स्वातंत्र्योत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन और डॉ. विवेकी राय

Dr. Mulla Adam Ali
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Swatantrottar Gram Jeevan Dr. Viveki Rai

Swatantrottar Hindi Katha Sahitya Aur Gram Jeevan

हिन्दी साहित्य में वर्णित ग्राम जीवन

स्वातंत्र्योत्तर ग्राम जीवन और डॉ. विवेकी राय

पितृत्व के सहज स्नेह की छाया से वंचित, 19 नवंबर, 1924 को ननिहाल (भरौली, जिला-बलिया) में माँ श्रीमती जबिता देवी की कोख से जन्मे हिंदी साहित्य के धुरीण हस्ताक्षर, कुशल शिल्पी व यशस्वी कथाकार डॉ. विवेकी राय का बाल्यकाल मामा श्री बसाऊ राय की देख-रेख में बीता था। पैदा होने के डेढ़ माह पूर्व ही पिता श्री शिवपाल राय की प्लेग की महामारी में मृत्यु हो चुकी थी। इस प्रकार माता के गर्भ में से ही हतभाग्य कथाकार आजीवन अभाव व संघर्ष की भट्ठी में तपता रहा। किंतु किसी विद्वान ने लिखा है कि प्रतिभा रूपी नदी हमेशा अभाव और श्रम रूपी तटों के बीच से ही निकलकर बहती है। इस प्रकार अदृश्य का संकेत पा इस बालक के मन में भी विद्याध्ययन व साहित्य की अभिरूचि जगी। फिर क्या, स्वाध्याय के बल पर उन्होंने तमाम उच्च डिग्रियाँ व पद हासिल किए। किंतु ऊँचा उठने के बावजूद वे गाँव की मिट्टी से सदेव जुड़े रहे। जिससे उनकी रचनाओं में गॅवई रीति-रिवाज, संस्कार, पर्व-त्यौहार, अच्छाई-बुराई, नृत्य-गीत, खान-पान, वेशभूषा आदि का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चित्रण हुआ है। साथ ही शिक्षा, सड़क, स्कूल, बिजली, अस्पताल आदि की दुर्दशा का यथार्थ एवं विशद चित्रण हुआ है। गाँव पर इस कथाकार ने जिस मात्रा में अपनी लेखनी का अप्रतिम योगदान दिया है उतनी मात्रा में किसी अन्य साहित्यकार में नहीं दिखायी देता। इस संदर्भ में प्रख्यात समीक्षक डॉ. वेद प्रकाश अमिताभ का मत है कि, "विवेकी राय के उपन्यासों के रसास्वादन के लिए पाठक में एक विशेष प्रकार के संस्कार की आवश्यकता है। जिनको ग्रामीण जीवन से अरुचि है, ग्रामीण शब्दावली से अपरिचय है, ग्रामीण प्रकृति और परंपराएँ जिनके लिए किंवदंतियाँ मात्र हैं वे विवेकी राय के उपन्यासों के मर्म तक नहीं पहुँच सकते।"¹

गाँव की अथाह पीड़ा के इस गायक की समस्त औपन्यासिक कृतियों 'बबूल', 'पुरुष पुराण', 'लोकऋण', 'श्वेत पत्र', 'सोनामाटी', 'समर शेष है', 'मंगल भवन', 'नमामि ग्रामम्', 'अमंगलहारी' व 'देहरी के पारं' में चित्रित गाँवों से लेखक का सीधे- सीधे जुड़ाव व लगाव रहा है, जिससे उनका लेखन सतही न होकर अत्यंत प्रामाणिक, सजीव व यथार्थ के धरातल पर आस्वाद्य है। चूँकि वे गवई जीवन के भोक्ता, स्रष्टा व द्रष्टा रहे हैं इसलिए उनके उपन्यास इस जीवन के सहज साक्षी हैं। गाँव के ऊपर लेखनी चलाने वालों के साथ प्रायः यह त्रासदी रही है कि अपने लेखन के आरंभिक दौर में भले ही वे गाँवों से जुड़े रहे हों किंतु प्रौढ़ावस्था आते-आते उनका संपर्क प्रायः अपने गाँवों से टूट गया रहता है। इस स्थिति में वे ग्रामीण अंचलों से दूर किसी बड़े शहर या महानगर में बैठकर अपने पुराने संस्कारों व स्मृतियों के सहारे मानस-पटल को खंगालते हुए गाँवों की यथार्थ गाथा गाने का असफल प्रयास करते है किंतु ग्रामीण जीवन से कटे होने की वजह से वे चाह कर भी वैसा नहीं कर पाते जैसा विवेकी राय ने अपने साहित्य में किया है। कारण, उम्र के 81 वें पड़ाव को पार करने के बाद भी उनका संपर्क नित्य गाँवों से बना रहा है। उम्र की ढलान में एक गाँवनुमा छोटे से शहर (गाजीपुर) में आने के बाद, पी.जी. कालेज गाजीपुर में अध्यापन कार्य करते हुए, भी वे सीधे-सीधे अपने गाँव, गवई जीवन व गाँव की खेती-बारी से गहरे जुड़े रहे। उनका यही जुड़ाव उनकी रचनाओं को प्रामाणिक व विश्वसनीय बनाने में सहायक बना। इसीलिए उनकी रचनाओं में गाँव, गवई अध्यापक व किसान इतने अधिक सजीव व सजोर हैं। "उनकी कृतियों में उभरा गाँव रेल की खिड़की से या सिनेमा के पर्दे पर देखा हुआ गाँव नहीं है। उसमें स्वयं जिये हुए गाँव की तस्वीर है। गाँव संबंधी श्री राय की अनुभव-संपदा एक ओर यदि विस्तृत है तो दूसरी ओर घनीभूत और संवेद्य भी।"² इस संदर्भ में डॉ. लक्ष्मीशंकर त्रिवेदी का मत है कि "डॉ. राय सचमुच ग्रामीण हैं। यद्यपि अब वे नगर में रह रहे हैं परंतु उनका नगर मन अभी पूर्ण रूपेण ग्राम से जुड़ा हुआ है। यह लगाव इतना घना है कि वे उससे असंपृक्त होने की कल्पना भी नहीं करते।"³

इस प्रकार स्पष्ट है कि डॉ. राय ने उन्हीं गाँवों को उपन्यासों का मुख्य वर्ण्य-विषय बनाया है, जिन्हें उन्होंने गहराई से देखा, जिया एवं भोगा है। जिससे उनकी रचनाएँ कल्पना-प्रसूत न होकर अनुभवजन्य होने के कारण पाठक के मर्म तक पहुँचने में अत्यधिक सफल हैं। फलतः उनके संपूर्ण साहित्य पाठक के लिए अधिक से अधिक दृश्य संप्रेष्य व हृदय संवेद्य है। इस तरह का प्रयास न केवल डॉ. राय के उपन्यासों में दीखता है बल्कि स्वातंत्र्योत्तर काल की तमाम रचनाओं में देखने को मिलता है। यह प्रवृत्ति आधुनिक कथा-साहित्य में एक फैशन बन चुकी है। इस संदर्भ में प्रख्यात समीक्षक एवं लेखक डॉ. रामदरश मिश्र की मान्यता है कि "स्वाधीनता परवर्ती साहित्य में अनुभव की प्रामाणिकता अधिक मिलती है तथा संरचना में कथात्मक, वर्णनात्मक स्फीति और ऋजुता के स्थान पर शिल्प की संश्लिष्टता और नाटकीय वक्रता दिखायी पड़ती है।

यथार्थ के प्रति एक तटस्थ दृष्टि का निरंतर निखार होता गया है। भाषा में भी एक अलगाव दिखायी पड़ता है। मूल्यों के टूटने की आहट निरंतर गहरी होती गयी है।"⁴ "आज़ादी के बाद के इन ग्रामधर्मी उपन्यासों ने सामान्य गाँवों को न लेकर उन विशिष्ट गाँवों को लिया जिन्हें उनके उपन्यासकारों ने जिया था और जिनका गहरा अनुभव उन्हें था। इसलिए इन उपन्यासों में अनुभव की गहराइयाँ उभरीं और चरित्रों, संदभों, इंद्रियबोधों आदि के विशिष्ट और ताजा बिंब उभरे। .... इस धारा में अनेक विशिष्ट उपन्यास लिखे गये जिनमें गाँवों में बसे नये भारत की पहचान उभरती है। यह अत्यधिक प्रामाणिक उपन्यास हैं क्योंकि इनकी जमीन अपनी जमीन है, पश्चिम की नकल पर कल्पित जमीन नहीं है।"⁵

कहना असंगत नहीं होगा कि ग्राम जीवन के कुशल शिल्पी डॉ. राय इन सारी अपेक्षाओं पर शतशः खरे उतरते हैं। अपने उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने गाँव के दलित, शोषित, उपेक्षित, कृषक, मजदूर, श्रमिक व सदियों से पददलित व लांछित स्त्री जाति की मूक व्यथा को सशक्त वाणी दी है तथा उनकी गाथा को गाने के लिए उन्होंने उन्हीं की भाषा को भी लिया है। अर्थात डॉ. राय की रचनाओं में भाषा की मधुरता, देशी कहावतों, मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग एवं आंचलिक शब्दों की प्रचुरता उन्हें आंचलिक कथाकारों की कोटि में ला खड़ा करता है। डॉ. भगवान सहाय पचौरी का मत है कि "लगभग एक हजार भोजपुरी के शब्दों से हिंदी साहित्य को सुवासित किया है, इस आधुनिक प्रेमचंद ने।"⁶ उनके इस महान साहित्यिक योगदान को देखते हुए कोई उन्हें प्रेमचंद के समतुल्य आँकने का प्रयास करता है तो कोई उनसे भी बढ़कर मानता है जब कि मेरी दृष्टि में ये दोनों बातें अपने आप में अधूरी हैं। अर्थात इनमें से किसी भी कथन को किसी भी तरह से तर्कसंगत व न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। कारण, दोनों ही औपन्यासिक क्षितिज के दो जगमगाते नक्षत्र हैं। दो ध्रुव हैं। दो किनारे हैं। दोनों की अपनी-अपनी जगह पर अलग-अलग पहचान है। प्रेमचंद प्रेमचंद हैं और विवेकी विवेकी। इनकी या किसी भी साहित्यकार या उपन्यासकार की किसी भी साहित्यकार या उपन्यासकार से तुलना उचित नहीं कही जा सकती। क्योंकि ऐसा करने का दुष्प्रयास करना किसी भी साहित्यकार के साथ अन्याय करना होता है। हर साहित्यकार की अपनी एक निजी अनुभव-संपदा होती है, अपनी सोच होती है, अपनी अनुभूति होती है, अपना परिवेश होता है, अपना देश-काल व वातावरण होता है, तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियाँ होती हैं। अपना एक सोचने-समझने, विचारने का एक निजी तौर-तरीका होता है, अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की एक निजी कला होती है, अपनी शैली होती है, अपना कहने-सुनने का एक अलग ढंग होता है, अपना मौलिक विचार होता है, अपनी विजनपरक दृष्टि होती है, अपना एक अलग चश्मा (विवेक-चक्षु) होता है जिसके माध्यम से वह अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं को देखता एवं अनुस्यूत करता है, अपनी एक अलग वाणी होती है, अपनी लेखनी होती है। अर्थात अन्य से इतर अपना सब कुछ होता है जिससे कोई भी साहित्यकार किसी अन्य की तरह न लिखकर स्वयं अपने तरह लिखता है जो उसके व उसके द्वारा सृजित साहित्य की सफलता का राज होता है। ऐसा न करने वाला लेखक अर्थात नकल करके लिखने वाला साहित्यकार स्थापित होने के पहले ही चुक जाया करता है व उसका संपूर्ण लेखन वाद-ग्रस्त हो जाता है जबकि डॉ. राय की गाँव संबंधी अनुभव-संपदा इतनी विपुल है कि उसका मैटर कभी अवशिष्ट होता ही नहीं। इसलिए उनका लेखन बाद से परे है।

ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण करने वालों में प्रेमचंद के बाद विवेकी राय का अप्रतिम योगदान है। उनके उपन्यासों की भाषायी बुनावट एक अलग ही रंग-गंध की अनुभूति कराती है। उनके उपन्यासों का एक अलग रंग है, अलग स्वाद है, अलग तेवर है और अलग अनुभूति है जिसके द्वारा वे अपने पाठकों को एक विशिष्ट रंग में रससिक्त कर सराबोर करते हैं। अपने इस महान साहित्यिक औदार्य व प्रदेय के चलते डॉ. राय के प्रशंसकों, समर्थकों व पाठकों का एक विस्तृत समूह है, जिन्हें वे अपनी रचनाओं के माध्यम से संतुष्ट से करते हैं। प्रख्यात समीक्षक डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ का मत है कि "उपन्यास-विधा को लेकर विवेकी राय के प्रयोगधर्मिता की चर्चा प्रायः नहीं के बराबर की जाती है जबकि 'बबूल' से लेकर 'नमामि ग्रामम्' तक (अमंगलहारी' एवं 'देहरी के पार' उस समय तक अभी नहीं छपे थे जिसके चलते अमिताभ के इस कथन में इन उपन्यासों की चर्चा नहीं है।) उन्होंने नये-नये शिल्पगत व कथ्यगत प्रयोग किये हैं। एक रेखीय कथानक, दो कथाओं की संश्लिष्टता, एक उपन्यास के भीतर दूसरे उपन्यास की प्रस्तुति, किस्सागोई आदि प्रविधियों के प्रयोग से गुजरते हुए उन्होंने 'नमामि ग्रामम्' में कथानकहीनता के प्रयोग को भी आजमाया है। ललित निबंध और रिपोर्ताज का शिल्प बराबर उनके उपन्यासों में हस्तक्षेप करता है एवं उन्हें एक अलग किस्म का व्यक्तित्व प्रदान करता है। उनके परवर्ती उपन्यासों में कथ्य और शिल्प को संश्लिष्ट करने की जो सजगता है, उससे लगता है कि विवेकी राय के लिए उपन्यास विधा आज भी पूरी तरह से प्रासंगिक है।"⁷

इस प्रकार "विवेकी राय के उपन्यासों में न केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामांचल के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक संदर्भ विस्तार से व्यक्त हुए हैं। अपितु इनके ब्याज से राष्ट्रीय संदभों के संकेत भी स्पष्ट और मुखर हैं। ब्यौरों से प्रामाणित होता है कि अपने परिवेश से लेखक का जुड़ाव वास्तविक और संश्लिष्ट है। ग्रामांचल के ब्याज से अपने समय की प्रामाणिकता को व्यक्त करने की दृष्टि से विवेकी राय के उपन्यास रेणु, नागार्जुन, जगदीशचंद्र, राही मासूम रजा, शिवप्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र आदि के ग्राम-केंद्रित उपन्यासों की धारा में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।"⁸

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विवेकी राय के उपन्यासों में चित्रित गाँव 'करइल' अंचल के वे कुछ खास गाँव, जिन्हें कथाकार ने जिया एवं भोगा है, होते हुए भी अपने लक्ष्य विस्तार के साथ संपूर्ण स्वातंत्र्योत्तर भारतीय गाँवों का दिग्दर्शन कराते हैं। इस प्रकार उनके उपन्यासों को यदि स्वातंत्र्योत्तर भारतीय ग्राम जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि स्वरूपों का दर्शन कराने वाला विशाल दर्पण कहा जाय तो मेरी समझ से कोई अत्युक्ति नहीं होगी। वस्तुतः उनके उपन्यासों में चित्रित गाँवों का सच ही पूरे भारत के गाँवों का सच है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि अगर आज़ादी के पूर्व के गाँवों का दर्शन करने के लिए प्रेमचंद का साहित्य पर्याप्त है तो आज़ादी के बाद के भारतीय गाँवों का समग्र दर्शन कराने के लिए अकेले विवेकी राय का साहित्य, उसमें भी खासकर मात्र उनका औपन्यासिक साहित्य ही पर्याप्त है।

संदर्भ;

1. समीक्षा (30/1) सं. डॉ. गोपाल राय

2. अक्षर बीज की हरियाली - डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ.35-36.

3. प्रकर (जनवरी 1994), पृ.39

4. हिंदी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा- डॉ. रामदरश मिश्र, पृ. 78.

5. वही, पृ.251-252

6. ज्ञान तरंगिणी (जनपदीय अंक, 1985-86), पृ.50.

7. अक्षर बीज की हरियाली - डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ.35

8. वही, पृ.49

- श्री चंद्रशेखर तिवारी

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