहज चित्रण अध्ययन करते समय आश्चर्य होने लगता है कि "सूरदास ने बिना अपनी आँखों से देखे यह कल्पना के बल पर कैसे लिखा होगा।"

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार "सूर का साहित्य कभी जन्मन्ध व्यक्ति का लिखा हुआ साहित्य नहीं हो सकता।"

सूर का काव्य बालकृष्ण की चेष्टाओं एवं यशोदा माता के वात्सल्य भावना से परिपूर्ण होकर हिन्दी साहित्य को अमूल्य निधि प्रस्तुत की है।

सूर ने वात्सल्य भाव से संबंन्धित पाँच सौ पदों की रचना की है। डॉ. श्रीनिवास शर्मा ने इन पदों का प्रसंगों के अनुसार विभाजन निम्न प्रकार प्रस्तुत किये हैं।

संदर्भ पदों की संख्या

1. पुत्र जन्मोत्सव, आनंदोल्लास (44)

2. विभिन्न संस्कारों के अवसर पर (10)

3. बाल छवि वर्णन (35)

4. बाल स्वभाव चित्रण (49)

5. उलाहना (उलाहने) (82)

6. मातृहृदय(195)

7. वियोग वात्सल्य (89)

कुल संख्या (500)

श्रीकृष्ण के जन्म लेते ही उसे परित्याग करते हुए देवकी का वात्सल्य

खडग धेरै आवै, तुव देखत आपनै कर छिन माहै पचारै

श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव में यशोदा और नंद वात्सल्य के आश्रय बन जाते हैं. यशोदा नंद को संबोदन करती है

जागी महरि, पुत्र मुख देख्यौ, पुलकि अंग उर में न समाई।

गद-गद कंठ बोल नहिं आवै हरषवत है नंद बुलाई।

पालने पर आने के साथ ही सूर ने वात्सल्य की दो धाराएँ प्रस्तुत की है। एक लोकोपकारक के रूप में दुष्ट शक्तियों का नाश। दूसरी माता यशोदा की वात्स्लय बावना का आलंबन करके बाल लीलाएँ ।

पूतना और बकासुर बाल कृष्ण का अंत करने आकर स्वयं मर जाते हैं। पर यशोदा का वात्सल्य इस अलौकिक घटना से विचलित नहीं हुआ। उनका स्वर वही चिर परिचित मातृ स्वर है। बालकृष्ण के नामकरण के समय पंडित 'गर्ग' उनका ज्योतिष्य तथा अलौकिकता का कथन सुनाने पर भी उन पर ध्यान नहीं देते हुए अपने पुत्र को वात्सल्य, ममता ही दी।

माता-शिशु से संबंधित कोई भी बात सूर से छूटी नहीं है। यशोदा बालकृष्ण को लिटाकर अपने गृहकार्यों में संलग्न हो गई. इतने में बाल-कृष्ण उलट गया। यह दृश्य देखते ही नंद, यशोदा को बुलाया। यशोदा कृष्ण की इस मुद्रा से आनन्दित होकर कहती है -

महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी।

चिरजीवौ मेरौ लाडिलौ मैं भई सभागी ॥

बालकृष्ण के चलने की क्रिया आरंभ होते ही उसका श्याम रंग बंपरंजित होकर अधिक कान्तिमान होता है। कमर की करधनी और पैरों में नूपुरों की झंकार से यशोदा का घर झकृत हो जाता है। मानो यशोदा की सारी अज्ञात अभिलाषाएँ एक लता की भाँति फल, फूल रही है। नव सिकिसलियों से यह सुसज्जित होती जाती है। मक्खन कृष्ण के मुख से लिपटा हुआ है और कुछ हाथ में है। यहाँ भाव के साथ-साथ कलात्मकता का परिचय मिलता है। -

शोभित कर नवनीत लिए।

घुटुरनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए।

चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए

तट लटकनि मनु मत्त मदुप गन मादक मदहि पिए।

पहले क्रीडा अपने भाई बलराम के साथ करता था। परन्तु अब अन्य बालकों के साथ बाहर खेलते हुए मिट्टी भी खाने लगा। एक दिन अपने माँ के हाथों पकडा गया। माँ ने लडकी (साँटी) तो हाथ में ली और धमकाने लगी।

इक कर सौ भुज गाहि गर्दै करि इक कर लीन्हीं साँटी।

मारति हो तोहि अबहि कन्हैया, बेगिन उगलै माटि ॥

यशोदा को कृष्ण की माखन चोरी पर विश्वास होने का पता चलते ही बालकृष्ण शिशु होकर अपनी बात कहता है। उसे सुनकर माता यशोदा का हृदय पिघल जाता है और उनके सारे अपराध हवा हो जाते हैं। वह चित्र इस प्रकार है।

मैया मैं नहीं माखन खायो

ख्याल परै ये सखा सवै मिलि मेरै मुख लपटायौ।

यशोदा के असीम स्नेह से भरपूर अनंत अभिलाषाएँ बालकृष्ण से संबन्धित उत्सुकताएँ सूरदास और बालकृष्ण को मा-शिशु के स्वाभाविक रूप में परिवर्तित कर देती है। जिन पर देश काल और स्थान का प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।

डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार "सूरदास बाल लीला वर्णन खींचने में अपनी सानी नहीं रखते।"

- कविराजु

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