In this Article Discuss about The journey of Devnagri from Rashtranagri to Vishwanagri, Devnagari ki Rastra Nagari se Vishwa Nagari tak ki Yatra.
The journey of Devnagri from Rashtranagri to Vishwanagri
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देवनागरी की राष्ट्रनागरी से विश्वनागरी तक की यात्रा
देवनागरी लिपि सम्पूर्णता, सुगमता, सरलता, सुस्पष्टता, नियतता, तारतम्य, ध्वन्यात्मकता, अक्षरीय वैशिष्ट्य, व्यापकता, सम्प्रेषणीयता, यन्त्रयोग्तय तथा नमनीयता जेसी वैज्ञानिक विशेषताओं के कारण विश्व की 540 लिपियों के मध्य सम्राज्ञी के आसान को अलंकृत कर रही है। लेखन-सौष्ठव, उच्चारण-सौकर्य, वर्ण-विन्यास, स्वर-व्यंजन-विधान, संपन्नता और सौन्दर्य के कारण वह जहाँ विदेशी वैयाकरण, ध्वनिविज्ञानी, प्राज्यविद्, संगणक वैज्ञानिक तुलनात्मक धर्मविद् और लिपि-शास्त्रियों के अप्रतिहंत आकर्षण का केन्द्र है वहीं ऐक्य-सेतु के रूप में अपनी सहजात ऐतिहासिक भूमिका और समन्वयवादी तथा सामरस्यपूर्ण सांस्कृतिक जीवन-दृष्टि के कारण जननायकों, भूमिका और समन्वयवादी तथा सामरस्यपूर्ण सांस्कृतिक जीवन-दृष्टि के कारण जननायकों, शासकों, राजनयज्ञों, सन्तों, साहित्यकारों और कलामर्मज्ञों के अभिनन्दन का पात्र है। एकात्मकता के अमृत से अभिषिक्त करते हुए वह न केवल भारत की सीमाओं के भीतर प्रचलित 826 भाषाओं एवं 1652 बोलियों को अपितु दक्षिण-पूर्व एशिया की ऐतिहासिक बौद्ध पृष्ठ-भूमिवाली राष्ट्रमाला और उससे भी परे जाकर विश्वभर की विकसित अविकसित 2796 भाषाओं को विश्व-कुटुम्ब का अद्वैत मूलक मन्त्र दे रही है 'यत्र विश्वं भवत्येक नीड्म।' आज देव-नागरी विश्वनागरी की भूमिका की ओर अग्रसर है किन्तु वह सबकी निजता, अस्मिता और आत्मवैशिष्ट्य की सम्पूर्ण स्वीकृति के प्रति वैसे ही प्रतिश्रुत है जैसे अवधी, व्रज, भोजपुरी, मैथिली, नेपाली, मराठी, संस्कृत, प्राकृत, पाली और अपभ्रंश आदि के प्रति सैकड़ों वर्षों से रही है।
सर विलियम जोन्स (1748-1794) जार्ज बरनार्ड शा की भाँति रोमन वर्णमाला और वर्तनी को अवैज्ञानिक और हास्यास्पद मानते हैं तथा देवनागरी को सर्वाधिक स्वाभाविक, विज्ञान सम्मत एवं मनोहर। फ्रेड्रिक जॉन शोर ने भारत की कार्यपालिका एवं न्याय-पालिका की भाषा और लिपि पर अत्यन्त तर्कसंगत, निष्पक्ष, गहन और व्यापक विचार करते हुए देवनागरी लिपि का सबल अनुमोदन किया तथा अँग्रेजी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए भी देवनागरी अपनाने पर ज़ोर दिया। एफ.एस. ग्राउस ने डॉ. गिलक्रिस्ट, सर चार्ल्स एडवर्ड ट्रेविलियन, जे. प्रिन्सेप टाइटलर, पी. टी. प्रिन्सेप, डब्ल्यू. एन. लीस, आदि द्वारा द्वारा भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि के प्रस्ताव का जोरदार विरोध किया और देवनागरी लिपि का अनुमोदन किया। जे. नोल्स ने रोमन लिपि के पक्ष में 1910 में पुनः विचार रखे किन्तु इलाहाबाद में आयोजित कॉमन स्क्रिप्ट कॉन्फरेंस (दिसम्बर 1920) ने उनके मत को अस्वीकृत कर देवनागरी लिपि का समर्थन किया। सर आइजक टेलर का मत है कि देवनागरी से अधिक सुन्दर, सबल और सटीक वर्णमाला कहीं नहीं मिलती तथा इसके उपयोगकर्ताओं की संख्या किसी भी लिपि के प्रयोक्ताओं से अधिक है। डॉ. मैक्डॉनल ने 'संस्कृत साहित्य के इतिहास' में लिखा है कि 400 ई. पू. में पाणिनी के समय भारत ने लिपि को वैज्ञानिकता से समृद्ध कर विकास में उच्चतम सोपान पर प्रतिष्ठित किया जब कि हम यूरोपिन लोग इस वैज्ञानिक युग में 2500 साल बाद भी उस वर्णमाला को गले लगाये हुए हैं जिसे ग्रीकों ने पुराने सेमेटिक लोगों से अपनाया था, जो हमारी भाषाओं के समस्त ध्वनि-समुच्चय का प्रकाशन करने में असमर्थ है तथा तीन हजार साल पुराने अवैज्ञानिक, स्वर-व्यंजन-मिश्रण को अब भी पीठ पर लादे हुए है। थॉमस का कथन है कि देवनागरी लिपि को इतना पूर्ण और विकसित बनाया गया है कि कोई पुरानी जाति इसकी तुलना नहीं कर सकती तथा इसी की कृपा से सिंहल सुमात्रा, जावा, तुर्किस्तान आदि देशों में जो कुछ लिखा गया, उसे आज भी यथावत् ठीक-ठीक पढ़ा जा सकता है। आशुलिपि के उद्भावक सर आइजक पिटमैन केवल देवनागरी को संसार की सर्वाधिक पूर्ण लिपि के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं।
सह-लिपि के रूप में देवनागरी लिपि की विपुल क्षमता का मूल्यांकन कर उसके भूमण्डलीकरण की दिशा में प्रयास वालों में अग्रणी हैं कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र (1848-1916)। मित्र महोदय ने 22 दिसम्बर, 1904 को सर गुरुदास बन्द्योपाध्याय की अध्यक्षता में आयोजित विद्वद्गोष्ठी में बर्मा और श्रीलंका सहित सम्पूर्ण अविभाजित भारत के लिए फारसी और रोमन लिपियों का बहिष्कार कर सार्वजनिक लिपि के रूप में देवनागरी को अंगीकार करने का विचार रखा। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सर गुरुदास बंद्योपाध्याय, महामोपाध्याय सतीश चन्द्र • विद्याभूषण, दरभंगानरेश सर समेश्वर सिंह, अयोध्या के महाराजा प्रतापनारायण सिंह, पं. श्रीधर पाठक, बालकृष भट्ट, रामानन्द चट्टोपाध्याय आदि के सत्प्रयासों ने न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र के प्रधान मंत्रित्व में एक लिपि विस्तार-परिषद् का गठन कलकत्ता में अगस्त 1905 में किया गया। 29 दिसम्बर, 1905 को श्री रमेश चन्द्र दत्त, आई. सी.एस. के सभापतित्व में एक विशेष सभा में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक लिपि के रूप में देवनागरी लिपि का जोरदार समर्थन किया और उसकी उपेक्षा को आत्घाती बताया। मई 1907 में कलकत्ता की एक लिपि विस्तार परिषद् ने 'देवनागर' नामक पत्र प्रकाशित किया जिसके सम्पादक यशोदानन्दन अखौरी थे। इस पत्र में देवनागरी लिपि में विभिन्न भाषाओं के लेख छापे जाते थे।
1910 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री वी. कृष्ण स्वामी अय्यर ने विभिन्न लिपियों के व्यवहार से बढ़ने वाली अनेकता और भारतीय भाषाओं के बीच पनपती दूरी पर चिन्ता व्यक्त करते हुए सहलिपि के रूप में देवनागरी का समर्थन किया। श्री रामानन्द चटर्जी ने 'चतुर्भाषी' नामक पत्र निकाला जिसमें बंगला, मराठी, गुजराती और हिन्दी की रचनाएँ देवनागरी लिपि में छपती थीं। राजा राममोहनराय और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ही नहीं, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय भी देवनागरी लिपि के प्रबल समर्थक थे। विद्यासागर जी चाहते कि भारतीय भाषाओं के लिए नागरी लिपि का व्यवहार अतिरिक्त लिपि के रूप में किया जाए, जबकि बंकिम बाबू का मत था कि भारत में केवल देवनागरी लिपि का व्ययहार किया जाना चाहिए।
बहादुरशाह जफर के भतीजे वेदार बख्त ने 'पयाम-ए-आजादी' पत्र साथ देवनागरी और फारसी लिपि में प्रकाशित किया। महर्षि दयानन्द ने अपना सारा वाङ्मय देवनागरी में लिखा। उनके प्रभाव से देवनागरी का व्यापक प्रचार हुआ। मेरठ में गौरीदत्त शर्मा ने 1870 के लगभग 'नागरीसभा' का गठन किया और स्वामीजी की प्रेरणा से अनेक लोग नागरी के प्रसार में जी जान से जुट गये। आज मेरठ में देवनागरी कालेज उन्हीं की कृपा का सुफल है। श्री भूदेव मुखोपाध्याय ने बिहार की अदालतों में देवनागरी का प्रयोग आरम्भ कराया जिसकी प्रशंसा संस्कृत के उपन्यासकार अंबिकादत्त व्यास ने अपने गीतों में की है। भारतेन्दु हरिशचन्द, कालाकांकर नरेश, राजा रामपाल सिंह, अलीगढ़ के बाबू तोता राम, बाबू श्यामसुन्दर दास, बाबू राधाकृष्ण दास और पं. मदनमोहन मालवीय के सत्प्रयत्न रंग लाये और उत्तर प्रदेश के न्यायालयों में देवनागरी के वैकल्पिक प्रयोग का रास्ता साफ हुआ।
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से सामान्य लिपि के रूप में देवनागरी अपनाने के कट्टर हिमायती थे। पं. जवाहर लाल नेहरू सभी भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली मजबूत कड़ी के रूप में देवनागरी लिपि को अपनाने के समर्थक थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद चाहते थे कि भारत की प्रादेशिक भाषाओं का साहित्य देवनागरी के माध्यम से हर भारतीय को आस्वादन के लिए उपलब्ध होना चाहिए। स्वातन्त्रवीर सावरकर नागरी को 'राष्ट्रलिपि' के रूप में मान्यता देने के पक्ष में थे। लाला लाजपतराय राष्ट्रव्यापी मेल और राजनैतिक एकता के लिए सारे भारत में देवनागरी का प्रचार आवश्यकत मानते थे। 1924 में शहीद भगत सिंह ने लिखा था - 'हमारे सामने इस समय मुख्य प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है, परन्तु यह एकदम नहीं हो सकता। उसके लिए कदम-कदम चलना पड़ता है। यदि हम सभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देनी चाहिए।' 'रेवरेण्ड जॉन डिनी लिखते हैं - 'चूंकि लाखों भाषाभाषी पहले से ही नागरी लिपि जानते हैं, इसलिए मैं महसूस करता हूँ किम बिल्कुल नहीं लिपि के प्रचलन की अपेक्षा किचिंत संवर्द्धित नागरी लिपि को ही अपनाना अधिक वास्तविक होगा।'
आचार्य विनोबा भावे संसार की अनेक लिपियों के जानकार थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि देवनागरी लिपि भारत ही नहीं, संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। अगर भारत की सब भाषाओं के लिए इसका व्यवहार चल पड़ते तो सारे भारतीय एक दूसरे के बिल्कुल नजदीक आ जाएंगे। हिन्दुस्तान की एकता में देवनागरी हिन्दी से ही अधिक उपयोगी हो सकती है। एम. सी. छागला कहते थे कि एक सर्वमान्य लिपि स्वीकार करेन से भारत की विभिन्न भाषाओं में जो ज्ञान का भण्डार भरा है उसे प्राप्त करने का एक साधारण व्यक्ति को सहज ही अवसर प्राप्त होगा। हमारे लिए यदि कोई सर्व-मान्य लिपि स्वीकार करना सम्भव है तो वह देवनागरी है। अनन्त शयनम् अयंगार तो दक्षिण, भारतीय भाषाओं के लिए भी देवनागरी की सम्भावना स्वीकार करते थे। सेठ गोविन्ददास इसे राष्ट्रीय लिपि घोषित करने के पक्ष में थे।
देश देवनागरी लिपि की क्षमता से शताब्दियों से परिचित रहा है। कनिंघम की पुस्तक में सबसे प्राचीन मुसलमानी सिक्के के रूप में महमूद गजनबी द्वारा चलाये गए चांदी के सिक्के का वर्णन है जिस पर देवनागरी लिपि में संस्कृत अंकित है। मुहम्मद विनसाम (1192-1205) के सिक्कों पर लक्ष्मी की मूर्ति के साथ देवनागरी लिपि का व्यवहार हुआ है। शमशुद्दीन इल्तुतमिश (1210-1235) के सिक्कों पर भी देवनागरी अंकित है। सानुद्दीन फिरोजशाह प्रथम, जलालुद्दीन रजिया, बहराम शाह, अलालुद्दीन मरूदशाह, नसीरुद्दीन महमूद, मुईजुद्दीन, ग्यासुद्दीन बलवन, मुईजुद्दीन कैकूबाद, जलालुद्दीन हीरो सानी, अलाउद्दीन महमद शाह आदि ने अपने सिक्कों पर देवनागरी अक्षर अंकित किये हैं। अकबर के सिक्कों पर देवनागरी में 'राम' सिया का नाम अंकित है। गयासुद्दीन तुगलक, शेरशाह सूरी, इस्लाम शाह, मुहम्मद आदिलशाह, गयासुद्दीन इब्ज, ग्यासुद्दीन सानी आदि ने भी इसी परम्परा का पालन किया।
758 ई. का राष्ट्रकूट राजादन्तिदुर्ग का सामगढ़ ताम्रपट मिलता है जिस पर देवनागरी अंकित है। शिलाहारवंश के गण्डरादित्य के उत्कीर्ण लेख की लिपि देवनागरी है। इसका समय ग्यारहवीं शताब्दी है। इसी समय के चोलराजा राजेन्द्र के सिक्के मिले हैं जिन पर देवनागरी लिपि अंकित है। राष्ट्रकूट राजा इन्द्रराज (दसवीं शती) के लेख में भी देवनागरी का व्यवहार किया है। प्रतीहार राजा महेन्द्रपाल (891-907) का दानपत्र भी देवनागरी लिपि में है।
सह-लिपि के रूप में देवनागरी राष्ट्रलिपि का रूप ग्रहण कर सकती है। इससे श्रम, समय और धन की बचत तो होगी ही राष्ट्रीय भावना और पारस्परिक आत्मीयता की अभिवृद्धि भी होगी। इससे पृथक्तावाद के विषाणुओं का विनाश होगा ओर अखण्डता की भावना सबल होगी। भारतीय साहित्य के वास्तविक स्वरूप पर परिचय मिलेगा तथा सारी भाषाएं एक-दूसरे के निकट आकर स्नेह-सूत्र में गुम्फित हो जाएंगी। उनके बीच की विभेद की दीवार ढह जाएगी और आसेतु हिमालय सामाजिक समरता परिपुष्ट होगी। यही नहीं, सारीभारतीय भाषाओं को अखिल भारतीय बाजार मिलेगा, उनकी खपत बढ़ेगी और शोध को अखिल भारतीय स्तर प्राप्तहोगा। न केवल शब्द-भण्डार का साम्य, बल्कि भाव और प्रवृत्तियों का साम्य भी परिलक्षित होगा और एक भाषा बोलने वाला दूसरी भाषा और इसके साहित्य के सौष्ठव तथा वैशिष्ट्य का भरपूर आस्वादन कर सकेगा। इसीलिए खुशवन्त सिंह ने उर्दू साहित्य को देवनागरी में लिखने का समर्थन किया है। देवनागरी में गालिब, मीर, नजीर आदि की पुस्तकें लगभग । करोड़ रुपये की बिल चुकी हैं।
आज जनजातियों की बेहद उपेक्षा हुई। उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग-थलग कर विदेशी मिशनरियों के आसरे छोड़ दिया गया। उन्हें भारतीय होने का गौरव मध्य क्षेत्र में संथाल, मुण्डा, चकमा आदि तथा दक्षिण क्षेत्र में चेंचू, कांटा, कुरुम्ब जनजातियाँ रहती हैं। अण्डमान-निकोबाद द्वीप समूह में ओगो, शोम्पेन आदि जनजातियाँ पाई जाती हैं। लिपि विहीन जन जातीय बोलियों के लिए देवनागरी सबसे उपयुक्त है। बोडो और जेभी भाषा के लिए नागरी लिपि का प्रयोग होता है। अरुणाचल में भी देवनागरी का व्यवहार जनजातीय बोलियों के लिए किया जा रहा है। जहाँ पर भी संस्कृत, प्राकृत, पाली और अपभ्रंश का अनुशीलन होता रहा है, वहाँ देवनागरी लिपि सुपरिचित है। मराठी, नेपाली के बोलने वाले इस लिपि का पहले से ही व्यवहार करते हैं। दक्षिण भारत हो या भारत का कोई भी हिन्दीतर क्षेत्र-देववाणी के कारण नागरी अक्षर सर्वत्र प्रचलित हैं। बौद्ध संस्कृति से प्रभावित क्षेत्र नागरी के लिए नया नहीं है। चीन और जापान चित्रलिपि का व्यवहार करते हैं। इन चित्रों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण भाषा सीखने में बहुत कठिनाई होती है। देववाणी की वाहिका होने के नाते देवनागरी भारत की सीमाओं से बाहर निकलकर चीन और जापान के लिए भी समुचित विकल्प दे सकती है। भारतीय मूल के लोग संसार में जहाँ-जहाँ भी रहते हैं, वे देवनागरी से परिचय रखते हैं, विशेषकर मारीशस, सूरिनाम, फिजी, गायना, त्रिनिदाद, टुबैगो आदि के लोग। इस तरह देवनागरी लिपि न केवल भारत के अन्दर सारे प्रान्तवासियों को प्रेम-बन्धन में बाँधकर राष्ट्रनागरी पद चरितार्थ कर सकती है, बल्कि सीमोल्लंघन कर दक्षिण-पूर्व एशिया के पुराने वृहत्तर भारतीय परिवार को भी 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' अनुप्राणित कर सकती है तथा विभिन्न देशों को एक अधिक सुचारू और वैज्ञानिक विकल्प प्रदान कर 'विश्व नागरी' की पदवी का दाबा इक्कीसवीं सदी में कर सकती है। उस का प्रसार लिपिगत साम्राज्यवाद और शोषण का माध्यम ने होकर सत्य, अहिंसा, त्याग, संयम जैसे उदात्त मानवमूल्यों का संवाहक होगा, असत् से सत्, तमस् से ज्योति तथा मृत्यु से अमरता की दिशा में।
- डॉ. भगवान शरण भारद्वाज
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